Friday, May 28, 2021

#भगवान्_का_बुद्धावतार_और_कितने_बुद्ध? #क्या_नाम?

#भगवान्_का_बुद्धावतार_और_कितने_बुद्ध? #क्या_नाम?

बुद्ध को लेकर समाज और विद्वानों के बीच अनेकों मत व धारणाएं प्रचलित हैं, यथा-

१) बुद्ध भगवान् विष्णु के अवतार हैं।

२) बुद्ध किसी के अवतार नहीं हैं, स्वतन्त्र हैं।

३) गौतम ही एकमात्र बुद्ध हैं और उन्होंने ही बौद्ध धर्म चलाया।

४) गौतम से पूर्ववर्ती अजिनपुत्र बुद्ध भी थे और वही भगवान् विष्णु के अवतार हैं।

५) गौतम बुद्ध, अजिनपुत्र महात्मा बुद्ध, ये सभी भगवान् विष्णु के ही अवतार हैं एवं बुद्ध अनेकों हुए हैं और आगे भी होंगे।

बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है, जागृत होना, सतर्क होना तथा जितेन्द्रिय होना | वस्तुतः बुद्ध एक व्यक्तिविशेष का परिचायक न होकर ज्ञान की उच्चतम स्थितिविशेष का परिचायक है | वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापक रूप में प्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए प्रसिद है |

भारतीय संस्कृति अथवा ज्ञान परंपरा में आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन की व्यवस्था हमारे यहाँ की गयी है, क्योंकि बिना अन्धकार के प्रकाश महत्ता नहीं प्रतिपादित हो सकती और अज्ञान के बिना ज्ञान का महत्त्व कैसे प्रतिपादित होगा ? आस्तिक दर्शन में जैसे पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन का नाम आता है उसी प्रकार नास्तिक दर्शन में बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शन का स्थान है|

पुराणों के अनुसार युगाधारित अवतारों में जैसे वेदव्यास का कार्य है, वेदों का विभाजन, पुराणों का संकलन, तथा ग्रंथों का संरक्षण करना वैसे ही बुद्ध का कार्य है, समाज में जो लोग धर्म के नाम पर पाखंड तथा पशुहिंसा आदि करें, ऐसी आसुरी सम्पदा से युक्त पुरुषों को मायामय उपदेश के द्वारा सनातन से विमुख करना, जैसे किसी फोड़े को शरीर से काट कर इसीलिए अलग कर दिया जाता है कि वह अन्य अंगों को क्षति न पहुंचा सके |

भारतीय ज्ञान मनीषा में अनेकों बुद्धों का आगमन हो चुका है, तथा अनेकों बुद्ध आयेंगे| बुद्ध एक नहीं हुए हैं | प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ, कुशल, मैत्रेय, गौतम, कश्यप, शक्र, अर्यमा, शाक्यसिंह, क्रतुभुक, कृती, सुखी, शशांक, निष्णात, सत्व, शिक्षित, सर्वग्य, सुनत, रुरु, मारजित्, बुद्ध, प्रबुद्ध आदि कई बुद्धों एवं बोधिसत्वों का वर्णन विभिन्न प्राचीन गर्न्थों  उपलब्ध होता है |

बौद्धावतार का क्या कारण है तथा उनका वर्णन कहां कहां मिलता है-

मिश्रदेशोद्भवाम्लेच्छाः काश्यपेनैव शासिताः।....

शिखासूत्रं समाधाय पठित्वा वेदमुत्तमम् |

यज्ञैश्च पूजयामासुर्देवदेवं शचीपतिम्॥....

अहं लोकहितार्थाय जनिष्यामि कलौयुगे।.....

कीकटे देशमागत्य ते सुरा जज्ञिरे क्रमात् |

वेदनिन्दां पुरस्कृत्य बौद्धशास्त्रमचीकरन् ॥....

वेदनिन्दाप्रभावेण ते सुराः कुष्ठिनोऽभवन् ।......

विष्णुदेवमुपागम्य तुष्टुवुर्बौद्धरूपिणम् ।

हरिर्योगबलेनैव तेषां कुष्ठमनाशयत्॥

(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, खण्ड - ०४, अध्याय - २०)

कलियुग के आने पर मिस्र देश में उत्पन्न कश्यप गोत्रीय म्लेच्छों ने शिखा रख कर तथा जनेऊ धारण करके स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर दिया तथा स्वयं भी वेदपाठ करते हुए देवताओं का पूजन करने तथा कराने लगे | इससे त्रस्त होकर देवताओं ने देवराज इंद्र के समक्ष जाकर समाधान हेतु निवेदन किया | देवराज ने उनकी प्रार्थना पर उन असुर म्लेच्छों को मोहित करने के लिए बौद्धमार्ग का विस्तार करके वेदों कि निंदापरक ग्रंथों को लिखने के लिए बारहों आदित्य के साथ कीकट में अवतार लिया | वेदनिन्दा करने के कारण उन्हें कुष्ठ हो गया अतः वे समस्त देवगण बुद्धरूपधारी विष्णु जी के पास गए जिन्होंने अपने योगबल से उनका रोगनाश किया |

श्रीमद्भागवत के अनुसार असुरों को मोहित करने के लिए बुद्ध का अवतार हुआ था | सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि का उपदेश देने के कारण उन्हें अधार्मिक तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु वेद तथा ईश्वर निंदक होने के कारण वे धार्मिक भी नहीं कहलाये | अतः उन्हें उपधार्मिक कहा गया है |

“ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् |

बुद्धो नाम्नाजिन सुतः, कीकटेषु भविष्यति” | १.३.

तथा

 “धर्मद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां......

वेषं विधाय बहुभाष्यत औपधर्म्यं”|| २.७.३७

श्रीधर स्वामी ने कीकट का अर्थ मगध का मध्य या गया अर्थ किया है। शक्तिसंगम तन्त्र के अनुसार नालंदा के गृद्धकूट से मिर्जापुर के चुनार के पास चरणाद्रि पर्वत (नैनागढ किला) तक कीकट है-
 

चरणाद्रिं समारभ्य गृध्रकूटान्तकं शिवे ।

तावत् कीकटदेशः स्यात् तदन्तर्मगधो भवेत्॥

(शक्तिसंगम तन्त्र)

अजिनपुत्र बुद्ध के अवतार के समय वाराणसी में महाराज किकी का शासन था और वे कीकट के भी राजा थे। पुराणों में शंकराचार्य जी के आगमन से बहुत पूर्व से ही विष्णु भगवान के बौद्धावतार की बात कही गयी है | ऐसे प्रमाण देवीभागवत, विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण, नृसिंह पुराण आदि में भी प्राप्य हैं | विभिन्न पुराणों में वैष्णव दशावतार में बुद्ध का वर्णन किया गया है। यथा-

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः॥

रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की च ते दश॥

(भविष्यपुराण, उत्तरपर्व, अध्याय - १९०, श्लोक - ०६)

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नृसिंहो वामनस्तथा।

रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की ततः स्मृतः।

एते दशावताराश्च पृथिव्यां परिकीर्तिताः॥

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - ७१, श्लोक - २७)
 

दैत्यानां नाशनार्थाय विष्णुना बुद्धरूपिणा।

बौद्धशास्त्रमसत्प्रोक्तं नग्ननीलपटादिकम्॥

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - २३६, श्लोक - ०६)

भविता सञ्जयश्चापि वीरो राजा रणञ्जयात्।

सञ्जयस्य सुतः शाक्यः शाक्याच्छुद्धोदनोऽभवत्॥

शुद्धोदनस्य भविता शाक्यार्थे राहुलः स्मृतः।

प्रसेनजित्ततो भाव्यः क्षुद्रको भविता ततः॥

(वायुपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ३७, श्लोक - २८४-२८५)

स्कन्द पुराण में धर्मराज युधिष्ठिर को अवतारों का वर्णन करते हुए ऋषि मार्कण्डेय कहते हैं-

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।

रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश ॥

तथा बुद्धत्वमपरं नवमं प्राप्स्यतेऽच्युतः ।

शान्तिमान्देवदेवेशो मधुहन्ता मधुप्रियः ॥

तेन बुद्धस्वरूपेण देवेन परमेष्ठिना ।

भविष्यति जगत्सर्वं मोहितं सचराचरम् ॥

(स्कन्दपुराण, अवन्तीखण्ड-रेवाखण्ड, अध्याय - १५१, श्लोक - ०४ एवं २१-२२)

शान्तात्मा लम्बकर्णश्च गौराङ्गश्चाम्बरावृतः।

ऊर्ध्वपद्मस्थितो बुद्धो वरदाभयदायकः॥

(अग्नि पुराण, दशावतारप्रतिमालक्षण, अध्याय - ४९, श्लोक - ०८)

विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भगवान् विष्णु ने बुद्ध अवतार लेने की भविष्यवाणी भी करते हुये कहते हैं कि मेरे द्वारा बुद्धरूप से कलियुग में (उप) धर्म का प्रवचन किया जाएगा एवं फिर विष्णुयशा के पुत्र (कल्कि) के रूप में म्लेच्छ राजाओं का वध किया जाएगा। यथा-

मया बुद्धेन वक्तव्या धर्माः कलियुगे पुनः।

हन्तव्या म्लेच्छराजानस्तथा विष्णुयशात्मना॥

(विष्णुधर्मोत्तरपुराण, खण्ड - ०३, अध्याय - ३५१, श्लोक - ५४)

भगवान् बुद्ध पतन और उत्थान दोनों कराते है, इसका एक संकेतात्मक वर्णन देखें -

बुद्धं प्रतीदं ब्रह्मैव केवलं शान्तमव्ययम्।

अबुद्धं प्रति बुद्ध्यैतद्भासुरं भुवनान्वितम्॥

सर्गस्तु सर्गशब्दार्थतया बुद्धो नयत्यधः।

स ब्रह्मशब्दार्थतया बुद्धः श्रेयो भवत्यलम्॥

(योगवासिष्ठ महारामायण, स्थितिप्रकरण, सर्ग - ०३, श्लोक - १६ एवं २३)

बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अनुसार अजन्मा परमात्मा जीवों को उनका कर्मफल देने के लिए भी भगवान् जनार्दन ग्रहरूप से आते हैं। दैत्यों के बल का नाश करने के लिए, एवं देवताओं के बल को बढ़ाने के लिए, धर्म की स्थापना के लिए क्रम से शुभ ग्रहों का निर्माण हुआ है। श्रीरामावतार सूर्य हैं, चन्द्रमा श्रीकृष्ण हैं। नृसिंह मङ्गल एवं बुद्धावतार बुध हैं। वामन बृहस्पति हैं एवं परशुरामावतार शुक्र हैं। कूर्मावतार शनि और वाराह राहु हैं। केतु मत्स्यावतार हैं और भी अन्य जो आकाशीय पिंड हैं, उनमें परमात्मा का ही अंश है। यथा-

दैत्यानां बलनाशाय देवानां बलबृद्धये।

धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहाज्जाताः शुभाः क्रमात्‌॥

रामोऽवतारः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः।

नृसिंहो भूमिपुत्रस्य बुद्धः सोमसुतस्य च॥

वामनो विबुधेज्यस्य भार्गवो भार्गवस्य च।

कूर्मो भास्करपुत्रस्य सैंहिकेयस्य सूकरः॥

केतोर्मीनावतारश्च ये चान्ये तेऽपि खेटजाः।

परात्मांशोऽधिको येषु ते सर्वे खेचराभिधः॥

(बृहत्पाराशर होराशास्त्र, अध्याय ०२, श्लोक - ०२-०७)

भगवान् बुद्ध की जन्मतिथि-

कुछ विद्वान् बुद्धावतार विजयादशमी के दिन मानते हैं तो शक्तिसंगम तन्त्र के छिन्नमस्ताखण्ड में वर्णित श्लोक के आधार पर कुछ कहते हैं कि शुक्लपक्ष की दशमी में जब विशाखा नक्षत्र और रविवार था तब दिन के छः घड़ी बीतने पर बुद्धावतार हुआ। ज्योतिष गणना के अनुसार शुक्ल दशमी और विशाखा का योग आषाढ़ के महीने में बहुधा बनता है।

शुद्धा च दशमी देवि रविवारेण संयुता।

शुक्लयोगे विशाखायां दिवा नाड़ी च षट् तदा।

बुद्धोऽवतीर्णो देवेशि ततः कलियुगे शृणु॥

(शक्तिसंगम तन्त्र, छिन्नमस्ताखण्ड, षष्ठ पटल, श्लोक - ६६)

कुछ विद्वान् वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को बुद्ध की जयन्ती मनाते हैं| प्रधानतया सिद्दार्थ पुत्र गौतम बुद्ध की वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को जयन्ती मनायी जाती है|

प्रधान बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर सूत्र के अनुसार बौद्धशास्त्र के समूहों में (दीपङ्कर बुद्ध से गौतम बुद्ध तक और भविष्य के मैत्रेय बुद्ध को मिलाकर) पच्चीस बुद्ध दिखते हैं। उनमें शुद्धोदन की औरस सन्तान, जो मायादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुई, जिनकी शाक्यसिंह, सर्वार्थसिद्ध (सिद्धार्थ), अर्कबन्धु और गौतम, इन चार नामों से प्रसिद्धि हुई| कपिलवस्तु में कलियुग के २४८६ (दो हज़ार, चार सौ छियासी) वर्ष बीतने पर शुक्रवार को देवताओं से द्रोह करने वाले (असुरों) को मोहित करने के लिए साक्षात् विवेक की मूर्ति, इच्छानुसार शरीर को धारण करके उत्पन्न हुए। ललितविस्तर सूत्र उक्त वचन यथा--

इह खलु बौद्धशास्त्रसमूहेषु सम्प्रोक्ताः पञ्चविंशतिर्बुद्धा दृश्यन्ते। तेषां शुद्धोदनौरसात् मायादेवीगर्भजातः शाक्यसिंहसर्वार्थसिद्धार्कबन्धुगौतमेति नामचतुष्टयेन प्रसिद्धोऽन्तिमतमः लोकविश्रुतो बुद्धः कपिलवस्तुनगरे कलेश्चतुःशतषडशीत्यधिकद्विसहस्रमितेषु गतेष्वब्देषु शुक्रवासरे सुरद्विषां सम्मोहनाय साक्षाद् विवेकमूर्त्तिः स्वेच्छाविग्रहेण प्रादुर्बभूव। (ललितविस्तर सूत्र)

ललितविस्तर सूत्र के अनुसार बुद्ध के २५ अवतारों का सामान्य परिचय निम्नवत है-

१-      सुमेध बुद्ध , कुल- ब्राह्मण, निवास- अमरावती|

२-      दीपङ्कर बुद्ध, जन्मस्थान- रम्यवती, कुल- क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुमेधा एवं सुदेव, पटरानी – पद्मा, पुत्र – वृषभस्कन्ध|

३-      कौण्डिन्य बुद्ध, जन्मस्थान – रम्यवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुजाता एवं सुनन्द, पटरानी - रुचि देवी, पुत्र – विजितसेन|

४-      मङ्गल बुद्ध, जन्मस्थान - उत्तर नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - उत्तर एवं उत्तरा, पटरानी - यशस्वी (यशस्विनी), पुत्र – शिवल|

५-      सुमन बुद्ध, जन्मस्थान - मेखल नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुदत्त एवं सिरिमा, पटरानी – अवतंसिका, पुत्र – अनुपम|

६-      रेवत बुद्ध, जन्मस्थान – सुधान्यवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - विपुला एवं विपुल, पटरानी – सुदर्शना, पुत्र – वरुण|

७-      शोभित बुद्ध, जन्मस्थान – सुधर्मनगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुधर्मा एवं सुधर्म, पटरानी – मणिला, पुत्र – सिंह|

८-      अनोमदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान – चन्द्रवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - यशोधरा एवं यशस्वी, पटरानी – सिरिमा, पुत्र – उपवाण|

९-      पद्म बुद्ध, जन्मस्थान – चम्पकनगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - असमा एवं अस, पटरानी – उत्तरा, पुत्र – रम्य|

१०-  नारद बुद्ध, जन्मस्थान - धन्यवती नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - अनोमा एवं सुदेव, पटरानी – विजितसेना, पुत्र – नन्दोत्तर|

११-  पद्मोत्तर बुद्ध, जन्मस्थान – हंसवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुजाता एवं आनन्द, पटरानी – वसुदत्ता, पुत्र – उत्तम|

१२-  सुमेध बुद्ध, जन्मस्थान - सुदर्शन नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुदत्ता एवं सुदत्त, पटरानी – सुमना, पुत्र – पुनर्वसु|

१३-  सुजात बुद्ध, जन्मस्थान - सुमङ्गल नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - प्रभावती एवं उद्गत, पटरानी – श्रीनन्दा, पुत्र – उपसेन|

१४-  प्रियदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान - सुधन्य नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - चन्द्रा एवं सुदत्त, पटरानी – विमला, पुत्र – काञ्चनावेल|

१५-  अर्थदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान - शोभन नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुदर्शना एवं सागर, पटरानी – विशाखा, पुत्र – शैल|

१६-  धर्मदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान - शरण नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुनन्दा एवं शरण, पटरानी – विचिकोली, पुत्र – पुण्यवर्द्धन|

१७-  सिद्धार्थ बुद्ध (प्राचीन), जन्मस्थान - वैभार नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुस्पर्शा एवं उदयन, पटरानी – सौमनस्या, पुत्र – अनुपम|

१८-  तिष्य बुद्ध, जन्मस्थान - क्षेमक नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - पद्मा एवं जनसन्ध, पटरानी – सुभद्रा, पुत्र – आनन्द|

१९-  पुष्य बुद्ध, जन्मस्थान - काशिका नगरी, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सिरिमा एवं जयसेन, पटरानी - कृशा गौतमी, पुत्र – अनुपम|

२०-  विपश्यी बुद्ध, जन्मस्थान - बन्धुमती नगरी, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - बन्धुमती एवं बन्धुमान्, पटरानी – सुदर्शना, पुत्र – समवृत्तस्कंध|

२१-  शिखी बुद्ध, जन्मस्थान – अरुणवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - प्रभावती एवं अरुण, पटरानी – सर्वकामा, पुत्र – अतुल|

२२-  विश्वम्भू बुद्ध, जन्मस्थान – अनोमनगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - यशस्वी (यशस्विनी) एवं सुप्रतीत, पटरानी – सुचित्रा, पुत्र – शूर्पबुद्ध|

२३-  ककुसन्ध बुद्ध, जन्मस्थान - क्षेमवती नगरी, कुल – ब्राह्मण, माता एवं पिता - विशाखा एवं अग्निदत्त, पटरानी – रोचिनी, पुत्र – उत्तर|

२४-  कोणागमन बुद्ध, जन्मस्थान – शोभवती, कुल – ब्राह्मण, माता एवं पिता - उत्तरा एवं यज्ञदत्त, पटरानी – रुचिगात्रा, पुत्र – स्वस्तिज|

२५-  काश्यप बुद्ध, जन्मस्थान - कीकट , कुल – ब्राह्मण, माता एवं पिता - धनवती एवं ब्रह्मदत्त (अजन), पटरानी – सुनन्दा, पुत्र – विजितसेन|

२६-  गौतम बुद्ध, जन्मस्थान – कपिलवस्तु, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - मायादेवी एवं शुद्धोदन, पटरानी - भद्रकञ्चना यशोधरा, पुत्र – राहुल|

उपर्युक्त विवेचनों व प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि अनेकों बुद्धों का अवतार अथवा जन्म हुआ है| सिद्दार्थ गौतम बुद्ध से पूर्व में भी बुद्ध हुये हैं, जिनका उल्लेख पुराणों, तन्त्रों व बौद्ध साहित्यों में उल्लेख मिलता है| सिद्दार्थ गौतम बुद्ध से पूर्व में भी दर्शन, चिन्तन व उपासना के रूप में एक बौद्द परम्परा सनातन या आस्तिक दर्शन के समानान्तर विद्यमान रही है, जिसका व्यापक रूप में प्रभाव समाज मे कुछ काल पर्यन्त तक ही रहता रहा है| वर्तमान में जो बौद्ध धर्म का स्वरुप है उके प्रतिष्ठापक निश्चित रूप से शुद्धोदन के पुत्र व राहुल के पिता गौतम बुद्ध ही हैं| यदि शुद्धोदन के पुत्र गौतम बुद्ध को भगवान् का अवतार न भी माना जाय तब भी पौराणिक प्रमाणों के आधार पर भगवान् के बुद्धावतार को तो सनातनियों को स्वीकार करना ही होगा| इस विषय मे अभी भी बहुत कुछ अनुसन्धेय है|

अत: निष्कर्ष रूप में हम सनातनियों को पौराणिक बुद्धावतार को स्वीकार करने में कोइ आपत्ति नहीं होनी चाहिये| भगवान् बुद्ध अथवा तथागत बुद्ध सभी के जीवन में प्रेम, सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि का संचार करते हुये सभी का मङ्गल करें, इसी भावना के साथ भगवान् बुद्धके जयन्ती की शुभकामनायें|
साभार सहायक सामग्री संकलन- भगवतानंद जी का लेख

Saturday, May 22, 2021

विवाहमें_भांवर_फेरे_कितने_होने_चाहिए_३_या_४_अथवा_७

#विवाहमें_भांवर_फेरे_कितने_होने_चाहिए_३_या_४_अथवा_७

(आचार्य सियाराम दास नैयायिक द्वारा)

आज कल विवाह में कहीं तो 7 फेरों का प्रचलन है तो कहीं 4 का ,  इस विषय पर बहुत विवाद सुनने में आ रहा है । राजस्थान, गुजरात और मिथिला आदि प्रान्तों में कई स्थानों में 4 फेरों की परम्परा है और उत्तर प्रदेश आदि कुछ प्रान्तों के कतिपय स्थलों में 7 फेरों की परम्परा | कई  कुछ वैश्य परिवारों में मात्र ३ फेरे ही पंडितों पर दबाव डालकर कराये जाते हैं |

*हम यहां सप्रमाण यह तथ्य प्रस्तुत करेंगे कि “फेरे कितने होने चाहिए ।*

यहां एक बात ध्यान में अवश्य रखनी है कि सभी बातें शास्त्रों में ही उपलब्ध नहीं होती हैं ।

 जैसे — वर वधू का मंगलसूत्र पहनाना,गले में माला धारण करवाना, वर वधू के वस्त्रों में ग्रन्थि लगाना ( गांठ बांधना ),वर के हृदय पर दही आदि का लेपन, ऐसे बहुत से कार्य हैं जो गृह्यसूत्रों में उपलब्ध नही हैं । इन सब कार्यों में कौन प्रमाण है ?

इसका उत्तर है –”अपने अपने कुल की वृद्ध महिलायें ;क्योंकि वे अपने पूर्वजों से किये गये सदाचारों का स्मरण रखती हैं । इसलिए विवाहादि कार्यों में इनकी बात मानने का विधान शास्त्रों ने किया है ।

देखें —शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व शाखा इन दोनों का प्रतिनिधित्व करता है |महर्षि पारस्कर प्रणीत ” पारस्करगृह्यसूत्र” में महर्षि कहते हैं –

“ग्रामवचनं च कुर्युः”-।। 11।।

“विवाहश्मशानयोर्ग्रामं प्राविशतादिति वचनात् ‘।।12।। “तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणमिति श्रुतेः ।।13।।–प्रथमकाण्ड, अष्टमी कण्डिका ।

 यहां 11वें सूत्र का अर्थ “हरिहरभाष्य” में किया गया है कि “विवाह और श्मशान सम्बन्धी कार्यों में ( ग्रामवचनं = स्वकुलवृद्धानां स्त्रीणां वाक्यं कुर्युः ) अपने कुल की वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्य करना चाहिए ।

“गदाधरभाष्यकार”भी यही अर्थ किये हैं । इनमें कुछ बातें जैसे “मंगलसूत्र आदि” इनका उल्लेख इसी भाष्य के आधार पर मैने किया है ।

 सूत्र11 में ” च ” शब्द आया है । उससे “देशाचार, कुलाचार और जात्याचार ” का ग्रहण है ।

 “चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः –च शब्द जो बातें नहीं कहीं गयी हैं -उनका संकेतक माना जाता है । अत एव ” च शब्दाद्देशाचारोऽपि ” –ऐसा भाष्य श्रीगदाधर जी ने लिखा ।

 यहां “अपि” शब्द कैमुत्यन्याय से कुलाचार और जात्याचार का बोधक है ;क्योंकि विवाहादि कार्यों मेंजाति और कुल के अनुसार भी आचार में भिन्नता कहीं कहीं देखने को मिलती है ।

ग्रामवचन का अर्थ “भर्तृयज्ञ ” जो कात्यायन श्रौतसूत्र के व्याख्याता हैं उन्होने लोकवचन किया है –

ऐसा गदाधर जी ने अपने भाष्य में संकेत किया है । इसे लोकमत या शिष्टाचार — सदाचार कहते हैं । यह भी हमारे यहां प्रमाणरूप से अंगीकृत है ।

पूर्वमीमांसा में सर्वप्रथम प्रमाणों की ही विशद चर्चा हुई है । इसलिए उस अध्याय का नाम ही” प्रमाणाध्याय” रख दिया गया है । इसमें शिष्टाचार को प्रमाण माना गया है । शिष्ट का लक्षण वहां निरूपित है ।

“वेदः स्मृतिः सदाचारः” –मनुस्मृति,2/12,

तथा “श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः “–याज्ञवल्क्य स्मृति-आचाराध्याय,7, इन दोनों में सदाचार को धर्म में प्रमाण माना है ।

किन्तु धर्म में परम प्रमाण भगवान् वेद ही हैं । उनसे विरुद्ध समृति या सदाचार प्रमाण नही हैं । पूर्वमीमांसा में वेदैकप्रमाणगम्य धर्म को बतलाया गया –जैमिनिसूत्र-1/1/2/2,

पुनः ” स्मृत्यधिकरण “-1/3/1/2, से वेदमूलक स्मृतियों को धर्म में प्रमाण माना गया ।

यदि कोई स्मृति वेद से विरुद्ध है तो वह धर्म में प्रमाण नही हो सकती –यह सिद्धान्त “विरोधाधिकरण”-1/3//2/3-4, से स्थापित किया गया ।

इसी अधिकरण में सदाचार की प्रामाणिकता को लेकर यह निश्चित किया गया कि सदाचार स्मृति से विरुद्ध होने पर प्रमाण नही है । ( इस बात का ध्यान आप सब सुधी  जन वाल्मीकि रामायण का प्रमाण पढ़ते समय अवश्य ध्यान में रखियेगा |)

 जैसे दक्षिण भारत में मामा की लड़की के साथ भांजे का विवाह आदि ;क्योंकि यह सदाचार

“मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च । समानप्रवरां चैव त्यक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । ।”

इस शातातप स्मृति से विरुद्ध है । भागवत के 10/61/23-25 श्लोकों द्वारा इस विवाहरूपी कार्य को अधर्म बतलाया गया है ।। अस्तु।।

 तात्पर्य यह कि सदाचार से उसकी ज्ञापक स्मृति का अनुमान किया जाता है और उस स्मृति से तद्बोधक श्रुति का अनुमान । जब आचार की विरोधिनी स्मृति बैठी है तो उससे वह बाधित हो जायेगा । इसी प्रकार स्मृति भी स्वतः धर्म में प्रमाण नही है अपितु वेदमूलकत्वेन ही प्रमाण है ।

  स्मृति से श्रुति का अनुमान किया जाता है । जब स्मृति विरोधिनी श्रुति प्रत्यक्ष उपलब्ध है तो उससे स्मृति बाधित हो जायेगी –

 ”विरोधे त्वनुपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम्”–पूर्वमीमांसा,1/3/2/3,

सदाचार से स्मृति और स्मृति से श्रुति का अनुमान होता है । इन तीनों में श्रुति से स्मृति और स्मृति से सदाचार रूपी प्रमाण दुर्बल है । निष्कर्ष यह कि स्मृति या वेदविरुद्ध आचार प्रमाण नही है ।

 अब हम यह देखेंगे कि विवाह में जो फेरे पड़ते हैं – ३-4 या 7, इनमें किसको स्मृति या वेद का समर्थन प्राप्त है और कौन इनसे विरुद्ध है ?

यहां यह बात ध्यान में रखनी है कि स्मृति का अर्थ केवल मनु या याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों से प्रणीत स्मृतियां ही नहीं अपितु सम्पूर्ण धर्मशास्त्र है —

“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः “–2/10,

धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृतियां ,पुराण,इतिहास,कल्पसूत्र आदि आते हैं –यह मीमांसकों का सिद्धान्त है — स्मृत्यधिकरण,1/3/1/1-2,

इसी से ३ या  4 अथवा  7 फेरों का निश्चय हो जायेगा ।

 विवाह में 4 कर्म ऐसे हैं जिनसे फेरों का सम्बन्ध है । अर्थात् उन चारों का क्रमशः सम्पादन करने के बाद फेरे( परिक्रमा या भांवर ) का क्रम आता है । वे निम्नलिखित हैं —

1-लाजा होम—

इसमें कन्या को उसका भाई शमी के पल्लवों से मिश्रित धान के लावों को अपनी अञ्जलि से कन्या के अञ्जलि में डालता है । कन्या उस समय खड़ी रहती है ।

यदि कन्या के भाई न हो तो यह कार्य उसके चाचा ,मामा का लड़का ,मौसी का पुत्र या फुआ( बुआ -फूफू अर्थात् पिता की बहन ) का पुत्र आदि भी कर सकते हैं–

 यह तथ्य श्रीगदाधर जी ने बहवृचकारिका को उद्धृत करके अपने भाष्य में दर्शाया है ।

पारस्करगृह्यसूत्र के प्रथम काण्ड की छठी कण्डिका में “कुमार्या भ्राता –”–1 में इसका कथन है ।

 कन्या के अञ्जलि में लावा है । वर भी खड़ा होकर उसके दोनों हाथों से अपने हाथ लगाये रहता है और कन्या खड़ी होकर ही उन लावों को मिली हुइ अञ्जलि से होम करती है –अर्यमणं देवं –इत्यादि मन्त्रों से ।

 ये तीनों मन्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । अतः इनका अर्थ प्रस्तुत किया जा रहा है –

1-अर्यमणं देवं– सूर्य देव, जो ,अग्निं –अग्निस्वरूप हैं ,उनकी वरप्राप्ति के लिए, अयक्षत –पूजा की है,स–वे,अर्यमा देवः–भगवान् सूर्य, नो–हमें,इतः–इस पितृकुल से , प्रमुञ्चतु –छुड़ायें, किन्तु ,पत्युः –पति से ,मा –न छुड़ायें , स्वाहा — इतना बोलकर कन्या होम करती है ।

आज इस पद्धति का विधिवत् आचरण न करने का परिणाम इतना भयंकर दिख रहा है कि पति या तो पत्नी को छोड़ देता है अथवा पत्नी पति को ।

 2-मन्त्र –” आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा।

अर्थ– मे पतिः –मेरे पति, आयुष्मानस्तु –दीर्घायु हों,और मम– मेरे ,ज्ञातयो– बन्धु बान्धव,एधन्तां –बढ़ें ,स्वाहा बोलकर पुनः होम ।

विवाह में इस मन्त्र के छूट जाने का पहला परिणाम “पति असमय ही किसी भी कारण से अकालमृत्यु को प्राप्त होता है । या मृत्यु जैसे कष्टकारी रोगों से आक्रान्त हो जाता है । और पत्नी के पतिगृह पहुंचने के कुछ समय बाद ही बंटवारे की नौबत भी आ जाती है । जो आजकल का तथाकथित सभ्य समाज भुगत रहा है ।

 3 मन्त्र –” इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव । मम तुभ्य च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियं

स्वाहा ।

हे स्वामिन् ! , तव –तुम्हारी , समृद्धिकरणं –समृद्धि करने के लिए, इमाँल्लाजान् –इन लावों को ,अग्नौ –अग्नि में , आवपामि –मैं डाल रही हूं । मम तुभ्य च — हमारा और तुम्हारा , जो, संवननं –पारस्परिक प्रेम है , तत् –उसका , ये, अग्निः–अग्नि देव, अनुमन्यन्ताम्—अनुमोदन करें अर्थात् सदृढ करें , और, इयं –अग्नि की पत्नी स्वाहा भी , स्वाहा –बोलकर पुनः होम । इस मन्त्र से होम किया जाता है कि दाम्पत्य जीवन सदा प्रेम से संसिक्त रहे ।

पर आज जो पण्डित आधे घण्टे में विवाह करा दे उसे कई शहरों में बहुत अच्छा मानते हैं । इस मन्त्र से होम न करने का परिणाम है –दाम्पत्य जीवन का कलहमय होना ।

अतः विवाहोपरान्त भविष्य में आने वाले इन सभी संकटों को रोकने के लिए हमारे ऋषियों ने हमें जो कुछ दिया । उसकी अवहेलना का परिणाम आज घर घर में किसी न किसी रूप में दिख रहा है ।

अतः वेदों के इन पद्धतियों की वैज्ञानिकता और आदर्श समाज की रचना के इन अद्भुत प्रयोगों को हमें पुनः अपनाना होगा ।

 2-सांगुष्ठग्रहण–यह कर्म लाजा होम के बाद वर द्वारा किया जाता है । वह वधू का दांया हाथ अंगूठे सहित पकड़ता है । और ” गृभ्णामि से शरदः शतम् ” तक मन्त्र पढ़ता है ।

 इस मन्त्र से वर वधू में देवत्व का आधान होता है । तथा बहुत से पुत्रों के प्राप्ति की प्रार्थना की गयी है ।

 पुत्र वही है जो पुत् नामक नरक से तार दे -पुत् नामकात् नरकात् त्रायते इति पुत्रः ।

 इस मन्त्र के छूटने का परिणाम यह है कि आज कल लड़के अपने माता पिता का जीवन नरकमय बना रहे है । तारना तो दूर की बात है ।

3-अश्मारोहण– अग्निकुण्ड के उत्तर की ओर रखे हुए ” पत्थर ” ( लोढ़ा आदि) के समीप जाकर वर वधू के दायें पैर को पकड़कर उस पर रखता है ।

श्रीगदाधर ने अपने भाष्य मे सप्रमाण इसका उल्लेख किया है । और मिथिला मे यह आज भी वर द्वारा किया जाता है |

इस समय वर स्वयं मन्त्र पढ़ता है–”आरोहे से लेकर पृतनायत ” तक ।

 इस मन्त्र का अर्थ है कि कन्ये !तुम इस पत्थर पर आरूढ होकर इस प्रस्तर की भांति दृढ़ हो जाओ । और कलह चाहने वालों को दबाकर स्थिर रहो । और उन शत्रुओं को दूर हटा दो ।

 यह कर्म कन्या द्वारा आज भी U.P आदि में देखा जाता है । कन्या उस लोढ़े को पैर के अंगूठे से प्रहार करके  फेंक देती है ।

यह कर्म अद्भुत भाव से ओतप्रोत है । यह कन्या को हर विषम परिस्थितियों में अविचल भाव देने के साथ ही शत्रुदमन की अदम्य ऊर्जा भी प्रदान करता है ।

4-गाथागान — इसमें एक मन्त्र का गान वर करता है जिसमें नारी के उदात्त व्यक्तित्व की सुन्दर झलक है ।

 5- परिक्रमा या फेरे — अब वर वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं । इस समय वर –

 ”तुभ्यमग्रे से लेकर प्रजया सह ” तक 1 मन्त्र बोलता है ।

 1 परिक्रमा (फेरा ) अब पूर्ण हुई |

 इसी प्रकार पुनः पूर्ववत् लाजाहोम, सांगुष्ठग्रहण, अश्मारोहण, गाथागान और 1 परिक्रमा करनी है ।

 तत्पश्चात् पुनः वही लाजाहोम से लेकर 1 परिक्रमा तक पूर्वकी भांति सभी कर्म करना है ।

इसका संकेत प्रथम काण्ड की सप्तमी कण्डिका में शुक्लयजुर्वेद के सूत्रकार महर्षि पारस्कर अपने गृह्यसूत्र में करते हैं —

“एवं द्विरपरं लाजादि ” इसका अर्थ ” हरिहरभाष्य और गदा धरभाष्य ” दोनो में यही किया गया कि

“कुमार्या भ्राता —-” –जहां से लाजाहोम आरम्भ है वहां से परिक्रमा पर्यन्त कर्म होता है ।

 अब यहां हमारे समक्ष लाजा होम से लेकर परिक्रमा पर्यन्त सभी कर्मों का ३ बार अनुष्ठान सम्पन्न हुआ ।

 जिनमें 9 बार लावों की आहुति पड़ी ;क्योंकि १ -१ लाजाहोम में ३ –३ बार कन्या ने पूर्वोक्त मन्त्रों से आहुति दिया है ।

 3 बार सांगुष्ठग्रहण, 3 बार अश्मारोहण, 3 बार गाथागान और 3परिक्रमा (फेरे ) सम्पन्न हो चुकी है ।

 अब चौथी बार केवल लाजा होम  ही करना  है। पर इस चौथे क्रम में पहले से कुछ भिन्नता है ।

 क्या भिन्नता ?

 इसे महर्षि पारस्कर स्वयं सूत्र द्वारा दिखाते हैं —

 ” चतुर्थं शूर्पकुष्ठया सर्वाँल्लाजानावपति–भगाय स्वाहेति। “

 —-पारस्करगृह्यसूत्र,प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका,5,

 कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे ।

 इसके बाद मौन होकर वर और वधु अग्नि की परिक्रमा करते हैं –इसमें “सदाचार “ही प्रमाण है | अर्थात् शास्त्र प्रमाण इसमें नहीं मिलता –

 देखें हरिहरभाष्यकार लिखते है –

 ” ततः समाचारात्तूष्णीं चतुर्थं परिक्रमणं वधूवरौ कुरुतः “|

 इसे सर्वसम्मत पक्ष बतलाते हुए गदाधर भाष्य में “वासुदेव ,गंगाधर ,हरिहर और रेणु दीक्षित जैसे भाष्यकारों के नाम का उल्लेख श्रद्धापूर्वक किया गया है |–प्रथम काण्ड ,सप्तमी कण्डिका,६

किन्तु सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो । और  इस सदाचार के विरुद्ध प्रमाण है ” परम आर्ष ग्रन्थ वाल्मीकिरामायण”–

” त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः”-बालकाण्ड–७३/३९,

महातेजस्वी उन तीनों भाइयों ने तीन बार अग्नि की परिक्रमा करके विवाह किया | अतः इसके विरुद्ध ४ बार भांवर को प्रमाण कैसे माना जाय ?

महर्षि पारस्कर  स्वयं भी चौथी परिक्रमा का नाम नहीं लिए |उन्होंने तो केवल चौथी बार लाजा होम का ही नाम लिया है, परिक्रमा का नहीं–

” चतुर्थं शूर्पकुष्ठया सर्वाँल्लाजानावपति–भगाय स्वाहेति। “

—-पारस्करगृह्यसूत्र,प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका,5,

कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के

अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे ।

आश्चर्य है कि इन विद्वान भाष्यकारों ने शास्त्रविरुद्ध आचार को प्रमाण कैसे मान लिया ? क्योंकि स्मृतिविरुद्ध आचार प्रमाणकोटि में नहीं आता |

अतः पारस्कर गृह्यसूत्र और रामायण के प्रमाण से विवाह में तीन भांवर ( परिक्रमा ) ही सिद्ध होती है |

यह विषय विद्वानों के लिए सुचिन्त्य है |

इस प्रकार शुक्लयजुर्वेद के महर्षि पारस्कररचित ” पारस्करगृह्यसूत्र” और “रामायण” के अनुसार विवाह में ३  फेरे (परिक्रमा )ही प्रमाणसिद्ध है । ४ या 7 फेरे केवल भ्रममात्र हैं । अतः यही मान्य और शास्त्रसम्मत है ।

 यदि कोई कहे कि ४ या  7 फेरों का सदाचार हमारी परम्परा में चला आ रहा है और सदाचार का प्रामाण्य सभी ने स्वीकार किया है । अतः यह ठीक है ।तो मैं उस व्यक्ति से यही कहूंगा कि सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो । अतः इसके विपरीत ४ या 7 फेरों वाला सदाचार प्रमाण नही है ।