Sunday, September 29, 2019

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ग्रंथ ‘रामायण’ को संस्कृत साहित्य का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है । यह महाकाव्य बालकांड, अयोध्याकांड, आदि (जैसा श्री तुलसीदासकृत ‘रामचरितमानस’ में है) में विभक्त है, और हर कांड सर्गों में बंटा है । ग्रंथ के आरंभ में, वस्तुतः सर्ग दो में, निम्नलिखित श्लोक का उल्लेख है:

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।
(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
{निषाद, त्वम् शाश्वतीः समाः प्रतिष्ठां मा अगमः, यत् (त्वम्) क्रौंच-मिथुनात् एकम् काम-मोहितम् अवधीः ।}

हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है । (शब्दकोश के अनुसार क्रौंच सारस की अथवा बगुला की प्रजाति का पक्षी बताया जाता है। किसी अन्य शब्दकोश में चकवा या चकोर भी देखने को मिला है ।)

यह श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुख से एक बहेलिए के प्रति अनायास निकला शाप है कि वह कभी भी प्रतिष्ठा न पा सके । (मेरे पास उपलब्ध गीताप्रेस, गोरखपुर, की प्रति में प्रतिष्ठा का हिंदी में अर्थ शांति किया गया है ।) रामायण ग्रंथ के पहले सर्ग में इस बात का उल्लेख है कि देवर्षि नारद महर्षि बाल्मीकि के तमसा नदी तट पर अवस्थित आश्रम पर पधारते हैं और उन्हें रामकथा का संक्षिप्त परिचय देते हैं । देवर्षि के चले जाने के बाद महर्षि अपने शिष्यों के साथ तमसा नदी तट पर स्नानार्थ जाते हैं । तभी वे अपने वस्त्रादि अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज को सौंप पेड़-पौधों से हरे-भरे निकट के वन में भ्रमणार्थ चले जाते हैं । उस वन में एक स्थान पर उन की दृष्टि क्रौंच पक्षियों के रतिक्रिया में लिप्त एक असावधान जोड़े पर पड़ती है । कुछ ही क्षणों के बाद वे देखते हैं कि उस जोड़े का एक सदस्य चीखते और पंख फड़फड़ाते हुए जमींन पर गिर पड़ता है । और दूसरा उसके शोक में चित्कार मचाते हुए एक शाखा से दूसरे पर भटकने लगता है । उस समय अनायास ही उक्त निंदात्मक वचन उनके मुख से निकल पड़ते हैं ।

महर्षि के मुख से निकले उक्त छंदबद्ध वचन उनके किसी प्रयास के परिणाम नहीं थे । घटना के बाद महर्षि इस विचार में खो गये कि उनके मुख से वे शब्द क्यों निकले होंगे । वे सोचने लगे कि क्यों उनके मुख से बहेलिए के प्रति शाप-वचन निकले । इसी प्रकार के विचारों में खोकर वे नदी तट पर लौट आये । घटना का वर्णन उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज के समक्ष किया और उसे बताया कि उनके मुख से अनायास एक छंद-निबद्ध वाक्य निकला जो आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों, कुल बत्तीस अक्षरों, से बना है । इस छंद को उन्होंने ‘श्लोक’ नाम दिया । वे बोले “श्लोक नामक यह छंद काव्य-रचना का आधार बनना चाहिए; यह यूं ही मेरे मुख से नहीं निकले हैं ।” पर कौन-सी रचना श्लोकबद्ध होवे यह वे निश्चित कर पा रहे थे ।

आगे की कथा यह है कि तमसा नदी पर स्नानादि कर्म संपन्न करने के पश्चात् महर्षि आश्रम लौट आये और आसनस्थ होकर विभिन्न विचारों में खो गये । तभी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उन्हें दर्शन दिये और देवर्षि नारद द्वारा उन्हें सुनाये गये रामकथा का स्मरण कराया । उन्होंने महर्षि को प्रेरित किया कि वे पुरुषोत्तम राम की कथा को काव्यबद्ध करें । रामायण के इन दो श्लोकों में इस प्रेरणा का उल्लेख हैः

रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ।।
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।
रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ।।
(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक ३२ एवं ३३)
{ऋषि-सत्तम, त्वम् रामस्य कृत्स्नं चरितं कुरु, (कस्य?) लोके धर्मात्मनः धीमतः भगवतः रामस्य । नारदात् ते यथा श्रुतम् (तथा एव तस्य) धीरस्य वृत्तं कथय, तस्य धीमतः रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं (तत् कथय) ।}

हे ऋषिश्रेष्ठ, तुम श्रीराम के समस्त चरित्र का काव्यात्मक वर्णन करो, उन भगवान् राम का जो धर्मात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, बुद्धिमान् हैं । देवर्षि नारद के मुख से जैसा सुना है वैसा उस धीर पुरुष के जीवनवृत्त का बखान करो; उस बुद्धिमान् पुरुष के साथ प्रकाशित (ज्ञात रूप में) तथा अप्रकाशित (अज्ञात तौर पर) में जो कुछ घटित हुआ उसकी चर्चा करो । सृष्टिकर्ता ने उन्हें आश्वस्त किया कि अंतर्दृष्टि के द्वारा उन्हें श्रीराम के जीवन की घटनाओं का ज्ञान हो जायेगा, चाहे उनकी चर्चा आम जन में होती आ रही हो या न ।

और तब आरंभ हुआ रामायण ग्रंथ की रचना श्लोकों में निबद्ध होकर । देवर्षि नारद द्वारा कथित बातें, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की प्रेरणा, और रामकथा की पृष्ठभूमि आदि का उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं अपने ग्रंथ के आरंभ में किया है । पूरा ग्रंथ ‘श्लोक’ नामक छंदों में लिखित है । मैंने अभी रामायण का अध्ययन आरंभ ही किया है, लेकिन सरसरी निगाह डालने पर मैंने पाया कि ग्रंथ की भाषा काफी सरल है, और श्लोकों को समझना संस्कृत के सामान्य ज्ञान वाले व्यक्ति के लिए भी संभव है ।

रामकथा वस्तुतः पौराणिक है । इसलिए रामायण में जो कुछ वर्णित है वह अक्षरशः सही है क्या, इस बारे में कुछ कहना मेरे लिए संभव नहीं है । मुनि नारद कौन थे मैं नहीं जानता । क्या ऋषि वाल्मीकि को ब्रह्मा ने वास्तव में साक्षात् दर्शन दिये? या ऋषि को स्वप्न में उनके दर्शन हुए और उसी में उन्हें काव्यरचना की प्रेरणा प्राप्त हुई ? ऐसे प्रश्न मन में उठ सकते हैं । क्रौंच पक्षियुग्म में एक के हताहत होने से श्रीराम पर केंद्रित काव्यरचना का विचार मन में आया होगा मुझे ऐसा लगता है । वस्तुतः उस घटना को राम-सीता के संयोग-वियोग की कहानी के एक प्रतीक के रूप में लिया जा सकता है ।

Friday, September 27, 2019

प्रचलित अंगेजी शब्दों के संस्कृत शब्द

प्रचलित अंगेजी शब्दों के संस्कृत शब्द
संस्कृत                inglish

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जन्मदिवस का संकल्प

जन्मदिवस (वर्धापन) पूजनसड़्कल्पः
देशकालौ सड़्कीर्त्य मम दीर्घायुरारोग्यैश्वर्यादिवृद्धयर्थं श्रुति-स्मृति-पुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थं धर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरूषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमन्नारायणदेवताप्रीत्यर्थं वर्धनाख्यं कर्म करिष्ये।

यदि जन्मदिसव आपके पुत्र का हो तो यह सड़्कल्प करें-

देशकालौ सड़्कीर्त्य ममास्य कुमारस्य दीर्घायुरारोग्यैश्वर्यादिवृद्धयर्थं श्रुति-स्मृति-पुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थं धर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरूषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमन्नारायणदेवताप्रीत्यर्थं वर्धनाख्यं कर्म करिष्ये।
-डाॅ.मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

Tuesday, September 17, 2019

विश्वकर्मा जयन्ती 17 सितम्बर को ही क्यों?

विश्वकर्मा जयन्ती 17 सितम्बर को ही क्यों?

भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षा ऋतु के अंत और शरद ऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेज़ी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति अमूमन 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है। इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनायी जाती है।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

Friday, September 13, 2019

किस नक्षत्र मे नाडी दोष नहीं होता

#आठ #नक्षत्रों में नाडी दोष नहीं होता है।
#रोहिण्यार्द्रामृगेन्द्राग्नि पुष्यश्रवणपौष्णभम्
#अहिर्बुध्न्यर्क्ष मेतेषां नाडी दोषो न विद्यते।।
#अन्वयार्थ-
रोहिणी, आर्द्रा, मृगेन्द्र =मृगशिर्ष,  अग्नि = कृतिका,  पुष्य, श्रवण , पौष्णभम् = ज्येष्ठा, अहिर्बुध्न्य = उत्तराभाद्रपदा, एतेषां अष्ट नक्षत्राणां नाडी दोषो न विद्यते।।
#अर्थ- 
रोहिणी, आर्द्रा, मृगशिरा, कृतिका,  पुष्य, श्रवण , ज्येष्ठा, उत्तराभाद्रपदा, इन नक्षत्रों मे नाडी दोष नहीं होता है।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

सन्दर्भ-
यह श्लोक- बृहद्दैवज्ञरंजन और मुहूर्तगणपति में है।

Wednesday, September 11, 2019

आस्तेय

🌼🌻अस्तेय🌻🌼

🌺अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्🌺

योग के प्रथम अंग ‍यम के तीसरे उपांग अस्तेय का जीवन में अत्यधिक महत्व है। अस्तेय को साधने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ जाता है साथ ही वह शारीरिक और मानसिक रोग से स्वत: ही छूट जाता है। किसी भी व्यक्ति की वस्तु या विचार को चोरी कर स्वयं का बनाने या मानने से आपकी स्वयं की पहचान (आइडेंटी) समाप्त होती है और आप स्वयं अपुरुष कहलाते हैं।अस्तेय को अचौर्य भी कहते हैं अर्थात चोरी की भावना नहीं रखना, न ही मन में चुराने का विचार लाना ही अस्तेय है। प्रत्येक व्यक्ति चोर है। किसी के जैसा होने का भाव रखना भी चोरी है। किसी से प्रेरित होकर उसके जैसा होना भी चोरी है।हमने देखा है कि कोई भी व्यक्ति नेता, अभिनेता, गुरु आदि को अपना आदर्श मानकर उसके पदचिन्हों पर चलने लगता है। हमारी सारी शिक्षा प्रणाली भी यही सिखाती है कि महान व्यक्तियों का अनुसरण करो। जबकि योग कहता है कि अनुसरण दूसरी आत्महत्या है। आजकल के युवा तो पूर्णत: नकलची हो चले हैं। फिल्में देखकर, नेता को सुनकर या किसी भी फैशन को जानकर उनमें ही बहने लगते हैं, खुद की अकल का इस्तेमाल शायद ही करते होंगे। योग कहता है कि धन, भूमि, संपत्ति, नारी, विचार, विद्या और व्यक्तित्व आदि किसी भी ऐसी वस्तु जिसे आपने पुरुषार्थ (खुद के दम पर) से अर्जित नहीं किया उसको लेने के विचार मात्र से ही अस्तेय खंडित होता है। इस भावना से चित्त में जो असर होता है उससे मानसिक प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है। मन रोगग्रस्त हो जाता है और आत्मिक विकास रुक जाता है।शरीर, मन के साथ ही आत्मा अर्थात स्वयं की मौलिकता के महत्व को समझना जरूरी है। प्रकृति या परमात्मा ने प्रत्येक व्यक्ति को भिन्न बनाया है। इसका उदाहण है कि प्रत्येक व्यक्ति का अंगूठा दुनिया के किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता। यह इस बाद की सूचना है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं जैसा होने के लिए स्वतंत्र है।

🌻🌼अस्तेय के लाभ : यदि आपमें चोरी की भावना नहीं है तो आप स्वयं के विचार अर्जित करेंगे और स्वयं द्वारा अर्जित वस्तु को प्राप्त कर सच्चा संतोष और सुख पाएंगे। यह भाव कि सब कुछ मेरे कर्म द्वारा ही अर्जित है- आपमें आत्मविश्वास का विकास करता है। यह आत्मविश्वास अपको मानसिक रूप से सुदृड़ बनाता है।किसी भी विचार और वस्तु का संग्रह करने की प्रवृत्ति छोड़ने से व्यक्ति के शरीर से संकुचन हट जाता है जिसके कारण शरीर शांति को महसूस करता है। इससे मन खुला और शांत बनता है। छोड़ने और त्यागने की प्रवृत्ति के चलते मृत्युकाल में शरीर के किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं होते। कितनी ही महान वस्तु हो या कितना ही महान विचार हो, लेकिन आपकी आत्मा से महान कुछ भी नहीं।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

Tuesday, September 3, 2019

संतान गोपाल मंत्र

“ ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ”

Sunday, September 1, 2019

तर्पण विधि

तर्पण विधि

प्रातःकाल पूर्व दिशा की और मुँह कर बायें और दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली में पवित्री धारण करें। यज्ञोपवीत को सव्य कर लें। तीन कुशाओं को बाँधकर ग्रन्थी लगाकर कुशाओं का अग्रभाग पूर्व में रखते हुए दाहिने हाथ में जौ, जल, और अक्षत  लेकर संकल्प पढ़ें। 

ऊँ विष्णुः विष्णुः विष्णुः। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा,गुप्त:) अहं श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-फलप्राप्त्यर्थं पितृतर्पणं करिष्ये। 

तदनन्तर एक तांबे अथवा चांदी के पात्र में सफेद चन्दन,चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र के ऊपर एक हाथ या प्रादेश मात्र लम्बे तीन कुश रखें जिनका अग्रभाग पूर्व की ओर रहे। इसके बाद उस पात्र में तर्पण के लिए जल भर दें। फिर उसमें रखे हुए तीनों कुशों को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से ढक लें और निम्नाङि्‌कत मंत्र पढ़ते हुए देवताओं का आवाहन करें।

ऊँ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम हवम्‌। एदं बर्हिनिषीदत॥(शु. यजु. 7।34)

विश्वेदेवाः शृणुतेम हवं मे ये ऽअन्तरिक्षे य उप  द्यवि  ष्ठ।
येऽअग्निजिह्नाऽउत वा यजत्राऽआसद्यास्मिन्वर्हिषि मादयद्‌ध्वम्‌॥ (शु. यजु. 33।53)

      आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः।
      ये तर्पणेऽत्रा विहिताः सावधाना भवन्तु  ते॥

इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और उन पूर्वाग्र कुशों द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्‌गुलियों के अग्रभाग अर्थात्‌ देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिए पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि चावल मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङि्‌कत रूप से उन-उन देवताओं के नाम मन्त्र पढ़ते रहें -

देवतर्पण

ऊँ ब्रह्मा तृप्यताम्‌। ऊँ विष्णुस्तृप्यताम्‌। ऊँ रुद्रस्तृप्यताम्‌। 
ऊँ प्रजापतिस्तृप्यताम्‌। ऊँ देवास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ छन्दांसि तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ वेदास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ ऋषयस्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ संवत्सरः सावयवस्तृप्यताम्‌। ऊँ देव्यस्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ देवानुगास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ नागास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ सागरास्तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ पर्वतास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ सरितस्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ यक्षास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ रक्षांसि तृप्यन्ताम्‌। ऊँ पिशाचास्तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ सुपर्णास्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ भूतानि तृप्यन्ताम्‌। ऊँ पशवस्तृप्यन्ताम्‌। 
ऊँ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्‌। ऊँ ओषधयस्तृप्यन्ताम्‌।ᅠऊँᅠभूतग्रामश्चतु-
र्विधस्तृप्यताम्‌।

ऋषितर्पण-निम्नाङि्‌कत मन्त्र वाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें-

ऊँ मरीचिस्तृप्यताम्‌। ऊँ अत्रिास्तृप्यताम्‌। ऊँ अङि्‌गरास्तृप्यताम्‌। 
ऊँ पुलस्त्यस्तृप्यताम्‌। ऊँ पुलहस्तृप्यताम्‌। ऊँ क्रतुस्तृप्यताम्‌। 
ऊँ वसिष्ठस्तृप्यताम्‌। ऊँ प्रचेतास्तृप्यताम्‌। ऊँ भृगुस्तृप्यताम्‌। 
ऊँ नारदस्तृप्यताम्‌॥

दिव्य मनुष्य तर्पण-

इसके बाद जनेऊ को माला की भांति गले में धारण करके (अर्थात्‌ निवीती हो) पूर्वोक्त कुशों हो दायें हाथ की कनिष्ठिका के मूल-भाग में उत्तराग्र रखकर स्वयं उत्तराभिमुख हो निम्नाङि्‌कत मन्त्र वचनों को दो-दो बार पढ़ते हुए दिव्य मनुष्यों के लिए दो-दो अञ्जलि यवसहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूल-भाग) से अर्पण करें।

ऊँ सनकस्तृप्यताम्‌॥2॥ ऊँ सनन्दनस्तृप्यताम्‌॥2॥ 
ऊँ सनातनस्तृप्यताम्‌॥2॥ ऊँ कपिलस्तृप्यताम्‌॥2॥ 
ऊँ आसुरिस्तृप्यताम्‌॥2॥ ऊँ वोढुस्तृप्यताम्‌॥2॥ 
ऊँ पञ्चशिखस्तृप्यताम्‌॥2॥

दिव्य पितृ तर्पण-

तत्पश्चात्‌ उन कुशों को द्विगुण भुग्न करके उनका मूल और अग्रभाग दक्षिण की ओर किये हुए ही उन्हें अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे और स्वयं दक्षिणाभिमुख हो बायें घुटने को पृथ्वी पर रखकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधे पर रखकर) पूर्वोक्त पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगूठा और तर्जनी के मध्य भाग से) दिव्य पितरों के लिए निम्नाङि्‌कत मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें ।

ऊँ कव्यवाडनलस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै 
स्वधा नमः।3॥ ऊँ सोमस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥3॥ ऊँ यमस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः।3॥ ऊँ अर्यमा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः।3॥ ऊँ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः।3॥ ऊँ सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः।3॥ ऊँ बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः।3॥

यमतर्पण-

इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें ।

ऊँ यमाय नम :॥3॥ऊँ धर्मराजाय नम :॥3॥ ऊँ मृत्युवे नमः॥3॥ ऊँ अन्तकाय नम :॥3॥ ऊँ वैवस्वताय नम :॥3॥ ऊँ कालाय नमः॥3॥ ऊँ सर्वभूतक्षयाय नम :॥3॥ ऊँ औदुम्बराय नम :॥3॥ ऊँ दध्नाय नमः॥3॥ ऊँ नीलाय नम :॥3॥ ऊँ परमेष्ठिने नम :॥3॥ ऊँ वृकोदराय नम :॥3॥ ऊँ चित्रााय नम :॥3॥ ऊँ चित्रागुप्ताय नम :॥3॥

दक्षिण की ओर बैठकर आचमन कर बायाँ घुटना मोड़ जनेऊ तथा उत्तरीय को दाहिने कंधे पर कर पितृतीर्थ तर्जनी के मूल तथा कुशा के अग्र भाग और मूल से तिल सहित प्रत्येक नाम से दक्षिण में तीन-तीन अंजलि देवें। पवित्री दाहिने तथा तीन को बायें हाथ की अनामिका में धारण करें।

मनुष्य पितृ तर्पण

आवाहन (तीर्थों में नहीं करे)

ऊँ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि।
उशन्नुशत आवाह पितघ्ृन्हविषे अत्तवे॥ (यजु. 19। 70)
ऊँ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिमिर्देवयानैः।
अस्मिन्‌ यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्‌। (शुक्ल. मज. 19।58)

तदन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिए पूर्वोक्त विधि से तीन-तीन अञ्जलि तिलसहित जल दे। यथा-

अमुकगोत्राः अस्मत्पिता (बाप) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गा जलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मत्पितामहः (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मत्प्रपितामहः (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं तलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मत्प्रपितामही (परदादी) अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मत्सापत्नमाता (सौतेली मां) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥2॥

इसके बाद निम्नाङि्‌कत नौ मन्त्रों को पढ़ते हुए पितृतीर्थ से जल गिराता रहे।

ऊँ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं यऽ ईयुरवृका ᅠऋतज्ञास्ते  नोऽवन्तु  पितरो  हवेषु॥ (यजु. 19। 49)

अङि्‌गरसो नः पितरो नवग्वा ऽअथर्वाणो भृगवः सोम्यासः।
तेषां  वयं  सुमतो  यज्ञियानामपि  भद्रे  सौमनसे ᅠस्याम॥ (यजु. 19। 50)

आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः।
अस्मिन्यज्ञे  स्वधया  मदन्तोऽधिब्रुवन्तु    तेऽवन्त्वस्मान्‌॥ (यजु. 19। 58)

            ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिह्लुतम्‌।
            स्वधास्थ तर्पयत मे पितघ्घ्न्‌।  (यजु. 2। 34)

पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः
स्वधा  नमः  प्रतिपतामहेभ्यः  स्वधायिभ्यः  स्वधा  नमः।
अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्‌। (यजु. 19। 36)

ये चेह पितरो ये च नेह यांश्च विद्‌म याँ 2 ॥ उ च न प्रविद्‌म त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञँ सुकृतं जुषस्व॥  (यजु. 19। 67)

ऊँᅠमधुᅠव्वाताᅠऋतायतेᅠमधुᅠक्षरन्तिᅠसिन्धवः।ᅠमाध्वीर्नःᅠसन्त्वोषधीः॥(यजु. 13। 28)

ऊँᅠमधुᅠनक्तमुतोषसोᅠमधुमत्पार्थिवप्र रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥ (यजु. 13। 28)

ऊँमधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँऽ2अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥ (यजु. 13। 29)

ऊँ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्‌। तृप्यध्वम्‌। तृप्यध्वम्‌।

फिर नीचे लिखे मन्त्र का पाठ मात्र करे ।

ऊँ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः देष्मैतद्वः पितरो वास आधत्त। (यजु. 2। 32)

द्वितीय गोत्रतर्पण-
इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करे, यहाँ भी पहले की ही भांति निम्नलिखित वाक्यों को तीन-तीन बार पढ़कर तिलसहित जल की तीन-तीन अञ्जलियाँ पितृतीर्थ से दे। यथा -

अमुकगोत्राः अस्मन्मातामहः (नाना) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं (गङ्‌गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥3॥  अमुकगोत्राः अस्मत्प्रमातामहः (परनाना) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मद्‌वृद्धप्रमातामहः (बूढ़े परनाना) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं  तस्यै स्वधा नमः॥3॥  अमुकगोत्रा अस्मद्‌वृद्धप्रमातामही (बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै 
स्वधा नमः॥3॥

पत्न्यादि तर्पण

अमुकगोत्रा अस्मत्पत्नी (भार्या) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥1॥ अमुकगोत्राः अस्मत्सुतः (बेटा) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मत्कन्या (बेटी) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥1॥ अमुकगोत्राः अस्मत्पितृव्यः (पिता के भाई) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मन्मातुलः (मामा) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मद्‌भ्राता (अपना भाई) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मत्सापत्नभ्राता (सौतेला भाई) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मत्पितृभगिनी (बूआ) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ अमुकगोत्रा अस्मन्मातृभगिनी (मौसी) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधानमः ॥ 1॥ अमुकगोत्रा अस्मदात्मभगिनी (अपनी बहिन) अमुकी देवी  वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥1॥ अमुकगोत्रा अस्मत्सापत्नभगिनी (सौतेली बहिन) अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥1॥ अमुकगोत्राः अस्मच्छ्‌वशुरः (श्वसुर) अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मद्‌गुरुः अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्रा अस्मदाचार्यपत्नी अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥2॥ अमुकगोत्राः अस्मच्छिष्यः अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मत्सखा अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥ अमुकगोत्राः अस्मदाप्तपुरुषः अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यताम्‌ इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥

 इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढ़ते हुए जल गिरावे ।

         देवासुरास्तथा    यज्ञा   नागा   गन्धर्वराक्षसाः ।
         पिशाचा गुह्मकाः सिद्धाः कूष्माण्डास्तरवः खगाः  ॥
         जलेचरा   भूनिलया    वाय्वाधाराश्च  जन्तवः ।

      प्रीतिमेते   प्रयान्त्वाशु     मद्‌दत्तेनाम्बुनाखिलाः  ॥
      नरकेषु    समस्तेषु   यातनासु  च  ये  स्थिताः  ।
      तेषामाप्यायनायैतद्‌   दीयते   सलिलं     मया   ॥
      येऽबान्धवा बान्धवा वा  येऽन्यजन्मनि   बान्धवाः  ।
      ते सर्वे  तृप्तिमायान्तु   ये  चास्मत्तोयकाङि्‌क्षणः  ॥
      ऊँ   आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं      देवर्षिपितृमानवाः  ।
      तृप्यन्तु    पितरः      सर्वे   मातृमातामहादयः  ॥
      अतीतकुलकोटीनां         सप्तद्वीपनिवासिनाम्‌  ।
      आब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु        तिलोदकम्‌   ॥
      येऽबान्धवा बान्धवा  वा  येऽन्यजन्मनि  बान्धवाः  ।
      ते सर्वे   तृप्तिमायान्तु  मया   दत्तेन   वारिणा  ॥

वस्त्र निष्पीडन

तत्पश्चात्‌ वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नाङि्‌कत मन्त्र को पढ़ते हुए अपसव्य-भाव से अपने बायें भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़े। (पवित्राक को तर्पण किये हुए जल में छोड़ दे। यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्रा-निष्पीडन को नहीं करना चाहिये।) वस्त्र-निष्पीडन का मन्त्र यह है ।

            ये चास्माकं कुले जाता अपुत्राा गोत्रिाणो मृताः।
            ते  गृह्‌णन्तु  मया  दत्तं वस्त्रानिष्पीडनोदकम्‌॥

भीष्म तर्पण

इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही जनेऊ अपसव्य करके हाथ में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिए पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के द्वारा तर्पण करें। उनके तर्पण का मन्त्र निम्नाङि्‌कत है -

       वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्‌कृतिप्रवराय च।
       गङ्‌गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम्‌।
       अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे॥

अर्घ्यदान-

फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे। तदनन्तर यज्ञोपवीत बायें कंधे पर करके एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसके मध्यभाग में अनामिका से षड्‌दल कमल बनावे और उसमें श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड़ दे। फिर दूसरे पात्र में चन्दन से षड्‌दल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्घ्य अर्पण करे। अर्घ्यदान के मन्त्र निम्नाङि्‌कत हैं -

ऊँ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो ब्वेनऽआवः।
स बुध्न्या ऽउपमा ऽअस्य व्विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च व्विवः॥ (शु. य. 13।3) 
ऊँ ब्रह्मणे नमः। ब्रह्माणं पूजयामि॥
ऊँ इदं विष्णुर्विचक्रमे  त्रोधा निदधे पदम्‌।
समूढमस्यपाँ सुरे स्वाहा॥    (शु.य. 5।15)
ऊँ विष्णवे नमः। विष्णुं पूजयामि॥
ऊँ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम :।
बाहुभ्यामुत ते नमः॥  (शु. य. 16।1)
ऊँ रुद्राय नमः। रुद्र्रं पूजयामि॥
ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्‌॥ (शु.य. 36।3)
ऊँ सवित्रो नमः। सवितारं पूजयामि॥
ऊँ मित्रास्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि।ᅠद्युम्नं चित्राश्रवस्तमम्‌॥ (शु. य. 11।62)
ऊँ मित्रााय नमः। मित्रं पूजयामि॥
ऊँ इमं मे व्वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय।  त्वामवस्युराचके॥ (शु. य. 21।1)
ऊँ वरुणाय नमः। वरुणं पूजयामि॥

सूर्योपस्थान-

इसके बाद निम्नाङि्‌कत मन्त्र पढ़कर सूर्योपस्थान करे -

ऊँ अदृश्रमस्य केतवो विरश्मयो जनाँ॥ 2॥ अनु। भ्राजन्तो ऽअग्नयो यथा। उपयामगृहीतोऽसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय। सूर्य भ्राजिष्ठ भ्राजिष्ठस्त्वं देवेष्वसि भ्राजिष्ठोऽहमनुष्येषु भूयासम्‌॥ (शु. य. 8।40)

ऊँ हᅠप्र सः श्चिषञ्सुरन्तरिक्षसद्धोता व्वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्‌। नृषद्‌द्वरसदृतसद्वयोमसदब्जा गोजा ऽऋतजा ऽअद्रिजा ऽऋतं वृहत्‌॥ (शु. य. 10।24)

इसके पश्चात्‌ दिग्देवताओं को पूर्वादि क्रम से नमस्कार करे -

ऊँ इन्द्राय नमः' प्राच्यै॥ 'ऊँ अग्नये नमः' आग्नेय्यै॥ 'ऊँ यमाय नमः' दक्षिणायै॥ 'ऊँ निर्ऋतये नमः'

नैर्ऋत्यै॥ 'ऊँ वरुणाय नमः' पश्चिमायै॥ 'ऊँ वायवे नमः' वायव्यै॥ ऊँ सोमाय नमः' उदीच्यै॥

ऊँ ईशानाय नमः' ऐशान्यै॥ 'ऊँ ब्रह्मणे नमः' ऊर्ध्वायै॥ 'ऊँ अनन्ताय नमः' अधरायै॥

इसके बाद जल में नमस्कार करें -

ऊँ ब्रह्मणे नमः। ऊँ अग्नये नमः। ऊँ पृथिव्यै नमः। ऊँ ओषधिभ्यो नमः। ऊँ वाचे नमः। ऊँ वाचस्पतये नमः। ऊँ महद्‌भ्यो नमः। ऊँ विष्णवे नमः। ऊँ अद्‌भ्यो नमः। ऊँ अपाम्पयते नमः। ऊँ वरुणाय नमः॥

मुखमार्जन-

फिर नीचे लिखे मन्त्र को पढ़कर जल से मुंह धो डालें-

ऊँ संवर्चसा पयसा सन्तनूभिरगन्महि मनसा सँ शिवेन।

त्वष्टा सुदत्रो व्विदधातु रायोऽनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम्‌॥ (शु.य. 2।24)

विसर्जन-नीचे लिखे मन्त्र पढ़कर देवताओं का विसर्जन करें-

      ऊँ  देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित।
      मनसस्पत ऽइमं देव यज्ञँ स्वाहा व्वाते धाः॥   (शु. य. 2।21)

समर्पण-निम्नलिखित वाक्य पढ़कर यह तर्पण-कर्म भगवान्‌ को समर्पित करें-

अनेन यथाशक्तिकृतेन देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणाखयेन कर्मणा भगवान्‌ मम समस्तपितृस्वरूपी जनार्दनवासुदेवः प्रीयतां न मम।

ऊँ विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः।