Wednesday, June 5, 2024

नारीधर्म

नारीधर्म


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः शास्त्र के इस वचन के अनुसार स्त्री-धर्म की रक्षा से ही भारतवर्ष देवताओं का निवास स्थान बना था। देवताओं को अमरलोक से मृत्युलोक में अवतरण के लिए एक नारी धर्म ही समर्थ है।

 स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।संकरोनरकायैव कुलध्नानां कुलध्नानां कुलस्य च॥

अर्थात- स्त्रियों के दूषित-धर्मभ्रष्ट हो जाने पर वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है, वर्णसंकर संतान कुलघाती पुरूषों को तथा अपने कुल को भी नरक में ले जाने वाली होती है। इस भगवद् वचन के अनुसार सब तरफ से नुकसान ही नुकसान होगा। इसलिए नारी धर्म की रक्षा आवश्यक है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

भावार्थ- जिस कल में स्त्रियों का समादर है वहां देवता प्रसन्न रहते हैं और जहां ऐसा नहीं है, उस परिवार न में समस्त (यज्ञादि) क्रियाएं व्यर्थ होती हैं। हिन्दू संस्कृति में नारी के प्रति यह कोरी शाब्दिक सद्भावना का प्रदर्शन नहीं है, भारतीय गृहस्थ जीवन में इसकी व्यवहारिक सार्थकता सिद्ध है। भौतिकवादी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे लोगों को हो सकता है, यह सत्य गले न उतरे, कोई तथ्य दिखाई न दे लेकिन जो नारी सम्मान के महत्व को समझते हैं, जानते हैं वे हिन्दू जीवन में नारी-मर्यादा सुरक्षित रखने का विशेष ध्यान रखते हैं और ऐसा कोई कार्य नहीं करते जिससे नारी के सम्मान को ठेस लगे या प्रतिष्ठा पर आंच आये। वैसे भी नारी के प्रति शास्त्र का स्पष्ट आदेश है|

 पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति॥

बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं| स्त्री को कभी इनसे पृथक स्वतंत्र रहने का विधान नहीं है।


👉👉यह उपदेश सभी स्त्रियों के लिए बहुत प्रेरक उपदेश है, आचरण में लायें।

द्रोपदी का सत्यभामा को नारी-धर्म का उपदेश

देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृत: ।
द्रव्यवानभिरुपोवा न मेऽन्य: पुरुषोमत: ।।
भावार्थ― देवता, मनुष्य, गन्धर्व, युवक अच्छी सज धज वाला धनवान अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन भर्ता (पति) को छोड़कर कहीं नहीं जाता।
दुर्व्याह्रताच्छंकमाना दु:स्थिताद् दुखेक्षिताद् ।
दुरासिताद् दुर्व्रजितादिङ्गिताघ्यासितादपि ।।
भावार्थ―मेरे मुख से कभी कोई बुरी बात न निकल जाय।इस बात से सदा सावधान रहती हूं। असभ्य की भांति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्ज के समान इधर उधर कभी दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर अथवा असभ्यतापूर्ण से कभी नहीं बैठती। दुराचरण से बचती तथा चलने-फिरने में असभ्यता न हो जाये इसके लिए सदा सावधान रहती हूं। इशारे, भावभंगिमा तथा अत्यन्त आग्रह (किसी बात पर अड़ जाना) आदि से भी कतराती हूं।
नाभुक्तवति नास्ताते नासंविष्टे च भर्तरि ।
न सदिशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि ।।
भावार्थ― पति और अपने सेवकों को भोजन कराये बिना में कभी भोजन नहीं करती, उनको स्नान कराये बिना मैं कभी स्नान नहीं करती और जब तक वे (पति) सो नहीं जाते तब तक मैं कभी नहीं सोती हूं।
अतिरस्कृतं सम्भाषा दु:स्त्रियो नानु सेयती ।
अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा ।।
भावार्थ―अपनी बोल-चाल या बात-चीत में कभी किसी का मैं तिरस्कार नहीं करती हूं। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा बचती हूं। नित्य अनुकूल बर्ताव करती हूं और आलस्य को कभी अपने पास फटकने नहीं देती।
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णश: ।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये ।।
भावार्थ― पति के साथ हास-परिहास के सिवा मैं कभी अनवसर हंसी नहीं करती। बार बार दरवाजे पर जाकर कभी खड़ी नहीं होती। घर के पास लगे बगीचों में अकेले देर तक घूमते रहने से भी बचती हूं।
अन्त्यालापमसन्तोषं परव्यापारसंकथाम् ।
अतिहासातिरोषो च क्रोधस्थानं वर्जये ।।
भावार्थ― नीच पुरुषों के साथ कभी बात नहीं करती, अपने मन में कभी असन्तोष को नहीं आने देती, पराये कार्यों की चर्चा से सदा बचती हूं। न कभी अधिक हँसती हूं। न रोष करती हूं। क्रोध से बचती हूं।
यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित् ।
सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी ।।
भावार्थ― जब कभी मेरे पति परिवार के किसी भी कार्य से प्रवास पर प्रदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं न फूलों का श्रृङ्गार धारण करती हूं और न अङ्गराग लगाती तथा निरन्तर व्रत व संयम का आचरण करती हूं।
पत्याश्रयोहि मे धर्मों मत: स्त्रीणां सनातन: ।
स देव: सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत् ।।
भावार्थ― मैं इस बात को मानती हूं कि पति के आश्रय में रहना ही स्त्रियों का सदा से चला आया धर्म है। क्योंकि पति ही उसका देवता है। पति ही उसकी गति है। पति के अतिरिक्त कोई दूसरा उसका सहारा नहीं है। ऐसे पतिदेव का कौन स्त्री अप्रिय करेगी।
अहं पतिन् नातिशये नित्यश्ने नाति भूषये ।
नापिश्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ।।
भावार्थ― पतिदेव के सोने से पहले कभी शयन नहीं करती, उसके भोजन करने से पहले कभी भोजन नहीं करती, उसकी इच्छा के विपरित कभी अपने आपको अलंकृत नहीं करती, अपनी सास की कभी निन्दा नहीं करती, अपने को सदा नियन्त्रण में रखती हूं।
प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं सांवशामि च ।
नित्यकाल महं सत्ये ! एतत् संवननं मम ।।
भावार्थ― हे सत्यभामा ! प्रतिदिन मैं सबसे पहले जागती हूं और बाद में सोती हूं। यह पति-भक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण मन्त्र है।
एतज्जानाम्यहं कर्त्तव्यं भर्तु सवननमहत् ।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्या न कामये ।।
भावार्थ― पति को वश में करने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय यही मैं जानती हूं। दुराचारिणी स्त्रियाँ जिन उपायों का आचरण करती हैं, न तो मैं उन्हें करती हूं और न करने की कामना ही करती हूं।
नैतादृशं दैवतमस्ति सत्ये सर्वेषु लोकेषु सदेवकेषु ।
यथा पतिस्तस्यतु सर्वकामा लभ्य: प्रसादात् कुपितश्चहन्यात् ।।
भावार्थ― हे सत्यभामा ! देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में स्त्रियों के लिये अपने पति के समान कोई अन्य देवता नहीं है। पति की प्रसन्नता से नारी की सम्पूर्ण कामना सफल हो सकती हैं और यदि पति कुपति हो जाय तो वह नारी की समस्त आशाओं को नष्ट कर सकता है।
इसीलिये तो मानव धर्मशास्त्र प्रणेता मनु ने कहा―
दाराधीनस्तथा स्वर्ग ।
अर्थात् स्वर्ग (गृहस्थ जीवन की सुख-शान्ति) नारी के आधीन है।


👉👉महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 146 में पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन हुआ है।

महादेव नारद संवाद

नारद जी कहते हैं- ऐसा कहकर महादेव जी स्वयं भी पार्वती जी के मुँह से कुछ सुनने की इच्छा करने लगे। अतएव स्वयं भगवान शिव ने पास ही बैठी हुई अपनी प्रिय एवं अनुकूल भार्या पार्वती से कहा।

श्री महेश्वर बोले- तपोवन में निवास करने वाली देवि! तुम भूत और भविष्य को जानने वाली, धर्म के तत्त्व को समझने वाली और स्वयं भी धर्म का आचरण करने वाली हो। सुन्दर केशों और भौंहों वाली सती-साध्वी हिमवान- कुमारी! तुम कार्यकुशल हो, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह से भी सम्पन्न हो। तुम में अहंता और ममता का सर्वथा अभाव है, अतः वरारोहे! मै! तुमसे एक बात पूछता हूँ। मेरे पूछने पर तुम मुझे मेरे अभीष्ट विषय को बताओ।

ब्रह्मा जी की पत्नी साध्वी हैं। इन्द्र पत्नी शची भी सती हैं। विष्णु की प्यारी पत्नी लक्ष्मी पतिव्रता हैं। इसी प्रकार यम की भार्या धृतिमार्कण्डेय की पत्नी धूमोर्णाकुबेर की स्त्री ऋद्धिवरुण की भार्या गौरीसूर्य की पत्नी सुवर्चलाचन्द्रमा की साध्वी स्त्री रोहिणी, अग्नि की भार्या स्वाहा और कश्यप की पत्नी अदिति- ये सब-की-सब पतिव्रता देवियाँ हैं। देवि! तुमने इन सबका सदा संग किया है और इन सबसे धर्म की बात पूछी है। अतः धर्मवादिनि धर्मज्ञे! मैं तुमसे स्त्री धर्म के विषय में प्रश्न करता हूँ और तुम्हारे मुख से वर्णित नारी धर्म आद्योपान्त सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी सहधर्मिणी हो। तुम्हारा शील-स्वभाव तथा व्रत मेरे समान ही है।

तुम्हारी सारभूत शक्ति भी मुझसे कम नहीं है। तुमने तीव्र तपस्या भी की है। अतः देवि! तुम्हारे द्वारा कहा गया स्त्रीधर्म विशेष गुणवान होगा और लोक में प्रमाणभूत माना जायगा। विशेषतः स्त्रियाँ ही स्त्रियों की परम गति हैं। सुश्रोणि! संसार में भूतल पर यह बात सदा से प्रचलित है। मेरा आधा शरीर तुम्हारे आधे शरीर से निर्मित हुआ है। तुम देवताओं का कार्य सिद्ध करने वाली तथा लोक-संतति का विस्तार करने वाली हो। अनिन्दिते! नारी की कही हुई जो बात होती है, उसे ही स्त्रियों में अधिक महत्त्व दिया जाता है। पुरुषा की कही हुई बात को स्त्रियों में वैसा महत्त्व नहीं दिया जाता। शुभे! तुम्हें सम्पूर्ण सनातन स्त्रीधर्म का भलीभाँति ज्ञान है,अतः अपने धर्म का पूर्णरूप से विस्तारपूर्वक मेरे आगे वर्णन करो।

पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन

उमा ने कहा- भगवन! सर्वभूतेश्वर! भूत, भविष्य और वर्तमानकालस्वरूप सर्वश्रेष्ठ महादेव! आपके प्रभाव से मेरी यह वाणी प्रतिभासम्पन्न हो रही है- अब मैं स्त्रीधर्म का वर्णन कर सकती हूँ। किंतु देवेश्वर! ये नदियाँ सम्पूर्ण तीर्थों के जल से सम्पन्न हो आपके स्नान और आचमन आदि के लिये अथवा आपके चरणों का स्पर्श करने के लिये यहाँ आपके निकट आ रही हैं। मैं इन सबके साथ सलाह करके क्रमशः स्त्री धर्म का वर्णन करूँगी। जो व्यक्ति समर्थ होकर भी अहंकार शून्य हो, वही पुरुष कहलाता है।

भूतनाथ! स्त्री सदा स्त्री का ही अनुसरण करती है। मेरे ऐसा करने से ये श्रेष्ठ सरिताएँ मेरे द्वारा सम्मानित होंगी। ये नदियों में उत्तम पुण्यसलिला सरस्वती विराजमान हैं, जो समुद्र में मिली हुई हैं। ये समस्त सरिताओं में प्रथम (प्रधान) मानी जाती हैं। इनके सिवा विपाशा (व्यास), वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा (चनाव), इरावती (रावी) शतद्रू (शतलज), देविका, सिन्धु कौशिकी (कोसी), गौतमी (गोदावरी)यमुनानर्मदा तथा कावेरी नदी भी यहाँ विद्यमान हैं।[1]

ये समस्त तीर्थों से सेवित तथा सम्पूर्ण सरिताओं में श्रेष्ठ देवनदी गंगा देवी भी, जो आकाश से पृथ्वी पर उतरी हैं, यहाँ विराजमान हैं। ऐसा कहकर देवाधिदेव महादेव जी की पत्नी, धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, धर्मवत्सला,देवमहिषी उमा ने स्त्री धर्म के ज्ञान में निपुण गंगा आदि उन समस्त श्रेष्ठ सरिताओं को मन्द मुस्कान के साथ सम्बोधित करके उनसे स्त्रीधर्म के विषय में प्रश्न किया।

उमा बोलीं- हे समस्त पापों का विनाश करने वाली, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न पुण्यसलिला श्रेष्ठ नदियो! मेरी बात सुनो! भगवान शिव ने यह स्त्रीधर्मसम्बन्धी प्रश्न उपस्थित किया है। उसके विषय में मैं तुम लोगों से सलाह लेकर ही भगवान शंकर से कुछ कहना चाहती हूँ। समुद्रगामिनी सरिताओ! पृथ्वी पर या स्वर्ग में मैं किसी का भी ऐसा कोई विज्ञान नहीं देखती, जिसे उसने अकेले ही- दूसरों का सहयोग लिये बिना ही सिद्ध कर लिया हो, इसीलिये मैं आप लोगों से सादर सलाह लेती हूँ। इस प्रकार उमा ने जब समस्त कल्याणस्वरूपा परम पुण्यमयी श्रेष्ठ सरिताओं के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया, तब उन्होंने इसका उत्तर देने के लिये देवनदी गंगा को सम्मानपूर्वक नियुक्त किया। पवित्र मुसकानवाली गंगा जी अनेक बुद्धियों से बढ़ी-चढ़ी, स्त्री-धर्म को जानने वाली, पाप-भय को दूर करने वाली, पुण्यमयी, बुद्धि और विनय से सम्पन्न, सर्वधर्मविशारद तथा प्रचुर बुद्धि से संयुक्त थीं। उन्होंने गिरिराज कुमारी उमा देवी से मन्द-मन्द मुसकरकाते हुए कहा।

गंगा जी ने कहा- देवि! धर्मपरायणे! अनघे! मैं धन्य हूँ। मुझ पर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है, क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत की सम्माननीया होने पर भी एक तुच्छ नदी को मान्यता प्रदान कर रही हैं। जो सब प्रकार से समर्थ होकर भी दूसरों से पूछता तथा उन्हें सम्मान देता है और जिसके मन में कभी दुष्टता नहीं आती, वह मनुष्य निस्संदेह पण्डित कहलाता है। जो मनुष्य ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न और ऊहापोप में कुशल दूसरे-दूसरे वक्ताओं से अपना संदेह पूछता है, वह आपत्ति में नहीं पड़ता है।

विशेष बुद्धिमान पुरुष सभा में और तरह की बात करता है और अहंकारी मनुष्य और ही तरह की दुर्बलतायुक्त बातें करता है। देवि! तुम दिव्य ज्ञान से सम्पन्न और देवलोक में सर्वश्रेष्ठ हो। दिव्य पुण्यों के साथ तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम्हीं हम सब लोगों को स्त्री-धर्म का उपदेश देने के योग्य हो। तदनन्तर गंगा जी के द्वारा अनेक गुणों का बखान करके पूजित होने पर देव सुन्दरी देवी उमा ने सम्पूर्ण स्त्री-धर्म का पूर्णतः वर्णन किया।

उमा बोलीं- स्त्री-धर्म का स्वरूप मेरी बुद्धि में जैसा प्रतीत होता है, उसे मैं विधिपूर्वक बताऊँगी। तुम विनय और उत्सुकता से युक्त होकर इसे सुनो। विवाह के समय कन्या के भाई-बन्धु पहले ही उसे स्त्री-धर्म का उपदेश कर देते हैं। जबकि वह अग्नि के समीप अपने पति की सहधर्मिणी बनती है। जिसके स्वभाव, बातचीत और आचरण उत्तम हों, जिसको देखने से पति को सुख मिलता हो, जो अपने पति के सिवा दूसरे किसी पुरुष में मन नहीं लगाती हो और स्वामी के समक्ष सदा प्रसन्नमुखी रहती हो, वह स्त्री धर्माचरण करने वाली मानी गयी है। जो साध्वी स्त्री अपने स्वामी को सदा देवतुल्य समझती है, वही धर्मपरायणा और वही धर्म के फल की भागिनी होती है।[2] जो पति की देवता के समान सेवा और परिचर्या करती हैं, पति के सिवा दूसरे किसी से हार्दिक प्रेम नहीं करती, कभी नाराज नहीं होती तथा उत्तम व्रत कापालन करती है, जिसका दर्शन पति को सुखद जान पड़ता है, जो पुत्र के मुख की भाँति स्वामी के मुख की ओर सदा निहारती रहती है तथा जो साध्वी एवं नियमित आहार का सेवन करने वाली है, वह स्त्री धर्मचारिणी कही गयी है। ‘पति और पत्नी को एक साथ रहकर धर्माचरण करना चाहिये।’ इस मंगलमय दाम्पत्य धर्म को सुनकर जो स्त्री धर्मपरायण हो जाती है, वह पति के समान व्रत का पालन करने वाली (पतिव्रता) है।

साध्वी स्त्री सदा अपने पति को देवता के समान समझती है। पति और पत्नी का यह सहधर्म (साथ-साथ रहकर धर्माचरण करना) रूप धर्म परम मंगलमय है। जो अपने हृदय के अनुराग के कारण स्वामी के अधीन रहती है, अपने चित्त को प्रसन्न रखती है, देवता के समान पति की सेवा और परिचर्या करती है, उत्तम व्रता का आश्रय लेती है ओर पति के लिये सुखदायक सुन्दर वेष धारण किये रहती है, जिसका चित्त पति के सिवा और किसी की ओर नहीं जाता, पति के समक्ष प्रसन्नवदन रहने वाली वह स्त्री धर्मचारिणी मानी गयी है। जो स्वामी के कठोर वचन कहने या दोषपूर्ण दृष्टि से देखने पर भी प्रसन्नता से मुसकराती रहती है, वही स्त्री पतिव्रता है। जो सुन्दरी नारी पति के सिवा पुरुष नामधारी चन्द्रमासूर्य और किसी वृक्ष की ओर भी दृष्टि नहीं डालती, वही पातिव्रतधर्म का पालन करने वाली है। जो नारी अपने दरिद्र, रोगी, दीन अथवा रास्ते की थकावट से खिन्न हुए पति की पुत्र के समान सेवा करती है, वह धर्मफल की भागिनी होती है। जो स्त्री अपने हृदय को शुद्ध रखती, गृहकार्य करने में कुशल और पुत्रवती होती, पति से प्रेम करती और पति को ही अपने प्राण समझती है, वही धर्मफल पाने की अधिकारिणी होती है।

जो सदा प्रसन्नचित्त से पति की सेवा-सुश्रूषा में लगी रहती है, पति के ऊपर पूर्ण विश्वास रखती और उसके साथ विनयपूर्ण बर्ताव करती है, वही नारी धर्म के श्रेष्ठ फल की भागिनी होती है। जिसके हृदय में पति के लिये जैसी चाह होती है, वैसी काम, भोग और सुख के लिये भी नहीं होती। वह स्त्री पातिव्रत धर्म की भागिनी होती है। जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठने में रुचि रखती है, घरों के काम-काज में योग देती है, घर को झाड़-बुहारकर साफ रखती है और गोबर से लीप-पोतकर पवित्र बनाये रखती है, जो पति के साथ रहकर प्रतिदिन अग्निहोत्र करती है, देवताओं को पुष्प और बलि अर्पण करती है तथा देवता, अतिथि और पोष्यवर्ग को भोजन से तृप्त करके न्याय और विधि के अनुसार शेष अन्न का स्वयं भोजन करती है तथा घर के लोगों को हृष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट रखती है, ऐसी ही नारी सती-धर्म के फल से युक्त होती है। जो उत्तम गुणों से युक्त होकर सदा सास-ससुर के चरणों की सेवा में संलग्न रहती है तथा माता-पिता के प्रति भी सदा उत्तम भक्तिभाव रखती है, वह स्त्री तपस्यारूपी धन से सम्पन्न मानी गयी है। जो नारी ब्राह्मणों, दुर्बलों, अनाथों, दीनों, अन्धों और कृपणों (कंगालों) का अन्न के द्वारा भरण-पोषण करती है, वह पातिव्रत धर्म के पालन का फल पाती है।[3]

जो प्रतिदिन शीघ्रतापूर्वक मर्यादा का बोध कराने वाली बुद्धि के द्वारा दुष्कर व्रत का आचरण करती है, पति में ही मन लगाती है और निरन्तर पति के हित-साधन में लगी रहती है, उसे पतिव्रत-धर्म के पालन का सुख प्राप्त होता है। जो साध्वी नारी पतिव्रत-धर्म का पालन करती हुई पति की सेवा में लगी रहती है, उसका यह कार्य महान पुण्य, बड़ी भारी तपस्या और सनातन स्वर्ग का साधन है। पति ही नारियों का देवता, पति ही बन्धु-बान्धव और पति ही उनकी गति है।

नारी के लिये पति के समान न दूसरा कोई सहारा है और न दूसरा कोई देवता। एक ओर पति की प्रसन्नता और दूसरी ओर स्वर्ग- ये दोनों नारी की दृष्टि में समान हो सकते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मेरे प्राणनाथ महेश्वर! मैं तो आपको अप्रसन्न रखकर स्वर्ग को नहीं चाहती। पति दरिद्र हो जाय, किसी रोग से घिर जाय, आपत्ति में फँस जाय, शत्रुओं के बीच में पड़ जाय अथवा ब्राह्मण के शाप से कष्ट पा रहा हो, उस अवस्था में वह न करने योग्य कार्य, अधर्म अथवा प्राणत्याग की भी आज्ञा दे दे, तो उसे आपत्तिकाल का धर्म समझकर निःशंकभाव से तुरंत पूरा करना चाहिये।

देव! आपकी आज्ञा से मैंने यह स्त्री धर्म का वर्णन किया है। जो नारी ऊपर बताये अनुसार अपना जीवन बनाती है, वह पातिव्रत-धर्म के फल की भागिनी होती है। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिरपार्वती जी के द्वारा इस प्रकार नारीधर्म का वर्णन सुनकर देवाधिदेव महादेव जी ने गिरिराजकुमारी का बड़ा आदर किया और वहाँ समस्त अनुचरों के साथ आये हुए लोगों को जाने की आज्ञा दी। तब समस्त भूतगण, सरिताएँ, गन्धर्व और अप्सराएँ भगवान शंकर को सिर से प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को चली गयीं।




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