#ब्राह्मणत्वकी_दुर्लभताके_सन्दर्भमें_मातंगोपाख्यान*
(श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व/ दानधर्मपर्व / इन्द्रमतङ्गसंवाद अध्यायः २७ ॥
युधिष्ठिर प्रश्न
युधिष्ठिरने पूछा—धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश्वर ! आप बुद्धि, विद्या, सदाचार, शील और विभिन्न प्रकार के सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न हैं । आपकी अवस्था भी सबसे बड़ी है। आप बुद्धि, प्रज्ञा और तपस्या से विशिष्ट हैं; अतः मैं आपसे धर्म की बात पूछता हूँ । संसारमें आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिससे सब प्रकारके प्रश्न पूछे जा सकें ॥१-२॥ नृपश्रेष्ठ ! यदि क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र ब्राह्मणत्व प्राप्त करना चाहे तो वह किस उपाय से उसे पा सकता है ? यह मुझे बताइये ॥ ३ ॥ पितामह ! यदि कोई ब्राह्मणत्व पाने की इच्छा करे तो वह उसे तपस्या, महान् कर्म अथवा वेदों के स्वाध्याय आदि किस उपाय से प्राप्त कर सकता है ? ॥ ४ ॥
*पितामह उत्तर*
भीष्म जी ने कहा-तात युधिष्ठिर ! क्षत्रिय आदि तीन वर्णो के लिये ब्राह्मणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि यह समस्त प्राणियों के लिये सर्वोत्तम स्थान है ॥ ५ ॥ तात ! बहुत-सी योनियों में बारंबार जन्म लेते-लेते कभी किसी समय संसारी जीव ब्राह्मण की योनि में जन्म लेता है॥६॥ युधिष्ठिर ! इस विषयमें जानकार मनुष्य मतङ्ग और गर्दभी के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं ॥ ७ ॥ तात ! पूर्वकालमें किसी ब्राह्मण के एक मतङ्ग नामक पुत्र हुआ, जो (अन्य वर्णके पुरुष से उत्पन्न होने पर भी ब्राह्मणोचित संस्कारों के प्रभाव से) उनके समान वर्ण का ही समझा जाता था, वह समस्त सद्गुणों से सम्पन्न था ॥ ८ ॥ शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्तीकुमार ! एक दिन अपने पिता के भेजने पर मतङ्ग किसी यजमान का यज्ञ कराने के लिये गधौ से जुते हुए शीघ्रगामी रथपर बैठकर चला ॥ ९ ॥ राजन् ! रथ का बोझ ढोते हुए एक छोटी अवस्था के गधे को उसकी माता के निकट ही मतङ्ग ने बारंबार चाबुक से मारकर उसकी नाक में घाव कर दिया ॥ १० ॥पुत्र का भला चाहने वाली गधी उस गधे की नाक में दुस्सह घाव हुआ देख उसे समझाती हुई बोली-बेटा ! शोक न करो । तुम्हारे ऊपर ब्राह्मण नहीं, चाण्डाल सवार है ॥ ब्राह्मण में इतनी क्रूरता नहीं होती। ब्राह्मण सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाला बताया जाता है। जो समस्त प्राणियों को उपदेश देनेवाला आचार्य है, वह कैसे किसी पर करेगा ? ।। १२ ।। यह स्वभाव से ही पापात्मा है; इसीलिये दूसरे के बच्चे पर दया नहीं करता है। यह अपने इस कुकृत्य द्वारा अपनी चाण्डाल योनि का ही सम्मान बढ़ा रहा है। जातिगत स्वभाव ह्री मनोभाव पर नियन्त्रण करता है ॥ १३ ॥ गधी का यह दारुण वचन सुनकर मतङ्ग तुरंत रथ से उतर पड़ा और गधी से इस प्रकार बोला-॥ १४ ॥ “कल्याणमयी गर्दभी ! बता, मेरी माता किससे कलङ्कित हुई है ? तू मुझे चाण्डाल कैसे समझती है ? शीघ्र मुझसे सारी बात बता ॥ १५ ॥ गधी ! तुझे कैसे मालूम हुआ कि मैं चाण्डाल हूँ । किस कर्म से मेरा ब्राह्मणत्व नष्ट हुआ है ? तू बड़ी समझदार है; अतः ये सारी बातें मुझे ठीक-ठीक बता ॥ १६ ॥ गदही बोली-मतङ्ग ! तू यौवन के मद से मतवाली हुई एक ब्राह्मणी के पेट से शूद्रजातीय नाई द्वारा पैदा किया गया, इसीलिये तू चाण्डाल है और तेरी माता के इसी व्यभिचार कर्म से तेरा ब्राह्मणत्व नष्ट हो गया है ॥ १७ ॥ गदहीके ऐसा कहने पर मतङ्ग फिर अपने घर को लौट गया। उसे लौटकर आया देख पिता ने इस प्रकार कहा-॥ १८॥ बेटा ! मैंने तो तुम्हें यज्ञ कराने के भारी कार्य पर लगा रखा था, फिर तुम लौट कैसे आये ? तुम कुशल से तो हो न ? ।। १९ ।। मतङ्ग ने कहा-पिताजी ! जो चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुआ है अथवा उससे भी नीच योनि में पैदा हुआ है, वह कैसे सकुशल रह सकता है । जिसे ऐसी माता मिली हो, उसे कहाँ से कुशल प्राप्त होगी ॥ २० ॥ पिताजी ! यह मानवेतर योनि में उत्पन्न हुई गदही मुझे ब्राह्मणी के गर्भ से शूद्र द्वारा पैदा हुआ बता रही है; इसलिये अब मैं महान् तप में लग जाऊँगा ॥ २१ ॥ पिता से ऐसा कहकर मतङ्ग तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके घर से निकल पड़ा और एक महान् वन में जाकर वहाँ बडी भारी तपस्या करने लगा ॥ २२ ॥ तपस्या में संलग्न हो मतङ्ग ने देवताओं को संतप्त कर दिया । वह भलीभाँति तपस्या करके सुख से ही ब्राह्मणत्वरूपी अभीष्ट स्थान को प्राप्त करना चाहता था ॥ २३ ॥ उसे इस प्रकार तपस्या में संलग्न देख इन्द्र ने कहा -- मतङ्ग ! तुम क्यों मानवीय भोगों का परित्याग करके तपस्या कर रहे हो ? ॥ २४ ॥ मैं तुम्हें वर देता हूँ । तुम जो चाहते हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक माँग लो । तुम्हारे हृदय में जो कुछ पाने की अभिलाषा है, वह् सब शीघ्र बताओ’ ।। २५ ।। मतङ्ग ने कहा-मैंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने की इच्छा से यह तपस्या प्रारम्भ की है। उसे पा करके ही यहाँ से जाऊँ, मैं यही वर चाह्ता हूँ ॥ २६ ॥ भीष्म जी कहते हैं-भारत ! मतङ्ग की यह बात सुनकर इन्द्रदेव ने कहा–“मतङ्ग ! तुम जो ब्राह्मणत्व माँग रहे हो, यह तुम्हारे लिये दुर्लभ है ॥ २७ ॥ जिनका अन्त:करण शुद्ध नहीं है अथवा जो पुण्यात्मा नहीं हैं, उनके लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति असम्भव है। दुर्बुद्धे ! तुम ब्राह्मणत्व माँगते-माँगते मर जाओगे तो भी वह नहीं मिलेगा; अतः इस दुराग्रह से जितना शीघ्र सम्भव हो निवृत्त हो जाओ ॥ २८ ॥ सम्पूर्ण भूतों में श्रेष्ठता ही ब्राह्मणत्व है और यही तुम्हारा अभीष्ट प्रयोजन है, परंतु यह तप उस प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकता; अतः इस श्रेष्ठ पद की अभिलाषा रखते हुए तुम शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ॥ २९ ॥ देवताओं, असुरों और मनुष्यों में भी जो परम पवित्र माना गया है, उस ब्राह्मणत्व को चाण्डालयोनि में उत्पन्न हुआ मनुष्य किसी तरह नहीं पा सकता ॥ ३० ॥
इति श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वण दानधर्मपर्व इन्द्रमतङ्गसंवादे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
भीष्मजी कहते हैं-राजन्! इन्द्र के ऐसा कहने पर मतङ्ग का मन और भी दृढ़ हो गया । वह संयमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने लगा। अपने धैर्य से च्युत न होनेवाला मतङ्ग सौ वर्षों तक एक पैर से खड़ा रहा ॥ १ ॥ तब महायशस्वी इन्द्र ने पुनः आकर उससे कहा- तात ! ब्राह्मणत्व दुर्लभ है । उसे माँगने पर भी पा न सकोगे ॥ २ ॥ मतङ्ग ! तुम इस उत्तम स्थान को माँगते-मोंगते मर जाओगे । बेटा ! दु:साहस न करो । तुम्हारे लिये यह धर्म का मार्ग नहीं है ॥ ३ ॥ दुर्मते ! तुम इस जीवन में ब्राह्मणत्व नहीं पा सकते । उस अप्राप्य वस्तु के लिये प्रार्थना करते-करते शीघ्र ही काल के गाल में चले जाओगे ॥ ४ ॥ मतङ्ग ! मैं तुम्हें बार-बार मना करता हूँ तो भी उस उत्कृष्ट स्थान को तुम तपस्या द्वारा प्राप्त करने की अभिलाषा करते ही जाते हो । ऐसा करने से सर्वथा तुम्हारी सत्ता मिट जायगी ॥ ५ ॥ पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए सभी प्राणी यदि कभी मनुष्ययोनि में जाते हैं तो पहले पुल्कस या चाण्डाल के रूप में जन्म लेते हैं-इसमें संशय नहीं है ॥ ६ ॥ मतङ्ग ! पुल्कस या जो कोई भी पापयोनि पुरुष यहाँ दिखायी देता है, वह सुदीर्घकाल तक अपनी उसी योनि में चक्कर लगाता रहता है ॥ ७ ॥ तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर वह चाण्डाल या पुल्कस शूद्र योनि में जन्म लेता है और उसमें भी अनेक जन्मों तक चक्कर लगाता रहता है ॥ ८ ॥ तत्पश्चात् तीस गुना समय बीतने पर वह वैश्य योनि में आता है और चिरकाल तक उसी में चक्कर काटता रहता है ॥ ९ ॥ इसके बाद साठ गुना समय बीतने पर वह क्षत्रिय की योनि में जन्म लेता है। फिर उससे भी साठ गुना समय बीतने पर वह गिरे हुए ब्राह्मण के घर में जन्म लेता है ॥ १० ॥दीर्घकाल तक ब्राह्मणाधम रहकर जब उसकी अवस्था परिवर्तित होती है, तब वह अस्त्र-शस्त्रों से जीविका चलाने वाले ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेता है॥ ११ ॥ फिर चिरकाल तक वह उसी योनि में पड़ा रहता है। तदनन्तर तीन सौ वर्ष का समय व्यतीत होने पर वह गायत्री मात्र का जप करने वाले ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेता है ॥ १२ ॥ उस जन्म को पाकर वह चिरकाल तक उसी योनि में जन्मता-मरता रहता है। फिर चार सौ वर्षों का समय व्यतीत होनेपर वह श्रोत्रिय ( वेदवेत्ता ) ब्राह्मण के कुल में जन्म लेता है और उसी कुल में चिरकाल तक उसका आवागमन होता रहता है ॥ १३ ॥ बेटा ! इस प्रकार शोक-हर्ष, राग-द्वेष, अतिमान और अतिवाद आदि दोषों का अधम द्विजके भीतर प्रवेश होता है॥ १४ ॥ यदि वह इन शत्रुओंको जीत लेता है तो सद्गति को प्राप्त होता है और यदि वे शत्रु ही उसे जीत लेते हैं तो ताड़ के वृक्षके ऊपर से गिरने वाले फल की भाँति वह नीचे गिरा दिया जाता है ॥ १५ ॥ मतङ्ग ! यही सोचकर मैंने तुमसे कहा था कि तुम कोई दूसरी अभीष्ट वस्तु माँग लो; क्योंकि ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १६ ॥
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि इन्द्रमतङ्गसंवादे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
भीष्म जी कहते हैं-युधिष्ठिर ! इन्द्र के ऐसा कहने पर मतङ्ग अपने मन को और भी दृढ़ और संयमशील बनाकर एक हजार वर्षों तक एक पैर से ध्यान लगाये खड़ा रहा ॥ १ ॥ जब एक हजार वर्ष पूरे होने में कुछ ही काल बाकी था, उस समय बल और वृत्रासुर के शत्रु देवराज इन्द्र फिर मतङ्ग को देखने के लिये आये और पुनः उससे उन्होंने पहले की कही डुई बात ही दुहरायी ॥ २ ॥ मतङ्ग ने कहा-देवराज ! मैंने ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित हो एक हजार वर्षों तक एक पैर से खड़ा होकर तप किया है। फिर मुझे ब्राह्मणत्व कैसे नहीं प्राप्त हो सकता?॥ इन्द्रने कहा--मतङ्ग ! चाण्डाल की योनि में जन्म लेने वाले को किसी तरह ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता; इसलिये तुम दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु माँग लो जिससे तुम्हारा यह _काम व्यर्थ न जाय ।। ४ ।। उनके ऐसा कहने पर मतङ्ग अत्यन्त शोकमग्न हो गया में जाकर अंगूठे के बलपर सौ वर्षों तक खड़ा रहा ॥ ५ ॥ उसने दुर्धर योग का अनुष्ठान किया । उसका सारा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया । नस-नाड़ियाँ उघड़ आयीं । धर्मात्मा मतङ्ग का शरीर चमड़े से ढकी हुई हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया । उस अवस्था में अपने को न संभाल सकने के कारण वह गिर पड़ा, यह बात हमारे सुनने में आयी है॥६॥ उसे गिरते देख सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहनेवाले वर देने में समर्थ इन्द्र ने दौड़कर पकड़ लिया ॥ ७ ॥ इन्द्र ने कहा-मतङ्ग ! इस जन्म में तुम्हारे लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति असम्भव दिखायी देती है । ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है; साथ ही वह कामक्रोध आदि लुटेरों से घिरा हुआ है ॥ ८ ॥ जो ब्राह्मण का आदर करता है, वह सुख पाता है और जो अनादर करता है, वह दु:ख पाता है । ब्राह्मण समस्त प्राणियों को योगक्षेम की प्राप्ति कराने वाला है ॥ ९ ॥ मतङ्ग ! ब्राह्मणों के तृप्त होने से ही देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। ब्राह्मण जो-जो जिस प्रकार करना चाहता है, अपने तप के प्रभाव से वैसा ही कर सकता है। तात ! जीव इस जगत् के भीतर अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ बारंबार जन्म लेता है । इसी तरह जन्म लेते-लेते कभी किसी समय में वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है ॥ ११ ॥ अतः जिनका मन अपने वश में नहीं है, ऐसे लोगों के लिये सर्वथा दुष्प्राप्य ब्राह्मणत्व को पाने का आग्रह छोड़कर तुम कोई दूसरा ही वर माँगो । यह वर तो तुम्हारे लिये दुर्लभ ही है ॥ १२ ॥ मतङ्ग ने कहा-देवराज ! मैं तो यों ही दुःख से आतुर हो रहा हूँ, फिर तुम भी क्यों मुझे पीड़ा दे रहे हो ? मुझ मरे हुए को क्यों मारते हो ? मैं तो तुम्हारे लिये शोक करता हूँ, जो जन्म से ही ब्राह्मणत्व को पाकर भी तुम उसे अपना नहीं रहे हो ॥ १३ ॥शतक्रतो । यदि क्षत्रिय आादि तीन वर्णो के लिये ब्राह्मणत्व दुर्लभ है तो उस परम दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर भी मनुष्य ब्राह्मणोचित शम-दम का अनुष्ठान नहीं करते हैं । यह कितने दुःख की बात है ! ॥ १४ ॥ वह पापियों से भी बढ़कर अत्यन्त पापी और उनमें भी अधम ही है, जो दुर्लभ धन की भाँति ब्राह्मणत्व को पाकर भी उसके महत्त्व को नहीं समझता है॥ १५ ॥ पहले तो ब्राह्मणत्व का प्राप्त होना ही कठिन है । यदि वह प्राप्त हो जाय तो उसका पालन करना और भी कठिन हो जाता है; किंतु बहुत से मनुष्य इस दुर्लभ वस्तु को पाकर भी तदनुकूल आचरण नहीं करते हैं ॥ १६॥ शक्र ! मैं एकान्त में आनन्दपूर्वक रहता हूँ तथा द्वन्द्वों और परिग्रहों से दूर हूँ। अहिंसा और दम का पालन किया करता हूँ। ऐसी दशा में मैं ब्राह्मणत्व पाने योग्य क्यों नहीं हूँ ? ॥ पुरंदर ! मैं धर्मज्ञ होकर भी केवल माता के दोष से इस अवस्था में आ पहुँचा हूँ। यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है ? प्रभो ! निश्चय ही पुरुषार्थ के द्वारा दैव का उल्लङ्घन् नहीं किया जा सकता; क्योंकि मैं जिसके लिये ऐसा प्रयत्नशील हूँ, उस ब्राह्मणत्व को नहीं उपलब्ध कर पाता हूँ । धर्मज्ञ देवराज ! यदि ऐसी अवस्था में मैं आपका कृपापात्र हूँ अथवा यदि मेरा कुछ भी पुण्य शेष हो तो आप मुझे वर प्रदान कीजिये ॥ २० ॥
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! तब बल और वृत्रासुर को मारने वाले इन्द्र ने मतङ्क से कहा-तुम मुझसे वर माँगो। महेन्द्र से प्रेरित होकर मतङ्ग ने इस प्रकार कहा-॥२१ ।। देव पुरंदर ! आप ऐसी कृपा करें, जिससे मैं इच्छानुसार विचरने वाला तथा अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाला आकाशचारी देवता होऊँ । ब्राह्मण और क्षत्रियों के विरोध से रहित हो मैं सर्वत्र पूजा एवं सत्कार प्राप्त करूँ तथा मेरी अक्षय कीर्ति का विस्तार हो । मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर आपकी प्रसन्नता चाहता हूँ । आप मेरी इस प्रार्थना सफल बनाईये। इन्द्र ने कहा- वत्स ! तुम स्त्रियों के पूजनीय होओगे । । छन्दोदेव के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी और तीनों लोकों में तुम्हारी अनुपम कीर्ति का विस्तार होगा ॥ २४ ॥ इस प्रकार उसे वर देकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। मतङ्ग भी अपने प्राणों का परित्याग करके उत्तम स्थान ( ब्रह्म लोक) को प्राप्त हुआ ॥ २५ ॥ भारत ! इस तरह यह ब्राह्मणत्व परम उत्तम स्थान है। जैसा कि इन्द्र का कथन है, उसके अनुसार यह इस जीवन में दूसरे वर्ण के लोगों के लिये दुर्लभ है ॥ २६ ॥
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि इन्द्रमतङ्गसंवादे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
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