Thursday, September 28, 2017

यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है ?

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*💫यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है ?*

पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना चाहते हैं। शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही बहुत कठिन है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई आदमी ठीक से अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह अशांत हुए बिना कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत नहीं हैं। यदि हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम इतने अधूरे जीते हैं कि शांति तो बहुत दूर,अशांति भी पूरी नहीं हो पाती।

हमारी बीमारी भी इतनी कम है कि हम चिकित्सा की तलाश में भी नहीं निकलते। जब बीमारी बढ़ जाती है तो चिकित्सक की खोज शुरू होती है। लेकिन हम बचपन से ही इस भांति पाले जाते हैं कि हम कुछ भी पूरी तरह नहीं कर पाते। न तो हम क्रोध पूरी तरह कर पाते हैं कि अशांत हो जायें। न ही चिंता पूरी तरह कर पाते हैं कि मन व्यथित हो जाये। न हम द्वेष पूरी तरह कर पाते हैं, न घृणा पूरी तरह कर पाते हैं कि मन में आग लग जाये और नर्क पैदा हो जाये। हम इतने कुनकुने जीते हैं कि कभी आग जल ही नहीं पाती और इसलिए पानी खोजने भी हम नहीं निकलते जो उसे बुझा दे। हमारा कुनकुना जीना ही,ल्यूक-वार्म-लिविंग ही हमारी कठिनाई है।

जब कोई मुझसे पूछता है कि जब शांत होना इतना आसान है तो बहुत लोग शांत क्यों नहीं हो जाते। तो पहली बात तो यह है कि वे अभी ठीक से अशांत ही नहीं हुए हैं। उन्हें अशांत होना पड़ेगा। शांत तो आदमी क्षण-भर में हो जाता है, अशांत होने के लिए जन्म-जन्म लेने पड़ते हैं, लंबी यात्रा है। यह इतने जन्मों की हमारी जो यात्रा है,यह शांति की यात्रा नहीं है, शांति तो क्षण-भर में घटित हो जाती है। यह इतने जन्मों की यात्रा हमारे अशांत होने की यात्रा है जो हम पूरी तरह अशांत हो जाते हैं। जब अशांति की चरम अवस्था आ जाती है,क्लाइमेक्स आ जाता है, तब हम लौटना शुरू करते हैं।

बुद्ध एक गांव में गये--और जो आज मुझसे आपने पूछा है एक आदमी ने उनसे भी आकर पूछा। और उस आदमी ने उनसे कहा था कि चालीस वर्षों से निरंतर आप गांव-गांव घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए, कितने लोग मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है, कुछ हिसाब है? वह आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा। बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा क्योंकि बुद्ध जैसे लोग खाता-बही लेकर नहीं चलते हैं कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया, कौन नहीं शांत हो गया। बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब रखें।

बुद्ध मुश्किल में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये, चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने का? बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूं। और एक छोटा-सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं कर लाऊंगा। और सांझ आ जाता हूं हिसाब पक्का रखना, मैं जानना ही चाहता हूं कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए; कितने लोगों ने परमात्मा पा लिया; कितने लोग आनंद को उपलब्ध हो गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।

बुद्ध ने उससे कहा, कि यह कागज ले जाओ और गांव में एक-एक आदमी से पूछ आओ, उसकी जिंदगी की आकांक्षा क्या है, वह चाहता क्या है? वह आदमी गया। उसने गांव में--एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोपड़ियां थीं, उसने एक-एक घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की बहुत जरूरत है, और किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने कहा--और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है, पत्नी चाहिए। किसी ने कहा--और सब ठीक है, लेकिन स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी उम्र मिल जाये और तो बस, और सब ठीक है। सारे गांव में घूमकर सांझ को जब वह लौटने लगा तो रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूंगा जाकर। क्योंकि उसे खयाल आ गया कि शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव-भर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा, शांति चाहिए;जिसने कहा, परमात्मा चाहिए; जिसने कहा आनंद चाहिए। बुद्ध के सामने खड़ा हो गया। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये कि सांझ वह आदमी मुश्किल में पड़ गया।

बुद्ध ने कहा, ले आये हो? उसने कहा, ले तो आया हूं। बुद्ध ने कहा,कितने लोग शांति चाहते हैं? उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला गांव में। बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शांति? तो रुक जा। उसने कहा,लेकिन अभी तो मैं जवान हूं, अभी शांति लेकर क्या करूंगा? जब उम्र थोड़ी ढल जाये तो मैं आऊंगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है,अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर पूछता है वही सवाल? कि कितने लोग शांत हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूं।

*कोई किसी को शांत नहीं कर सकता, लेकिन हम शांत हो सकते हैं। पर अशांत हो गये हों तभी।*

जीवन ही है प्रभु (साधना शिविर)
ओशो

Thursday, September 21, 2017

कूबा कुम्हार की कथा

कूबा जी परम भगवद्भक्‍त थे। ये अपनी पत्‍नी ‘पुरी’ के साथ महीने भर में मि‍ट्टी के तीस बर्तन बना लेते और उन्‍हीं को बेचकर पति-पत्‍नी जीवन निर्वाह करते थे। धन का लोभ था नहीं, भगवान के भजन में अधिक-से-अधिक समय लगना चाहिये, इस विचार से कूबा जी अधिक बर्तन नहीं बनाते थे। घर पर आये हुए अतिथियों की सेवा और भगवान का भजन, बस इन्‍हीं दो कामों में उनकी रुचि थी।

अभय सरन हरि के चरन की जिन लई सम्‍हाल।
तिनतें हारयौ सहज ही अति कराल हू काल।।

परिचय

राजपूताने के किसी गाँव में कूबा नाम के कुम्‍हार जाति के एक भगवद्भक्‍त रहते थे। ये अपनी पत्‍नी ‘पुरी’ के साथ महीने भर में मि‍ट्टी के तीस बर्तन बना लेते और उन्‍हीं को बेचकर पति-पत्‍नी जीवन निर्वाह करते थे। धन का लोभ था नहीं, भगवान के भजन में अधिक-से-अधिक समय लगना चाहिये, इस विचार से कूबा जी अधिक बर्तन नहीं बनाते थे। घर पर आये हुए अतिथियों की सेवा और भगवान का भजन, बस इन्‍हीं दो कामों में उनकी रुचि थी।[1]

धन की गतियाँ

धन का सदुपयोग तो कोई बिरले पुण्‍यात्‍मा ही कर पाते हैं। धन की तीन गतियाँ हैं- दान, भोग और नाश। जो न दान करता है और न सुख-भोग में धन लगाता, उसका धन नष्‍ट हो जाता है। चोर-लुटेरे न भी ले जायँ, मुकदमे या रोगियों की चिकित्‍सा में न भी नष्‍ट हो, तो भी कंजूस का धन उसकी सन्‍तान को बुरे मार्ग में ले जाता है और वे उसे नष्‍ट कर डालते हैं। भोग में धन लुटाने से पाप का संचय होता है। अत: धन का एक ही सदुपयोग है- दान। घर आये अतिथि का सत्‍कार।

चमत्कारिक घटनाएँ

एक बार कूबा जी के ग्राम में दो सौ साधु पधारे। साधु भूखे थे। गाँव में सेठ-साहूकार थे, किंतु किसी ने साधुओं का सत्‍कार नहीं किया। सब ने कूबाजी का नाम बता दिया। साधु कूबा जी के घर पहुँचे। घर पर साधुओं की इतनी बड़ी मण्‍डली देखकर कूबा जी को बड़ा आनन्‍द हुआ। उन्‍होंने नम्रतापूर्वक सबको दण्‍डवत प्रणाम किया। बैठने को आसन दिया। परंतु इतने साधुओं को भोजन कैसे दिया जाय? घर में तो एक छटाँक अन्‍न नहीं था। एक महाजन के पास कूबा जी उधार माँगने गये। महाजन इनकी निर्धनता जानता था और यह भी जानता था कि ये टेक के सच्‍चे हैं। उसने यह कहा- "मुझे एक कुआँ खुदवाना है। तुम यदि दूसरे मजदूरों की सहायता के बिना ही कुआँ खोद देने का वचन दो तो मैं पूरी सामग्री देता हूँ।" कूबा जी ने शर्त स्‍वीकार कर ली। महाजन से आटा, दाल, घी आदि ले आये। साधु-मण्‍डली ने भोजन किया और कूबा जी को आशीर्वाद देकर विदा हो गये।

साधुओं के जाते ही कूबा जी अपने वचन के अनुसार महाजन के बताये स्‍थान पर कुआँ खोदने में लग गये। वे कुआँ खोदते और उनकी पतिव्रता स्‍त्री पूरी मिट्टी फेंकती। दोनों ही बराबर हरिनाम-कीर्तन किया करते। बहुत दिनों तक इसी प्रकार लगे रहने से कुएँ में जल निकल आया। परंतु नीचे बालू थी। ऊपर की मिट्टी को सहारा नहीं था। कुआँ बैठ गया। ‘पुरी’ मिट्टी फेंकने दूर चली गयी थी। कूबा जी नीचे कुएँ में थे। वे भीतर ही रह गये। बेचारी पुरी हाहाकार करने लगी।

गाँव के लोग समाचार पाकर एकत्र हो गये। सब ने यह सोचा कि मिट्टी एक दिन में तो निकल नहीं सकती। कूबा जी यदि दबकर न भी मरे होंगे तो श्‍वास रुकने से मर जायँगे। पुरी को वे समझा-बुझाकर घर लौटा लाये। कुछ लोगों ने दयावश उसके पास खाने-पीने का सामान भी पहुँचा दिया। बेचारी स्‍त्री कोई उपाय न देखकर लाचार घर चली आयी। गाँव के लोग इस दुर्घटना को कुछ दिनों में भूल गये। वर्षा होने पर कुएँ के स्‍थान पर जो थोड़ा गड्ढा था, वह भी मिट्टी भरने से बराबर हो गया।

एक बार कुछ यात्री उधर से जा रहे थे। रात्रि में उन्‍होंने उस कुएँ वाले स्‍थान पर ही डेरा डाला। उन्‍हें भूमि के भीतर से करताल, मृदंग आदि के साथ कीर्तन की ध्‍वनि सुनायी पड़ी। उनको बड़ा आश्‍चर्य हुआ। रातभर वे उस ध्‍वनि को सुनते रहे। सबेरा होने पर उन्‍होंने गाँव वालों को रात की घटना बतायी। अब जो जाता, जमीन में कान लगाने पर उसी को वह शब्‍द सुनायी पड़ता। वहाँ दूर-दूर से लोग आने लगे। समाचार पाकर स्‍वयं राजा अपने मंत्रियों के साथ आये। भजन की ध्‍वनि सुनकर और गाँव वालों से पूरा इतिहास जानकर उन्‍होंने धीरे-धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्‍भ किया। बहुत-से लोग लग गये, कुछ घंटों में कुआँ साफ हो गया। लोगों ने देखा कि नीचे निर्मल जल की धारा बह रही है। एक ओर आसन पर शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान विराजमान हैं और उनके सम्‍मुख हाथ में करताल लिये कूबा जी कीर्तन करते, नेत्रों से अश्रुधारा बहाते तन-मन की सुधि भूले नाच रहे हैं। राजा ने यह दिव्‍य दृश्‍य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना।

अचानक वह भगवान की मूर्ति अदृश्‍य हो गयी। राजा ने कूबा जी को कुएँ से बाहर निकलवाया। सब ने उन महाभागवत की चर-धूलि मस्‍तक पर चढ़ायी। कूबा जी घर आये। पत्‍नी ने अपने भगवद्भक्‍त पति को पाकर परमानन्‍द लाभ किया। दूर-दूर से अब लोग कूबा जी के दर्शन करने और उनके उपदेश से लाभ उठाने आने लगे। राजा नियमपूर्वक प्रतिदिन उनके दर्शनार्थ आते थे।

एक बार अकाल के समय कूबा जी की कृपा से लोगों को बहुत-सा अन्‍न प्राप्‍त हुआ था। उनके सत्‍संग से अनेक स्‍त्री-पुरुष भगवान के भजन में लगकर संसार-सागर से पार हो गये।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) |पृष्ठ संख्या- 681

रामदास चमार की कथा

रामदास दक्षिण भारत की पवित्र नगरी कनकावती में रहने वाले भगवद्भक्त थे। ये घर में ही कीर्तन आदि किया करते थे। रामदास जाति से चमार थे। जूता बनाते-बनाते भी वे भगवन्नाम लिया करते थे। कहीं कथा-कीर्तन का पास-पड़ौस में समाचार मिलता तो वहाँ गये बिना नहीं रहते थे। उन्‍होंने कीर्तन में सुना था- "हरि मैं जैसो तैसो तेरौ।" यह ध्‍वनि उनके हृदय में बस गयी थी।

शुचि: सद्भक्तिदीप्‍ताग्निदग्‍धदुर्जातिकल्‍मष:।
श्‍वपाकोऽपि बुधै: श्‍लाघ्‍यो न वेदज्ञोऽपि नास्तिक:।।

परिचय

दक्षिण भारत में गोदावरी के पवित्र किनारे पर कनकावती नगरी थी। वहाँ रामदास नाम के एक भगवद्भक्त रहते थे। वे जाति के चमार थे। घर में मूली नाम की पतिव्रता पत्‍नी थी और एक सुशील बालक था। स्‍त्री-पुरुष मिलकर जूते बनाते थे। रामदास उन्‍हें बाजार में बेच आते। इस प्रकार अपनी मजदूरी के पवित्र धन से वे जीवन-निर्वाह करते थे। तीन प्राणियों का पेट भरने पर जो पैसे बचते, वे अतिथि-अभ्‍यागतों की सेवा में लग जाते या दीन-दु:खियों को बाँट दिये जाते। संग्रह करना इन भक्त दम्‍पत्ति ने सीखा ही नहीं था।

कीर्तन-भजन

रामदास घर में कीर्तन किया करते थे। जूता बनाते-बनाते भी वे भगवन्नाम लिया करते थे। कहीं कथा-कीर्तन का पास-पड़ौस में समाचार मिलता तो वहाँ गये बिना नहीं रहते थे। उन्‍होंने कीर्तन में सुना था- "हरि मैं जैसो तैसो तेरौ।" यह ध्‍वनि उनके हृदय में बस गयी थी। इसे बार-बार गाते हुए वे प्रेम-विह्वल हो जाया करते थे। अपने को भगवान का दास समझकर वे सदा आनन्‍दमग्‍न रहते थे।[1]

शालग्राम की प्राप्ति

एक बार एक चोर को चोरी के माल के साथ शालग्राम जी की एक सुन्‍दर मूर्ति मिली। उसे उस मूर्ति से कोई काम तो था नहीं। उसने सोचा- "मेरे जूते टूट गये हैं, इस पत्‍थर के बदले एक जोड़ी जूते मिल जायँ तो ठीक रहे।" वह रामदास के घर आया। पत्‍थर रामदास को देकर कहने लगा- "देखो, तुम्‍हारे औजार घिसने-योग्‍य कितना सुन्‍दर पत्‍थर लाया हूँ। मुझे इसके बदले एक जोड़ी जूते दे दो।" रामदास उस समय अपनी धुन में थे। उन्‍हें ब्रह्मज्ञान पूरा नहीं था। ग्राहक आया देख अभ्‍यासवश एक जोड़ी जूता उठाकर उसके सामने रख दिया। चोर जूता पहनकर चला गया। मूल्‍य माँगने की याद ही रामदास को नहीं आयी। इस प्रकार शालग्राम जी अपने भक्तके घर पहुँच गये। रामदास अब उन पर औजार घिसने लगे।

ब्राह्मण द्वारा शालग्राम प्रतिमा की मांग

एक दिन उधर से एक ब्राह्मण देवता निकले। उन्‍होंने देखा कि यह चमार दोनों पैरों के बीच शालग्राम जी की सुन्‍दर मूर्ति को दबाकर उस पर औजार घिर रहा है। ब्राह्मण को दु:ख हुआ यह देखकर। वे आकर कहने लगे- "भाई ! मैं तुमसे एक वस्‍तु माँगने आया हूँ। ब्राह्मण की इच्‍छा पूरी करने से तुम्‍हें पुण्‍य होगा। तुम्‍हारा यह पत्‍थर मुझे बहुत सुन्‍दर लगता है। तुम इसको मुझे दे दो। इसे न पाने से मुझे बड़ा दु:ख होगा। चाहो तो इसके बदले दस-पाँच रुपये मैं तुम्‍हें दे सकता हूँ।"

रामदास ने कहा- "पण्डित जी ! यह पत्‍थर है तो मेरे बड़े काम का है। ऐसा चिकना पत्‍थर मुझे आज तक नहीं मिला है; पर आप इसको न पाने से दु:खी होंगे, अत: आप ही ले जाइये। मुझे इसका मूल्‍य नहीं चाहिये। आपकी कृपा से परिश्रम करके मेरा और मेरे स्‍त्री-पुत्र का पेट भरे, इतने पैसे मैं कमा लेता हूँ। प्रभु ने मुझे जो दिया है, मेरे लिये उतना पर्याप्‍त है।" पण्डित जी मूर्ति पाकर बड़े प्रसन्‍न हुए। घर आकर उन्‍होंने स्‍नान किया। पंचामृत से शालग्राम जी को स्‍नान कराया। वेदमंत्रों का पाठ करते हुए षोडशोपचार से पूजन किया भगवान का। इसी प्रकार वे नित्‍य पूजा करने लगे। वे विद्वान थे, विधिपूर्वक पूजा भी करते थे; किंतु उनके हृदय में लोभ, ईर्ष्‍या, अभिमान, भोगवासना आदि दुर्गुण भरे थे। वे भगवान से नाना प्रकार की याचना किया करते थे।

भगवान की इच्‍छा

रामदास अशिक्षित था, पर उसका हृदय पवित्र था। उसमें न भोगवासना थी, न लोभ था। वह रूखी-सूखी खाकर संतुष्‍ट था। शुद्ध हो या अशुद्ध, पर सात्त्विक श्रद्धा से विश्‍वासपूर्वक वह भगवान का नाम लेता था। भगवान शालग्राम अपनी इच्‍छा से ही उसके घर गये थे। जब वह भजन गाता हुआ भगवान की मूर्ति पर औजार घिसने के लिये जल छोड़ता, तब प्रभु को लगता कि कोई भक्त पुरुष-सूक्‍त से मुझे स्‍नान करा रहा है। जब वह दोनों पैरों में दबाकर उस मूर्ति पर रखकर चमड़ा काटता, तब भावमय सर्वेश्‍वर को लगता कि उनके अंगों पर चन्‍दन-कस्‍तूरी का लेप किया जा रहा है। रामदास नहीं जानता था कि जिसे वह साधारण पत्‍थर मानता है, वे शालग्राम जी हैं, किंतु वह अपने को सब प्रकार से भगवान का दास मानता था। इसी से उसकी सब क्रियाओं को सर्वात्‍मा भगवान अपनी पूजा मानकर स्‍वीकार करते थे।

ब्राह्मण का स्‍वप्‍न

इधर ये पण्डित जी बड़ी विधि से पूजा करते थे, पर वे भगवान के सेवक नहीं थे। वे धन-सम्‍पत्ति के दास थे। वे धन-सम्‍पत्ति की प्राप्ति के लिये भगवान को साधन बनाना चाहते थे। भगवान को यह कैसे रुचता। वे तो नि:स्‍वार्थ भक्ति के वश हैं। भगवान ने ब्राह्मण को स्‍वप्‍न दिया- "पण्डित जी ! तुम्‍हारी यह आडम्‍बरपूर्ण पूजा मुझे तनिक भी नहीं रुचती। मैं तो रामदास चमार के निष्‍कपट प्रेम से ही प्रसन्‍न हूँ। तुमने मेरी पूजा की है। मेरी पूजा कभी व्‍यर्थ नहीं जाती। अत: तुम्‍हें धन और यश मिलेगा। पर मुझे तुम उस चमार के घर प्रात: काल ही पहुँचा दो।" भगवान की आज्ञा पाकर ब्राह्मण डर गया। दूसरे दिन सबेरे ही स्‍नानादि करके शालग्राम जी को लेकर वह रामदास के घर पहुँचा। उसने कहा- "रामदास ! तुम धन्‍य हो। तुम्‍हारे माता-पिता धन्‍य हैं। तुम बड़े पुण्‍यात्‍मा हो। भगवान को तुमने वश में कर लिया है। ये भगवान शालग्राम हैं। अब तुम इनकी पूजा करना। मैं तो पापी हूँ, इसलिये मेरी पूजा भगवान को पसंद नहीं आयी। भाई ! तुम्‍हारा जीवन पवित्र हो गया। तुम तो भवसागर से पार हो चुके।"

नित्य पूजा-पाठ

रामदास ने ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम किया। उनका हृदय भगवान की कृपा का अनुभव करके आनन्‍द में भर गया। वे सोचने लगे- "मैं दीन, अज्ञानी, नीच जाति का पापी प्राणी हूँ। न मुझमें शौच है, न सदाचार। रात-दिन चमड़ा छीलना मेरा काम है। मुझ-जैसे अधम पर भी प्रभु ने इतनी कृपा की। प्रभो ! तुम सचमुच ही पतितपावन हो।"

भगवान को एक छोटे सिंहासन पर विराजमान कर दिया उन्‍होंने। अब वे नित्‍य पूजा करने लगे। धंधा-रोजगार प्रेम की बाढ़ में बह गया। वे दिनभर, रातभर कीर्तन करते। कभी हँसते, कभी रोते, कभी गान करते, कभी नाचने लगते, कभी गुमसुम बैठे रहते। भगवान के दर्शन की इच्‍छा से कातर कण्‍ठ से पुकार करते- "दयाधाम ! जब एक ब्राह्मण के घर को छोड़कर आप इस नीच के यहाँ आये, तब मेरे नेत्रों को अपनी अदभुत रूपमाधुरी दिखाकर कृतार्थ करो, नाथ ! मेरे प्राण तुम्‍हारे बिना तड़प रहे हैं।"

भगवान का ब्राह्मण रूप में आगमन

रामदास की व्‍यथित पुकार सुनकर भगवान एक ब्राह्मण का रूप धारणकर उनके यहाँ पधारे। रामदास उनके चरणों पर गिर गये और गिड़-गिड़ाकर प्रार्थना करने लगे कि- "भगवान का दर्शन हो, ऐसा उपाय बताइये।" भगवान ने कहा- "तुम इस दुराशा को छोड़ दो। बड़े-बड़े योगी, मुनि जन्‍म-जन्‍म तप, ध्‍यान आदि करके भी कदाचित ही भगवान का दर्शन पाते हैं।" रामदास का विश्‍वास डिगने वाला नहीं था। वे बोले- "प्रभो ! आप ठीक कहते हैं। मैं नीच हूँ, पापी हूँ। मेरे पाप एवं नीचता की ओर देखकर तो भगवान मुझे दर्शन कदापि नहीं दे सकते; परंतु मेरे वे स्‍वामी दीनबन्‍धु हैं, दया के सागर हैं। अवश्‍य वे मुझे दर्शन देंगे। अवश्‍य वे इस अधम को अपनायेंगे।"

भगवान का चतुर्भुज स्‍वरूप में दर्शन

अब भगवान से नहीं रहा गया। भक्त की आतुरता एवं विश्‍वास देखकर वे अपने चतुर्भुज स्‍वरूप से प्रकट हो गये। प्रभु ने कहा- "रामदास ! यह ठीक है कि जाति नहीं बदल सकती; किंतु मेरी भक्ति से भक्त का पद अवश्‍य बदल जाता है। मेरा भक्त ब्राह्मणों का, देवताओं का भी आदरणीय हो जाता है। तुम मेरे दिव्‍य रूप के दर्शन करो।" रामदास भगवान का दर्शन करके कृतार्थ हो गया।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) |पृष्ठ संख्या- 675

Saturday, September 16, 2017

परमात्मा को सृष्टि बनाने मे कितना समय लगा

परमात्मा को सृष्टि बनाने मे कितना समय लगा
ग्रहर्क्ष देव दैत्यादि सृजतोऽस्य चराचरम्।
कृताद्रिवेदा दिव्याब्दाः शतघ्ना वेधसो गताः।।
- सूर्य सिद्धांत, मध्यमाधिकार, श्लोक-24

ग्रह नक्षत्र देव दैत्य मनुष्य पशु पक्षी पर्वत वृक्ष आदि के निर्माण मे परमात्मा के विश्वकर्मा स्वरूप को 47400 दिव्य वर्ष  ( 47400×360=17064000 सौर वर्ष) व्यतीत हुआ।

Wednesday, September 13, 2017

पितृपक्ष मे श्राद्ध तर्पण विधि

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसी को श्राद्ध कहते हैं।

 तर्पण को छः भागों में विभक्त किया गया है-

देव-तर्पण

ऋषि-तर्पण

दिव्य-मानव-तर्पण

दिव्य-पितृ-तर्पण

यम-तर्पण

मनुष्य-पितृ-तर्पण

1. देव तपर्णम्

देव शक्तियाँ ईश्वर की वे महान् विभूतियाँ हैं, जो मानव-कल्याण में सदा निःस्वार्थ भाव से प्रयतनरत हैं। जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, विद्युत् तथा अवतारी ईश्वर अंगों की मुक्त आत्माएँ एवं विद्या, बुद्धि, शक्ति, प्रतिभा, करुणा, दया, प्रसन्नता, पवित्रता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ सभी देव शक्तियों में आती हैं। यद्यपि ये दिखाई नहीं देतीं, तो भी इनके अनन्त उपकार हैं। यदि इनका लाभ न मिले, तो मनुष्य के लिए जीवित रह सकना भी सम्भव न हो। इनके प्रति कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए यह देव-तर्पण किया जाता है। यजमान दोनों हाथों की अनामिका अँगुलियों में पवित्री धारण करें। ॐ आगच्छन्तु महाभागाः, विश्वेदेवा महाबलाः । ये तपर्णेऽत्र विहिताः, सावधाना भवन्तु ते॥ जल में चावल डालें । कुश-मोटक सीधे ही लें ।। यज्ञोपवीत सव्य (बायें कन्धे पर) सामान्य स्थिति में रखें। तर्पण के समय अंजलि में जल भरकर सभी अँगुलियों के अग्र भाग के सहारे अपिर्त करें। इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक देवशक्ति के लिए एक-एक अंजलि जल डालें। पूवार्भिमुख होकर देते चलें।

ॐ ब्रह्मादयो देवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्। 
ॐ ब्रह्म तृप्यताम्। 
ॐ विष्णुस्तृप्यताम्।
ॐ रुद्रस्तृप्यताम्। 
ॐ प्रजापतितृप्यताम्।
ॐ देवास्तृप्यताम्। 
ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम्। 
ॐ वेदास्तृप्यन्ताम्। 
ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम्। 
ॐ पुराणाचायार्स्तृप्यन्ताम्। 
ॐ गन्धवार्स्तृप्यन्ताम्।
ॐ इतराचायार्स्तृप्यन्ताम्। 
ॐ संवत्सरः सावयवस्तृप्यन्ताम्। 
ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम्। 
ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम्। 
ॐ नागास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सागरास्तृप्यन्ताम्। 
ॐ पवर्ता स्तृप्यन्ताम्।
ॐ सरितस्तृप्यन्ताम्। 
ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम्। 
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सुपणार्स्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतानि तृप्यन्ताम्। 
ॐ पशवस्तृप्यन्ताम्।
ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्। 
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतग्रामः चतुविर्धस्तृप्यन्ताम्।

2. ऋषि तर्पण
दूसरा तर्पण ऋषियों के लिए है।

ऋषियों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ऋषि तर्पण द्वारा की जाती है। ऋषियों को भी देवताओं की तरह देवतीर्थ से एक-एक अंजलि जल दिया जाता है।

ॐ मरीच्यादि दशऋषयः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान्जलाञ्जलीन्। 

ॐ मरीचिस्तृप्याताम्। 
ॐ अत्रिस्तृप्यताम्। 
ॐ अंगिराः तृप्यताम्। 
ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्। 
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्। 
ॐ क्रतुस्तृप्यताम्। 
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्। 
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्। 
ॐ भृगुस्तृप्यताम्। 
ॐ नारदस्तृप्यताम्।

3. दिव्य-मनुष्य तर्पण

तीसरा तर्पण दिव्य मानवों के लिए है। जो पूर्ण रूप से समस्त जीवन को लोक कल्याण के लिए अपिर्त नहीं कर सकें, पर अपना, अपने परिजनों का भरण-पोषण करते हुए लोकमंगल के लिए अधिकाधिक त्याग-बलिदान करते रहे, वे दिव्य मानव हैं। राजा हरिश्चंद्ररन्तिदेवशिविजनकपाण्डवशिवाजी, महाराणा प्रतापभामाशाहतिलक  पण्डित मदन मोहन मालवीय जैसे महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं। दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख किया जाता है। जल में जौ डालें। जनेऊ कण्ठ की माला की तरह रखें। कुश हाथों में आड़े कर लें। कुशों के मध्य भाग से जल दिया जाता है। अंजलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी उँगली) की जड़ के पास से जल छोड़ें, इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक सम्बोधन के साथ दो-दो अंजलि जल दें-

ॐ सनकादयः दिव्यमानवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान्जलाञ्जलीन्। 

ॐ सनकस्तृप्याताम्॥2॥
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम्॥2॥ 
ॐ सनातनस्तृप्यताम्॥2॥ 
ॐ कपिलस्तृप्यताम्॥2॥ 
ॐ आसुरिस्तृप्यताम्॥2॥ 
ॐ वोढुस्तृप्यताम्॥2॥ 
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम्॥2॥

4. दिव्य-पितृ-तर्पण

चौथा तर्पण दिव्य पितरों के लिए है। जो कोई लोकसेवा एवं तपश्चर्या तो नहीं कर सके, पर अपना चरित्र हर दृष्टि से आदर्श बनाये रहे, उस पर किसी तरह की आँच न आने दी। अनुकरण, परम्परा एवं प्रतिष्ठा की सम्पत्ति पीछे वालों के लिए छोड़ गये। ऐसे लोग भी मानव मात्र के लिए वन्दनीय हैं, उनका तर्पण भी ऋषि एवं दिव्य मानवों की तरह ही श्रद्धापूवर्क करना चाहिए। इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों। वामजानु (बायाँ घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कन्धे पर सामान्य से उल्टी स्थिति में) रखें। कुशा दुहरे कर लें। जल में तिल डालें। अंजलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अँगूठे के सहारे जल गिराएँ। इसे पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक पितृ को तीन-तीन अंजलि जल दें।

ॐ कव्यवाडादयो दिव्यपितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलिन्। 
ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥ 
ॐ सोमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥ 
ॐ यमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥ 
ॐ अयर्मा स्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥ 
ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥3॥ 
ॐ सोमपाः पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥3॥ 
ॐ बहिर्षदः पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥3॥

5. यम तर्पण

यम नियन्त्रण-कर्त्ता शक्तियों को कहते हैं। जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति को यम कहते हैं। मृत्यु को स्मरण रखें, मरने के समय पश्चात्ताप न करना पड़े, इसका ध्यान रखें और उसी प्रकार की अपनी गतिविधियाँ निधार्रित करें, तो समझना चाहिए कि यम को प्रसन्न करने वाला तर्पण किया जा रहा है। राज्य शासन को भी यम कहते हैं। अपने शासन को परिपुष्ट एवं स्वस्थ बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को, जो कत्तर्व्य पालन करता है, उसका स्मरण भी यम तर्पण द्वारा किया जाता है। अपने इन्द्रिय निग्रहकर्त्ता एवं कुमार्ग पर चलने से रोकने वाले विवेक को यम कहते हैं। इसे भी निरंतर पुष्ट करते चलना हर भावनाशील व्यक्ति का कत्तर्व्य है। इन कत्तर्व्यों की स्मृति यम-तर्पण द्वारा की जाती है। दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीथर् से तीन-तीन अंजलि जल यमों को भी दिया जाता है।

ॐ यमादिचतुदर्शदेवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलिन्। 
ॐ यमाय नमः॥3॥ 
ॐ धमर्राजाय नमः॥3॥ 
ॐ मृत्यवे नमः॥3॥ 
ॐ अन्तकाय नमः॥3॥ 
ॐ वैवस्वताय ॐ कालाय नमः॥3॥ 
ॐ सवर्भूतक्षयाय नमः॥3॥ 
ॐ औदुम्बराय नमः॥3॥ 
ॐ दध्नाय नमः॥3॥ 
ॐ नीलाय नमः॥3॥ 
ॐ परमेष्ठिने नमः॥3॥ 
ॐ वृकोदराय नमः॥3॥ 
ॐ चित्राय नमः॥3॥ 
ॐ चित्रगुपताय नमः॥3॥

तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों से यम देवता को नमस्कार करें-

ॐ यमाय धमर्राजाय, मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय, सवर्भूतक्षयाय च॥
औदुम्बराय दध्नाय, नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय, चित्रगुप्ताय वै नमः॥

6. मनुष्य-पितृ-तर्पण

इसके बाद अपने परिवार से सम्बन्धित दिवंगत नर-नारियों का क्रम आता है।

१.स्वगोत्र तर्पण
पिता, बाबा, परबाबा, माता, दादी, परदादी।

२. द्वितीय गोत्र तर्पण
नाना, परनाना, बूढ़े नाना, नानी परनानी, बूढ़ीनानी।

३. सम्बन्धि तर्पण (अन्य तर्पण)

पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, बुआ, मौसी, बहिन, सास, ससुर, गुरु, गुरुपतनी, शिष्य, मित्र आदि।

यह तीन वंशावलियाँ तर्पण के लिए है। पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है-

गोत्रोत्पन्नाः अस्मत् पितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्। 
अमुकसगोत्रः अस्मत्पिता (पिता) अमुकशर्मा  वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 

अमुकसगोत्रः अस्मत्पितामह (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 

अमुकसगोत्रः अस्मत्प्रपितामहः (परदादा) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 

अमुकसगोत्रः अस्मन्माता (माता) अमुकी देवी दा  गायत्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 

अमुकसगोत्रः अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा सावित्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥

अमुकसगोत्रः अस्मत्प्रत्पितामही (परदादी) अमुकी देवी दा  लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 

अमुकसगोत्रः अस्मत्सापतनमाता (सौतेली माँ) अमुकी देवी दा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥

अन्य तर्पण

द्वितीय गोत्र तर्पण

इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करें। यहाँ यह भी पहले की भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन-तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन-तीन अंजलियाँ पितृतीर्थ से दें तथा-

अस्मन्मातामहः (नाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्प्रमातामहः (परनाना) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद्वृद्धप्रमातामहः (बूढ़े परनाना) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद्वृद्धप्रमातामही (बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा आदित्यारूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥

इतर तर्पण

जिनको आवश्यक है, केवल उन्हीं के लिए तर्पण कराया जाए-

अस्मत्पतनी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्सुतः (बेटा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्कन्याः (बेटी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्पितृव्यः (चाचा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मन्मातुलः (मामा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद्भ्राता (अपना भाई) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्सापतनभ्राता (सौतेला भाई) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्पितृभगिनी (बुआ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मान्मातृभगिनी (मौसी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मदात्मभगिनी (अपनी बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्सापतनभगिनी (सौतेली बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद श्वशुरः (श्वसुर) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद श्वशुरपतनी (सास) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद्गुरु अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद् आचायर्पतनी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत् शिष्यः अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मत्सखा अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद् आप्तपुरुषः (सम्मानीय पुरुष) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ 
अस्मद् पतिः अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥

निम्न मन्त्र से पूवर् विधि से प्राणिमात्र की तुष्टि के लिए जल धार छोड़ें-

ॐ देवासुरास्तथा यक्षा, नागा गन्धवर्राक्षसाः। पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः, कूष्माण्डास्तरवः खगाः॥ 
जलेचरा भूनिलया, वाय्वाधाराश्च जन्तवः। प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु, मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥ 
नरकेषु समस्तेषु, यातनासुु च ये स्थिताः। तेषामाप्यायनायैतद्, दीयते सलिलं मया॥ 
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः। ते सवेर् तृप्तिमायान्तु, ये चास्मत्तोयकांक्षिणः। आब्रह्मस्तम्बपयर्न्तं, देवषिर्पितृमानवाः। तृप्यन्तु पितरः सवेर्, मातृमातामहादयः॥ 
अतीतकुलकोटीनां, सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मभुवनाल्लोकाद्, इदमस्तु तिलोदकम्। ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः। ते सवेर् तृप्तिमायान्तु, मया दत्तेन वारिणा॥

वस्त्र-निष्पीडन

शुद्ध वस्त्र जल में डुबोएँ और बाहर लाकर मन्त्र को पढ़ते हुए अपसव्य भाव से अपने बायें भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें।

ॐ ये के चास्मत्कुले जाता, अपुत्रा गोत्रिणो मृताः। 
ते गृह्णन्तु मया दत्तं, वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥

भीष्म तर्पण

अन्त में भीष्म तर्पण किया जाता है। ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्देश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गये हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठात्माओं को जलदान दें-

ॐ वैयाघ्रपदगोत्राय, सांकृतिप्रवराय च। 
गंगापुत्राय भीष्माय, प्रदास्येऽहं तिलोदकम्॥ 
अपुत्राय ददाम्येतत्, सलिलं भीष्मवमर्णे॥

अन्त मे दशों दिशाओं को एक अञ्जलि जल दें।
पनुः भगवान भास्कर को 12 नामों से जल दें।

सभी कर्म को भगवान को समर्पित करें।

अनेन यथाशक्तिकृतेन देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणाख्येन पितृस्वरूपी भगवान नारायणवासुदेवः प्रीयतां न मम।