Monday, November 29, 2021

हिन्दु समाज के विवाह संस्कार में पति-पत्नी की प्रतिज्ञाएँ।

हिन्दु समाज के विवाह संस्कार में पति-पत्नी की प्रतिज्ञाएँ।
किसी भी महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण के साथ शपथ ग्रहण समारोह भी अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। हिन्दु समाज के विवाह संस्कार में कन्यादान, पाणिग्रहण एवं ग्रन्थि-बन्धन हो जाने के साथ वर-वधू द्वारा और समाज द्वारा दाम्पत्य सूत्र में बँधने की स्वीकारोक्ति हो जाती है। इसके पश्चात् अग्नि एवं देव-शक्तियों की साक्षी में दोनों को एक संयुक्त इकाई के रूप में ढालने का क्रम चलता है। इस बीच उन्हें अपने कर्त्तव्यधर्म का महत्त्व भली प्रकार समझना और उसके पालन का संकल्प लेना चाहिए। इस दिशा में पहला उत्तरदायित्व वर का होता है। अस्तु, पहले वर तथा बाद में वधू को प्रतिज्ञाएँ करायीं जाती हैं।

क्रिया और भावना- वर-वधू स्वयं प्रतिज्ञाएँ पढ़ें, यदि सम्भव न हो, तो आचार्य एक-एक करके ये प्रतिज्ञाएँ व्याख्या सहित समझाएँ।

वर की प्रतिज्ञाएँ

धर्मपत्नीं मिलित्वैव ह्येकं जीवनामावयोः। 
अद्यारम्भ यतो मे त्वमर्द्धांगिनीति घोषिता।।१॥ 

आज से धर्मपत्नी को अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ। अपने शरीर के अंगों की तरह धर्मपत्नी का ध्यान रखूँगा। 

स्वीकरोमि सुखेन त्वां गृहलक्ष्मीमहन्ततः। 
मन्त्रयित्वा विधास्यामि सुकार्याणि त्वया सह॥२॥ 

मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के सत्कार्यों को तुम्हारे साथ परामर्श करके करूँगा। 

रूप-स्वास्थ्य-स्वभावान्तु गुणदोषादीन् सर्वत:। रोगाज्ञान-विकारांश्च तव विस्मृत्य चेतसः॥३॥
 
मैं तुम्हारे रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुणदोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा। 

सहचरो भविष्यामि पूर्णस्नेहः प्रदास्यते। 
सत्यता मम निष्ठा च यस्याधारं भविष्यति॥४॥ 

पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन मेरी पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा। 

यथा पवित्रचित्तेन पातिव्रत्य त्वया धृतम्। 
तथैव पालयिष्यामि पत्नीव्रतमहं ध्रुवम्॥५॥ 

जिस प्रकार तुमने पवित्र चित्त से पतिव्रत धर्म को धारण किया है, उसी दृढ़ता से स्वयं पत्नीव्रत धर्म का पालन करूँगा। 

गृहस्यार्थव्यवस्थायां मन्त्रयित्वा त्वया सह। 
सञ्चालनं करिष्यामि गृहस्थोचित-जीवनम्॥६॥ 

गृह की अर्थव्यवस्था में तुम्हारे साथ सलाह करके गृहस्थोचित जीवन का सञ्चालन करूँगा। अर्थात् आय और व्यय का क्रम तुम्हारी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचर्या अपनाऊँगा। 

समृद्धि-सुख-शान्तीनां रक्षणाय तथा तव। 
व्यवस्थां वै करिष्यामि स्वशक्तिवैभवादिभि:॥७॥ 

तुम्हारी सुख-शान्ति तथा समृद्धि-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति, वैभव और साधन आदि को लगाकर व्यवस्था करता रहूँगा। 

यत्नशीलो भविष्यामि सन्मार्गं सेवितुं सदा। 
आवयोर्मतभेदांश्च दोषान्संशोध्य शान्तितः॥८॥ 

अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा-पूरा प्रयतन करूँगा। हम दोनों के मतभेदों और दोषों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा। 

भवत्यामसमर्थायां विमुखायां च कर्मणि।
विश्वासं सहयोगं च मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥९॥ 

आप के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी तुम मेरे विश्वास और सहयोग को  सदा प्राप्त करती रहोगी।

कन्या की प्रतिज्ञाएँ

स्वजीवनं मेलयित्वा भवतः खलु जीवने। 
भूत्वा चार्धाङ्गिनी नित्यं निवत्स्यामि गृहे सदा॥१॥ 

अपने जीवन को आपके के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में सदा, सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी। 

‍शिष्टतापूवर्कं सर्वै: परिवारजनैः सह। 
औदार्येण विधास्यामि व्यवहारं च कोमलम्॥२॥ 

पति के परिवार के सभी परिजनों के साथ शिष्टता बरतूँगी। उनकी उदारतापूवर्क सेवा करूँगी और मधुर व्यवहार करूँगी। 

त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि गृहकार्ये परिश्रमम्। 
भतुर्हर्षं हि ज्ञास्यामि स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥३॥ 

आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूवर्क गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार अपनी प्रसन्नता से पति के हर्ष के लिए समुचित योगदान करूँगी। 

श्रद्धया पालयिष्यामि धर्मं पातिव्रतं परम्।
सर्वदैवानुकूल्येन पत्युरादेशपालिका॥४॥ 

श्रद्धापूर्वक पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के आदेश का सदैव उनके अनूकूल रहकर पालन करूँगी। 

सुश्रूषणपरा स्वच्छा मधुर-प्रियभाषिणी। 
प्रतिजाने भविष्यामि सततं सुखदायिनी॥५॥ 

मैं प्रतिज्ञापूर्वक सेवापरायणा, स्वच्छ तथा मधुर और प्रियभाषणी का अभ्यास बनाये रखूँगी। निरन्तर सुख देने वाली बनकर रहूँगी। ‍

मितव्ययेन गाहर्स्थ्य-सञ्चालने हि नित्यदा। 
प्रयतिष्ये च सोत्साहं तवाहमनुगामिनी॥६॥ 

गृहस्थी का सञ्चालन करने के लिए सदा मितव्ययी बनकर व्यर्थ व्यय न करके  आचरण करूँगी। मैं उत्साहपूर्वक आपके अनुशासन का पालन का प्रयत्न करूँगी। ‍

देवस्वरूपो नारीणां भर्त्ता भवति मानवः। 
मत्वेति त्वां भजिष्यामि नियता जीवनावधिम्॥७॥ 

नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन की सम्पूर्ण अवधि में भर सक्रिय रहूँगी। 

पूज्यास्तव पितरो ये श्रद्धया परमा हि मे।
सेवया तोषयिष्यामि तान्सदा विनयेन च॥८॥ 

जो आपके पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें परम श्रद्धा और सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी। 

विकासाय सुसंस्कारैः सूत्रैः सद्भाववर्द्धिभि:।
परिवारसदस्यानां कौशलं विकसाम्यहम्॥९॥ 

परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी।

Friday, October 29, 2021

आवेदन पत्र 10

श्रीमन्‍त: प्राचार्यमहोदया:

शासकीय उच्च विद्यालय: लछवारः

थावें, बिहार:


विषय:- अवकाशार्थं प्रार्थनापत्रम् ।

श्रीमन्‍त:

सेवायां सविनयं निवेदनम् अस्ति यद अहम् अघ अकस्‍माद् ज्‍वरपीडित: अस्मि।  अत एव विद्यालयम् आगन्‍तु सर्वथा असमर्थ: अस्मि। कृपया 29-10-2021 दिनांकात् 2-11-2021 दिनांकपर्यन्‍तं पच्‍चदिवसानाम् अवकाशं दत्वा उपकुर्वन्तु इति। सविनियं प्रार्थयामि।

   भवदीय: शिष्‍या:

      (अ, ब, स)

कक्षा दशमी ‘ब” वर्ग:

दिनांक: (28-10-2021)                                 

Friday, July 16, 2021

ब्राह्मणत्वकी_दुर्लभताके_सन्दर्भमें_मातंगोपाख्यान

#ब्राह्मणत्वकी_दुर्लभताके_सन्दर्भमें_मातंगोपाख्यान*

(श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व/ दानधर्मपर्व  / इन्द्रमतङ्गसंवाद  अध्यायः २७ ॥ 
युधिष्ठिर प्रश्न

युधिष्ठिरने पूछा—धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश्वर ! आप बुद्धि, विद्या, सदाचार, शील और विभिन्न प्रकार के सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न हैं । आपकी अवस्था भी सबसे बड़ी है। आप बुद्धि, प्रज्ञा और तपस्या से विशिष्ट हैं; अतः मैं आपसे धर्म की बात पूछता हूँ । संसारमें आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिससे सब प्रकारके प्रश्न पूछे जा सकें ॥१-२॥ नृपश्रेष्ठ ! यदि क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र ब्राह्मणत्व प्राप्त करना चाहे तो वह किस उपाय से उसे पा सकता है ? यह मुझे बताइये ॥ ३ ॥ पितामह ! यदि कोई ब्राह्मणत्व पाने की इच्छा करे तो वह उसे तपस्या, महान् कर्म अथवा वेदों के स्वाध्याय आदि किस उपाय से प्राप्त कर सकता है ? ॥ ४ ॥ 

*पितामह उत्तर*

भीष्म जी ने कहा-तात युधिष्ठिर ! क्षत्रिय आदि तीन वर्णो के लिये ब्राह्मणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि यह समस्त प्राणियों के लिये सर्वोत्तम स्थान है ॥ ५ ॥ तात ! बहुत-सी योनियों में बारंबार जन्म लेते-लेते कभी किसी समय संसारी जीव ब्राह्मण की योनि में जन्म लेता है॥६॥ युधिष्ठिर ! इस विषयमें जानकार मनुष्य मतङ्ग और गर्दभी के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं ॥ ७ ॥ तात ! पूर्वकालमें किसी ब्राह्मण के एक मतङ्ग नामक पुत्र हुआ, जो (अन्य वर्णके पुरुष से उत्पन्न होने पर भी ब्राह्मणोचित संस्कारों के प्रभाव से) उनके समान वर्ण का ही समझा जाता था, वह समस्त सद्गुणों से सम्पन्न था ॥ ८ ॥ शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्तीकुमार ! एक दिन अपने पिता के भेजने पर मतङ्ग किसी यजमान का यज्ञ कराने के लिये गधौ से जुते हुए शीघ्रगामी रथपर बैठकर चला ॥ ९ ॥ राजन् ! रथ का बोझ ढोते हुए एक छोटी अवस्था के गधे को उसकी माता के निकट ही मतङ्ग ने बारंबार चाबुक से मारकर उसकी नाक में घाव कर दिया ॥ १० ॥पुत्र का भला चाहने वाली गधी उस गधे की नाक में दुस्सह घाव हुआ देख उसे समझाती हुई बोली-बेटा ! शोक न करो । तुम्हारे ऊपर ब्राह्मण नहीं, चाण्डाल सवार है ॥ ब्राह्मण में इतनी क्रूरता नहीं होती। ब्राह्मण सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाला बताया जाता है। जो समस्त प्राणियों को उपदेश देनेवाला आचार्य है, वह कैसे किसी पर करेगा ? ।। १२ ।। यह स्वभाव से ही पापात्मा है; इसीलिये दूसरे के बच्चे पर दया नहीं करता है। यह अपने इस कुकृत्य द्वारा अपनी चाण्डाल योनि का ही सम्मान बढ़ा रहा है। जातिगत स्वभाव ह्री मनोभाव पर नियन्त्रण करता है ॥ १३ ॥ गधी का यह दारुण वचन सुनकर मतङ्ग तुरंत रथ से उतर पड़ा और गधी से इस प्रकार बोला-॥ १४ ॥ “कल्याणमयी गर्दभी ! बता, मेरी माता किससे कलङ्कित हुई है ? तू मुझे चाण्डाल कैसे समझती है ? शीघ्र मुझसे सारी बात बता ॥ १५ ॥ गधी ! तुझे कैसे मालूम हुआ कि मैं चाण्डाल हूँ । किस कर्म से मेरा ब्राह्मणत्व नष्ट हुआ है ? तू बड़ी समझदार है; अतः ये सारी बातें मुझे ठीक-ठीक बता ॥ १६ ॥ गदही बोली-मतङ्ग ! तू यौवन के मद से मतवाली हुई एक ब्राह्मणी के पेट से शूद्रजातीय नाई द्वारा पैदा किया गया, इसीलिये तू चाण्डाल है और तेरी माता के इसी व्यभिचार कर्म से तेरा ब्राह्मणत्व नष्ट हो गया है ॥ १७ ॥ गदहीके ऐसा कहने पर मतङ्ग फिर अपने घर को लौट गया। उसे लौटकर आया देख पिता ने इस प्रकार कहा-॥ १८॥ बेटा ! मैंने तो तुम्हें यज्ञ कराने के भारी कार्य पर लगा रखा था, फिर तुम लौट कैसे आये ? तुम कुशल से तो हो न ? ।। १९ ।। मतङ्ग ने कहा-पिताजी ! जो चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुआ है अथवा उससे भी नीच योनि में पैदा हुआ है, वह कैसे सकुशल रह सकता है । जिसे ऐसी माता मिली हो, उसे कहाँ से कुशल प्राप्त होगी ॥ २० ॥ पिताजी ! यह मानवेतर योनि में उत्पन्न हुई गदही मुझे ब्राह्मणी के गर्भ से शूद्र द्वारा पैदा हुआ बता रही है; इसलिये अब मैं महान् तप में लग जाऊँगा ॥ २१ ॥ पिता से ऐसा कहकर मतङ्ग तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके घर से निकल पड़ा और एक महान् वन में जाकर वहाँ बडी भारी तपस्या करने लगा ॥ २२ ॥ तपस्या में संलग्न हो मतङ्ग ने देवताओं को संतप्त कर दिया । वह भलीभाँति तपस्या करके सुख से ही ब्राह्मणत्वरूपी अभीष्ट स्थान को प्राप्त करना चाहता था ॥ २३ ॥ उसे इस प्रकार तपस्या में संलग्न देख इन्द्र ने कहा -- मतङ्ग ! तुम क्यों मानवीय भोगों का परित्याग करके तपस्या कर रहे हो ? ॥ २४ ॥ मैं तुम्हें वर देता हूँ । तुम जो चाहते हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक माँग लो । तुम्हारे हृदय में जो कुछ पाने की अभिलाषा है, वह् सब शीघ्र बताओ’ ।। २५ ।। मतङ्ग ने कहा-मैंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने की इच्छा से यह तपस्या प्रारम्भ की है। उसे पा करके ही यहाँ से जाऊँ, मैं यही वर चाह्ता हूँ ॥ २६ ॥ भीष्म जी कहते हैं-भारत ! मतङ्ग की यह बात सुनकर इन्द्रदेव ने कहा–“मतङ्ग ! तुम जो ब्राह्मणत्व माँग रहे हो, यह तुम्हारे लिये दुर्लभ है ॥ २७ ॥ जिनका अन्त:करण शुद्ध नहीं है अथवा जो पुण्यात्मा नहीं हैं, उनके लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति असम्भव है। दुर्बुद्धे ! तुम ब्राह्मणत्व माँगते-माँगते मर जाओगे तो भी वह नहीं मिलेगा; अतः इस दुराग्रह से जितना शीघ्र सम्भव हो निवृत्त हो जाओ ॥ २८ ॥ सम्पूर्ण भूतों में श्रेष्ठता ही ब्राह्मणत्व है और यही तुम्हारा अभीष्ट प्रयोजन है, परंतु यह तप उस प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकता; अतः इस श्रेष्ठ पद की अभिलाषा रखते हुए तुम शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ॥ २९ ॥ देवताओं, असुरों और मनुष्यों में भी जो परम पवित्र माना गया है, उस ब्राह्मणत्व को चाण्डालयोनि में उत्पन्न हुआ मनुष्य किसी तरह नहीं पा सकता ॥ ३० ॥
इति श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वण दानधर्मपर्व इन्द्रमतङ्गसंवादे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

भीष्मजी कहते हैं-राजन्! इन्द्र के ऐसा कहने पर मतङ्ग का मन और भी दृढ़ हो गया । वह संयमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने लगा। अपने धैर्य से च्युत न होनेवाला मतङ्ग सौ वर्षों तक एक पैर से खड़ा रहा ॥ १ ॥ तब महायशस्वी इन्द्र ने पुनः आकर उससे कहा- तात ! ब्राह्मणत्व दुर्लभ है । उसे माँगने पर भी पा न सकोगे ॥ २ ॥ मतङ्ग ! तुम इस उत्तम स्थान को माँगते-मोंगते मर जाओगे । बेटा ! दु:साहस न करो । तुम्हारे लिये यह धर्म का मार्ग नहीं है ॥ ३ ॥ दुर्मते ! तुम इस जीवन में ब्राह्मणत्व नहीं पा सकते । उस अप्राप्य वस्तु के लिये प्रार्थना करते-करते शीघ्र ही काल के गाल में चले जाओगे ॥ ४ ॥ मतङ्ग ! मैं तुम्हें बार-बार मना करता हूँ तो भी उस उत्कृष्ट स्थान को तुम तपस्या द्वारा प्राप्त करने की अभिलाषा करते ही जाते हो । ऐसा करने से सर्वथा तुम्हारी सत्ता मिट जायगी ॥ ५ ॥ पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए सभी प्राणी यदि कभी मनुष्ययोनि में जाते हैं तो पहले पुल्कस या चाण्डाल के रूप में जन्म लेते हैं-इसमें संशय नहीं है ॥ ६ ॥ मतङ्ग ! पुल्कस या जो कोई भी पापयोनि पुरुष यहाँ दिखायी देता है, वह सुदीर्घकाल तक अपनी उसी योनि में चक्कर लगाता रहता है ॥ ७ ॥ तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर वह चाण्डाल या पुल्कस शूद्र योनि में जन्म लेता है और उसमें भी अनेक जन्मों तक चक्कर लगाता रहता है ॥ ८ ॥ तत्पश्चात् तीस गुना समय बीतने पर वह वैश्य योनि में आता है और चिरकाल तक उसी में चक्कर काटता रहता है ॥ ९ ॥ इसके बाद साठ  गुना समय बीतने पर वह क्षत्रिय की योनि में जन्म लेता है। फिर उससे भी साठ गुना समय बीतने पर वह गिरे हुए ब्राह्मण के घर में जन्म लेता है ॥ १० ॥दीर्घकाल तक ब्राह्मणाधम रहकर जब उसकी अवस्था परिवर्तित होती है, तब वह अस्त्र-शस्त्रों से जीविका चलाने वाले ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेता है॥ ११ ॥ फिर चिरकाल तक वह उसी योनि में पड़ा रहता है। तदनन्तर तीन सौ वर्ष का समय व्यतीत होने पर वह गायत्री  मात्र का जप करने वाले ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेता है ॥ १२ ॥ उस जन्म को पाकर वह चिरकाल तक उसी योनि में जन्मता-मरता रहता है। फिर चार सौ वर्षों का समय व्यतीत होनेपर वह श्रोत्रिय ( वेदवेत्ता ) ब्राह्मण के कुल में जन्म लेता है और उसी कुल में चिरकाल तक उसका आवागमन होता रहता है ॥ १३ ॥ बेटा ! इस प्रकार शोक-हर्ष, राग-द्वेष, अतिमान और अतिवाद आदि दोषों का अधम द्विजके भीतर प्रवेश होता है॥ १४ ॥ यदि वह इन शत्रुओंको जीत लेता है तो सद्गति को प्राप्त होता है और यदि वे शत्रु ही उसे जीत लेते हैं तो ताड़ के वृक्षके ऊपर से गिरने वाले फल की भाँति वह नीचे गिरा दिया जाता है ॥ १५ ॥ मतङ्ग ! यही सोचकर मैंने तुमसे कहा था कि तुम कोई दूसरी अभीष्ट वस्तु माँग लो; क्योंकि ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १६ ॥ 

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि  इन्द्रमतङ्गसंवादे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

भीष्म जी कहते हैं-युधिष्ठिर ! इन्द्र के ऐसा कहने पर मतङ्ग अपने मन को और भी दृढ़ और संयमशील बनाकर एक हजार वर्षों तक एक पैर से ध्यान लगाये खड़ा रहा ॥ १ ॥ जब एक हजार वर्ष पूरे होने में कुछ ही काल बाकी था, उस समय बल और वृत्रासुर के शत्रु देवराज इन्द्र फिर मतङ्ग को देखने के लिये आये और पुनः उससे उन्होंने पहले की कही डुई बात ही दुहरायी ॥ २ ॥ मतङ्ग ने कहा-देवराज ! मैंने ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित हो एक हजार वर्षों तक एक पैर से खड़ा होकर तप किया है। फिर मुझे ब्राह्मणत्व कैसे नहीं प्राप्त हो सकता?॥ इन्द्रने कहा--मतङ्ग ! चाण्डाल की योनि में जन्म लेने वाले को किसी तरह ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता; इसलिये तुम दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु माँग लो  जिससे तुम्हारा यह _काम व्यर्थ न जाय ।। ४ ।। उनके ऐसा कहने पर मतङ्ग अत्यन्त शोकमग्न हो गया में जाकर अंगूठे के बलपर सौ वर्षों तक खड़ा रहा ॥ ५ ॥ उसने दुर्धर योग का अनुष्ठान किया । उसका सारा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया । नस-नाड़ियाँ उघड़ आयीं । धर्मात्मा मतङ्ग का शरीर चमड़े से ढकी हुई हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया । उस अवस्था में अपने को न संभाल सकने के कारण वह गिर पड़ा, यह बात हमारे सुनने में आयी है॥६॥ उसे गिरते देख सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहनेवाले वर देने में समर्थ इन्द्र ने दौड़कर पकड़ लिया ॥ ७ ॥ इन्द्र ने कहा-मतङ्ग ! इस जन्म में तुम्हारे लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति असम्भव दिखायी देती है । ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है; साथ ही वह कामक्रोध आदि लुटेरों से घिरा हुआ है ॥ ८ ॥ जो ब्राह्मण का आदर करता है, वह सुख पाता है और जो अनादर करता है, वह दु:ख पाता है । ब्राह्मण समस्त प्राणियों को योगक्षेम की प्राप्ति कराने वाला है ॥ ९ ॥ मतङ्ग ! ब्राह्मणों के तृप्त होने से ही देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। ब्राह्मण जो-जो जिस प्रकार करना चाहता है, अपने तप के प्रभाव से वैसा ही कर सकता है। तात ! जीव इस जगत् के भीतर अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ बारंबार जन्म लेता है । इसी तरह जन्म लेते-लेते कभी किसी समय में वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है ॥ ११ ॥ अतः जिनका मन अपने वश में नहीं है, ऐसे लोगों के लिये सर्वथा दुष्प्राप्य ब्राह्मणत्व को पाने का आग्रह छोड़कर तुम कोई दूसरा ही वर माँगो । यह वर तो तुम्हारे लिये दुर्लभ ही है ॥ १२ ॥ मतङ्ग ने कहा-देवराज ! मैं तो यों ही दुःख से आतुर हो रहा हूँ, फिर तुम भी क्यों मुझे पीड़ा दे रहे हो ? मुझ मरे हुए को क्यों मारते हो ? मैं तो तुम्हारे लिये शोक करता हूँ, जो जन्म से ही ब्राह्मणत्व को पाकर भी तुम उसे अपना नहीं रहे हो ॥ १३ ॥शतक्रतो । यदि क्षत्रिय आादि तीन वर्णो के लिये ब्राह्मणत्व दुर्लभ है तो उस परम दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर भी मनुष्य ब्राह्मणोचित शम-दम का अनुष्ठान नहीं करते हैं । यह कितने दुःख की बात है ! ॥ १४ ॥ वह पापियों से भी बढ़कर अत्यन्त पापी और उनमें भी अधम ही है, जो दुर्लभ धन की भाँति ब्राह्मणत्व को पाकर भी उसके महत्त्व को नहीं समझता है॥ १५ ॥ पहले तो ब्राह्मणत्व का प्राप्त होना ही कठिन है । यदि वह प्राप्त हो जाय तो उसका पालन करना और भी कठिन हो जाता है; किंतु बहुत से मनुष्य इस दुर्लभ वस्तु को पाकर भी तदनुकूल आचरण नहीं करते हैं ॥ १६॥ शक्र ! मैं एकान्त में आनन्दपूर्वक रहता हूँ तथा द्वन्द्वों और परिग्रहों से दूर हूँ। अहिंसा और दम का पालन किया करता हूँ। ऐसी दशा में मैं ब्राह्मणत्व पाने योग्य क्यों नहीं हूँ ? ॥ पुरंदर ! मैं धर्मज्ञ होकर भी केवल माता के दोष से इस अवस्था में आ पहुँचा हूँ। यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है ? प्रभो ! निश्चय ही पुरुषार्थ के द्वारा दैव का उल्लङ्घन्  नहीं किया जा सकता; क्योंकि मैं जिसके लिये ऐसा प्रयत्नशील हूँ, उस ब्राह्मणत्व को नहीं उपलब्ध कर पाता हूँ । धर्मज्ञ देवराज ! यदि ऐसी अवस्था में मैं आपका कृपापात्र हूँ अथवा यदि मेरा कुछ भी पुण्य शेष हो तो आप मुझे वर प्रदान कीजिये ॥ २० ॥ 
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! तब बल और वृत्रासुर को मारने वाले इन्द्र ने मतङ्क से कहा-तुम मुझसे वर माँगो। महेन्द्र से प्रेरित होकर मतङ्ग ने इस प्रकार कहा-॥२१ ।। देव पुरंदर ! आप ऐसी कृपा करें, जिससे मैं इच्छानुसार विचरने वाला तथा अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाला आकाशचारी देवता होऊँ । ब्राह्मण और क्षत्रियों के विरोध से रहित हो मैं सर्वत्र पूजा एवं सत्कार प्राप्त करूँ तथा मेरी अक्षय कीर्ति का विस्तार हो । मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर आपकी प्रसन्नता चाहता हूँ । आप मेरी इस प्रार्थना सफल बनाईये। इन्द्र ने कहा- वत्स ! तुम स्त्रियों के पूजनीय होओगे । । छन्दोदेव के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी और तीनों लोकों में  तुम्हारी अनुपम कीर्ति का विस्तार होगा ॥ २४ ॥ इस प्रकार उसे वर देकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। मतङ्ग भी अपने प्राणों  का परित्याग करके उत्तम स्थान ( ब्रह्म लोक) को प्राप्त हुआ ॥ २५ ॥ भारत ! इस तरह यह ब्राह्मणत्व परम उत्तम स्थान है। जैसा कि इन्द्र का कथन है, उसके अनुसार यह इस जीवन में दूसरे वर्ण के लोगों के लिये दुर्लभ है ॥ २६ ॥ 

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि इन्द्रमतङ्गसंवादे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

Friday, June 25, 2021

सत्यनारायण व्रत कथा

प्रथम अध्याय 
सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा सन्दर्भ यह है कि पुराकालमें शौनकादिऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुँचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरण का अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।

कथा का प्रारम्भ सूत जी द्वारा कथा सुनाने से होता है। नारद जी भगवान श्रीविष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउँगा।

नारद जी बोले - भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूँ। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा - हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूँ, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूँ। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा - यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और सन्तान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूँ का चूर्ण अथवा गेहूँ के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

दूसरा अध्याय 
श्रीसूतजी बोले - हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भली भाँति विस्तारपूर्वक कहूँगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा - हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

ब्राह्मण बोला - प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूँ और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूँ। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध ब्राह्मण बोला - हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूँगा’ - यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले - मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहाँ आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला - प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा - यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूँगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहाँ धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।

इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूँ का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

तीसरा अध्याय 
श्री सूतजी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहाँ आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।

साधु ने कहा - राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूँ।

राजा बोले - हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूँ।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा - राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूँगा। मुझे भी सन्तति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही सन्तति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से सन्तति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा - ‘जब मुझे सन्तति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूँगा’ - इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा - आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला - ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भाँति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ - ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ सन्तुष्ट चित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।

उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ - यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहाँ आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहाँ राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बाँधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले - ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बाँधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।

माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा - पुत्री ! रात में तू कहाँ रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा - माँ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की - ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायें।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः सन्तुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा - ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा - ‘दोनों बन्दी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले - ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।

राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को सन्तुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा - ‘साधो! अब आप अपने घर को जायें।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ - ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

चौथा अध्याय 
श्रीसूत जी बोले - साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई - ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हँसते हुए कहा - ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ - ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा - ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहाँ दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा - आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें - ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा - ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा - ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ - ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा - ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा - यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा - या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूँगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा - ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा - ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र सन्तुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

पाँचवाँ अध्याय 
श्रीसूत जी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं - जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है - यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा पूर्ण हुई 
बोलो श्री सत्यनारायण भगवान की जय 

Friday, May 28, 2021

#भगवान्_का_बुद्धावतार_और_कितने_बुद्ध? #क्या_नाम?

#भगवान्_का_बुद्धावतार_और_कितने_बुद्ध? #क्या_नाम?

बुद्ध को लेकर समाज और विद्वानों के बीच अनेकों मत व धारणाएं प्रचलित हैं, यथा-

१) बुद्ध भगवान् विष्णु के अवतार हैं।

२) बुद्ध किसी के अवतार नहीं हैं, स्वतन्त्र हैं।

३) गौतम ही एकमात्र बुद्ध हैं और उन्होंने ही बौद्ध धर्म चलाया।

४) गौतम से पूर्ववर्ती अजिनपुत्र बुद्ध भी थे और वही भगवान् विष्णु के अवतार हैं।

५) गौतम बुद्ध, अजिनपुत्र महात्मा बुद्ध, ये सभी भगवान् विष्णु के ही अवतार हैं एवं बुद्ध अनेकों हुए हैं और आगे भी होंगे।

बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है, जागृत होना, सतर्क होना तथा जितेन्द्रिय होना | वस्तुतः बुद्ध एक व्यक्तिविशेष का परिचायक न होकर ज्ञान की उच्चतम स्थितिविशेष का परिचायक है | वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापक रूप में प्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए प्रसिद है |

भारतीय संस्कृति अथवा ज्ञान परंपरा में आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन की व्यवस्था हमारे यहाँ की गयी है, क्योंकि बिना अन्धकार के प्रकाश महत्ता नहीं प्रतिपादित हो सकती और अज्ञान के बिना ज्ञान का महत्त्व कैसे प्रतिपादित होगा ? आस्तिक दर्शन में जैसे पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन का नाम आता है उसी प्रकार नास्तिक दर्शन में बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शन का स्थान है|

पुराणों के अनुसार युगाधारित अवतारों में जैसे वेदव्यास का कार्य है, वेदों का विभाजन, पुराणों का संकलन, तथा ग्रंथों का संरक्षण करना वैसे ही बुद्ध का कार्य है, समाज में जो लोग धर्म के नाम पर पाखंड तथा पशुहिंसा आदि करें, ऐसी आसुरी सम्पदा से युक्त पुरुषों को मायामय उपदेश के द्वारा सनातन से विमुख करना, जैसे किसी फोड़े को शरीर से काट कर इसीलिए अलग कर दिया जाता है कि वह अन्य अंगों को क्षति न पहुंचा सके |

भारतीय ज्ञान मनीषा में अनेकों बुद्धों का आगमन हो चुका है, तथा अनेकों बुद्ध आयेंगे| बुद्ध एक नहीं हुए हैं | प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ, कुशल, मैत्रेय, गौतम, कश्यप, शक्र, अर्यमा, शाक्यसिंह, क्रतुभुक, कृती, सुखी, शशांक, निष्णात, सत्व, शिक्षित, सर्वग्य, सुनत, रुरु, मारजित्, बुद्ध, प्रबुद्ध आदि कई बुद्धों एवं बोधिसत्वों का वर्णन विभिन्न प्राचीन गर्न्थों  उपलब्ध होता है |

बौद्धावतार का क्या कारण है तथा उनका वर्णन कहां कहां मिलता है-

मिश्रदेशोद्भवाम्लेच्छाः काश्यपेनैव शासिताः।....

शिखासूत्रं समाधाय पठित्वा वेदमुत्तमम् |

यज्ञैश्च पूजयामासुर्देवदेवं शचीपतिम्॥....

अहं लोकहितार्थाय जनिष्यामि कलौयुगे।.....

कीकटे देशमागत्य ते सुरा जज्ञिरे क्रमात् |

वेदनिन्दां पुरस्कृत्य बौद्धशास्त्रमचीकरन् ॥....

वेदनिन्दाप्रभावेण ते सुराः कुष्ठिनोऽभवन् ।......

विष्णुदेवमुपागम्य तुष्टुवुर्बौद्धरूपिणम् ।

हरिर्योगबलेनैव तेषां कुष्ठमनाशयत्॥

(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, खण्ड - ०४, अध्याय - २०)

कलियुग के आने पर मिस्र देश में उत्पन्न कश्यप गोत्रीय म्लेच्छों ने शिखा रख कर तथा जनेऊ धारण करके स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर दिया तथा स्वयं भी वेदपाठ करते हुए देवताओं का पूजन करने तथा कराने लगे | इससे त्रस्त होकर देवताओं ने देवराज इंद्र के समक्ष जाकर समाधान हेतु निवेदन किया | देवराज ने उनकी प्रार्थना पर उन असुर म्लेच्छों को मोहित करने के लिए बौद्धमार्ग का विस्तार करके वेदों कि निंदापरक ग्रंथों को लिखने के लिए बारहों आदित्य के साथ कीकट में अवतार लिया | वेदनिन्दा करने के कारण उन्हें कुष्ठ हो गया अतः वे समस्त देवगण बुद्धरूपधारी विष्णु जी के पास गए जिन्होंने अपने योगबल से उनका रोगनाश किया |

श्रीमद्भागवत के अनुसार असुरों को मोहित करने के लिए बुद्ध का अवतार हुआ था | सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि का उपदेश देने के कारण उन्हें अधार्मिक तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु वेद तथा ईश्वर निंदक होने के कारण वे धार्मिक भी नहीं कहलाये | अतः उन्हें उपधार्मिक कहा गया है |

“ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् |

बुद्धो नाम्नाजिन सुतः, कीकटेषु भविष्यति” | १.३.

तथा

 “धर्मद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां......

वेषं विधाय बहुभाष्यत औपधर्म्यं”|| २.७.३७

श्रीधर स्वामी ने कीकट का अर्थ मगध का मध्य या गया अर्थ किया है। शक्तिसंगम तन्त्र के अनुसार नालंदा के गृद्धकूट से मिर्जापुर के चुनार के पास चरणाद्रि पर्वत (नैनागढ किला) तक कीकट है-
 

चरणाद्रिं समारभ्य गृध्रकूटान्तकं शिवे ।

तावत् कीकटदेशः स्यात् तदन्तर्मगधो भवेत्॥

(शक्तिसंगम तन्त्र)

अजिनपुत्र बुद्ध के अवतार के समय वाराणसी में महाराज किकी का शासन था और वे कीकट के भी राजा थे। पुराणों में शंकराचार्य जी के आगमन से बहुत पूर्व से ही विष्णु भगवान के बौद्धावतार की बात कही गयी है | ऐसे प्रमाण देवीभागवत, विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण, नृसिंह पुराण आदि में भी प्राप्य हैं | विभिन्न पुराणों में वैष्णव दशावतार में बुद्ध का वर्णन किया गया है। यथा-

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः॥

रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की च ते दश॥

(भविष्यपुराण, उत्तरपर्व, अध्याय - १९०, श्लोक - ०६)

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नृसिंहो वामनस्तथा।

रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की ततः स्मृतः।

एते दशावताराश्च पृथिव्यां परिकीर्तिताः॥

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - ७१, श्लोक - २७)
 

दैत्यानां नाशनार्थाय विष्णुना बुद्धरूपिणा।

बौद्धशास्त्रमसत्प्रोक्तं नग्ननीलपटादिकम्॥

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - २३६, श्लोक - ०६)

भविता सञ्जयश्चापि वीरो राजा रणञ्जयात्।

सञ्जयस्य सुतः शाक्यः शाक्याच्छुद्धोदनोऽभवत्॥

शुद्धोदनस्य भविता शाक्यार्थे राहुलः स्मृतः।

प्रसेनजित्ततो भाव्यः क्षुद्रको भविता ततः॥

(वायुपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय - ३७, श्लोक - २८४-२८५)

स्कन्द पुराण में धर्मराज युधिष्ठिर को अवतारों का वर्णन करते हुए ऋषि मार्कण्डेय कहते हैं-

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।

रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश ॥

तथा बुद्धत्वमपरं नवमं प्राप्स्यतेऽच्युतः ।

शान्तिमान्देवदेवेशो मधुहन्ता मधुप्रियः ॥

तेन बुद्धस्वरूपेण देवेन परमेष्ठिना ।

भविष्यति जगत्सर्वं मोहितं सचराचरम् ॥

(स्कन्दपुराण, अवन्तीखण्ड-रेवाखण्ड, अध्याय - १५१, श्लोक - ०४ एवं २१-२२)

शान्तात्मा लम्बकर्णश्च गौराङ्गश्चाम्बरावृतः।

ऊर्ध्वपद्मस्थितो बुद्धो वरदाभयदायकः॥

(अग्नि पुराण, दशावतारप्रतिमालक्षण, अध्याय - ४९, श्लोक - ०८)

विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भगवान् विष्णु ने बुद्ध अवतार लेने की भविष्यवाणी भी करते हुये कहते हैं कि मेरे द्वारा बुद्धरूप से कलियुग में (उप) धर्म का प्रवचन किया जाएगा एवं फिर विष्णुयशा के पुत्र (कल्कि) के रूप में म्लेच्छ राजाओं का वध किया जाएगा। यथा-

मया बुद्धेन वक्तव्या धर्माः कलियुगे पुनः।

हन्तव्या म्लेच्छराजानस्तथा विष्णुयशात्मना॥

(विष्णुधर्मोत्तरपुराण, खण्ड - ०३, अध्याय - ३५१, श्लोक - ५४)

भगवान् बुद्ध पतन और उत्थान दोनों कराते है, इसका एक संकेतात्मक वर्णन देखें -

बुद्धं प्रतीदं ब्रह्मैव केवलं शान्तमव्ययम्।

अबुद्धं प्रति बुद्ध्यैतद्भासुरं भुवनान्वितम्॥

सर्गस्तु सर्गशब्दार्थतया बुद्धो नयत्यधः।

स ब्रह्मशब्दार्थतया बुद्धः श्रेयो भवत्यलम्॥

(योगवासिष्ठ महारामायण, स्थितिप्रकरण, सर्ग - ०३, श्लोक - १६ एवं २३)

बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अनुसार अजन्मा परमात्मा जीवों को उनका कर्मफल देने के लिए भी भगवान् जनार्दन ग्रहरूप से आते हैं। दैत्यों के बल का नाश करने के लिए, एवं देवताओं के बल को बढ़ाने के लिए, धर्म की स्थापना के लिए क्रम से शुभ ग्रहों का निर्माण हुआ है। श्रीरामावतार सूर्य हैं, चन्द्रमा श्रीकृष्ण हैं। नृसिंह मङ्गल एवं बुद्धावतार बुध हैं। वामन बृहस्पति हैं एवं परशुरामावतार शुक्र हैं। कूर्मावतार शनि और वाराह राहु हैं। केतु मत्स्यावतार हैं और भी अन्य जो आकाशीय पिंड हैं, उनमें परमात्मा का ही अंश है। यथा-

दैत्यानां बलनाशाय देवानां बलबृद्धये।

धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहाज्जाताः शुभाः क्रमात्‌॥

रामोऽवतारः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः।

नृसिंहो भूमिपुत्रस्य बुद्धः सोमसुतस्य च॥

वामनो विबुधेज्यस्य भार्गवो भार्गवस्य च।

कूर्मो भास्करपुत्रस्य सैंहिकेयस्य सूकरः॥

केतोर्मीनावतारश्च ये चान्ये तेऽपि खेटजाः।

परात्मांशोऽधिको येषु ते सर्वे खेचराभिधः॥

(बृहत्पाराशर होराशास्त्र, अध्याय ०२, श्लोक - ०२-०७)

भगवान् बुद्ध की जन्मतिथि-

कुछ विद्वान् बुद्धावतार विजयादशमी के दिन मानते हैं तो शक्तिसंगम तन्त्र के छिन्नमस्ताखण्ड में वर्णित श्लोक के आधार पर कुछ कहते हैं कि शुक्लपक्ष की दशमी में जब विशाखा नक्षत्र और रविवार था तब दिन के छः घड़ी बीतने पर बुद्धावतार हुआ। ज्योतिष गणना के अनुसार शुक्ल दशमी और विशाखा का योग आषाढ़ के महीने में बहुधा बनता है।

शुद्धा च दशमी देवि रविवारेण संयुता।

शुक्लयोगे विशाखायां दिवा नाड़ी च षट् तदा।

बुद्धोऽवतीर्णो देवेशि ततः कलियुगे शृणु॥

(शक्तिसंगम तन्त्र, छिन्नमस्ताखण्ड, षष्ठ पटल, श्लोक - ६६)

कुछ विद्वान् वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को बुद्ध की जयन्ती मनाते हैं| प्रधानतया सिद्दार्थ पुत्र गौतम बुद्ध की वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को जयन्ती मनायी जाती है|

प्रधान बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर सूत्र के अनुसार बौद्धशास्त्र के समूहों में (दीपङ्कर बुद्ध से गौतम बुद्ध तक और भविष्य के मैत्रेय बुद्ध को मिलाकर) पच्चीस बुद्ध दिखते हैं। उनमें शुद्धोदन की औरस सन्तान, जो मायादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुई, जिनकी शाक्यसिंह, सर्वार्थसिद्ध (सिद्धार्थ), अर्कबन्धु और गौतम, इन चार नामों से प्रसिद्धि हुई| कपिलवस्तु में कलियुग के २४८६ (दो हज़ार, चार सौ छियासी) वर्ष बीतने पर शुक्रवार को देवताओं से द्रोह करने वाले (असुरों) को मोहित करने के लिए साक्षात् विवेक की मूर्ति, इच्छानुसार शरीर को धारण करके उत्पन्न हुए। ललितविस्तर सूत्र उक्त वचन यथा--

इह खलु बौद्धशास्त्रसमूहेषु सम्प्रोक्ताः पञ्चविंशतिर्बुद्धा दृश्यन्ते। तेषां शुद्धोदनौरसात् मायादेवीगर्भजातः शाक्यसिंहसर्वार्थसिद्धार्कबन्धुगौतमेति नामचतुष्टयेन प्रसिद्धोऽन्तिमतमः लोकविश्रुतो बुद्धः कपिलवस्तुनगरे कलेश्चतुःशतषडशीत्यधिकद्विसहस्रमितेषु गतेष्वब्देषु शुक्रवासरे सुरद्विषां सम्मोहनाय साक्षाद् विवेकमूर्त्तिः स्वेच्छाविग्रहेण प्रादुर्बभूव। (ललितविस्तर सूत्र)

ललितविस्तर सूत्र के अनुसार बुद्ध के २५ अवतारों का सामान्य परिचय निम्नवत है-

१-      सुमेध बुद्ध , कुल- ब्राह्मण, निवास- अमरावती|

२-      दीपङ्कर बुद्ध, जन्मस्थान- रम्यवती, कुल- क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुमेधा एवं सुदेव, पटरानी – पद्मा, पुत्र – वृषभस्कन्ध|

३-      कौण्डिन्य बुद्ध, जन्मस्थान – रम्यवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुजाता एवं सुनन्द, पटरानी - रुचि देवी, पुत्र – विजितसेन|

४-      मङ्गल बुद्ध, जन्मस्थान - उत्तर नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - उत्तर एवं उत्तरा, पटरानी - यशस्वी (यशस्विनी), पुत्र – शिवल|

५-      सुमन बुद्ध, जन्मस्थान - मेखल नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुदत्त एवं सिरिमा, पटरानी – अवतंसिका, पुत्र – अनुपम|

६-      रेवत बुद्ध, जन्मस्थान – सुधान्यवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - विपुला एवं विपुल, पटरानी – सुदर्शना, पुत्र – वरुण|

७-      शोभित बुद्ध, जन्मस्थान – सुधर्मनगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुधर्मा एवं सुधर्म, पटरानी – मणिला, पुत्र – सिंह|

८-      अनोमदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान – चन्द्रवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - यशोधरा एवं यशस्वी, पटरानी – सिरिमा, पुत्र – उपवाण|

९-      पद्म बुद्ध, जन्मस्थान – चम्पकनगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - असमा एवं अस, पटरानी – उत्तरा, पुत्र – रम्य|

१०-  नारद बुद्ध, जन्मस्थान - धन्यवती नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - अनोमा एवं सुदेव, पटरानी – विजितसेना, पुत्र – नन्दोत्तर|

११-  पद्मोत्तर बुद्ध, जन्मस्थान – हंसवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुजाता एवं आनन्द, पटरानी – वसुदत्ता, पुत्र – उत्तम|

१२-  सुमेध बुद्ध, जन्मस्थान - सुदर्शन नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुदत्ता एवं सुदत्त, पटरानी – सुमना, पुत्र – पुनर्वसु|

१३-  सुजात बुद्ध, जन्मस्थान - सुमङ्गल नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - प्रभावती एवं उद्गत, पटरानी – श्रीनन्दा, पुत्र – उपसेन|

१४-  प्रियदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान - सुधन्य नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - चन्द्रा एवं सुदत्त, पटरानी – विमला, पुत्र – काञ्चनावेल|

१५-  अर्थदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान - शोभन नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुदर्शना एवं सागर, पटरानी – विशाखा, पुत्र – शैल|

१६-  धर्मदर्शी बुद्ध, जन्मस्थान - शरण नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुनन्दा एवं शरण, पटरानी – विचिकोली, पुत्र – पुण्यवर्द्धन|

१७-  सिद्धार्थ बुद्ध (प्राचीन), जन्मस्थान - वैभार नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सुस्पर्शा एवं उदयन, पटरानी – सौमनस्या, पुत्र – अनुपम|

१८-  तिष्य बुद्ध, जन्मस्थान - क्षेमक नगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - पद्मा एवं जनसन्ध, पटरानी – सुभद्रा, पुत्र – आनन्द|

१९-  पुष्य बुद्ध, जन्मस्थान - काशिका नगरी, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - सिरिमा एवं जयसेन, पटरानी - कृशा गौतमी, पुत्र – अनुपम|

२०-  विपश्यी बुद्ध, जन्मस्थान - बन्धुमती नगरी, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - बन्धुमती एवं बन्धुमान्, पटरानी – सुदर्शना, पुत्र – समवृत्तस्कंध|

२१-  शिखी बुद्ध, जन्मस्थान – अरुणवती, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - प्रभावती एवं अरुण, पटरानी – सर्वकामा, पुत्र – अतुल|

२२-  विश्वम्भू बुद्ध, जन्मस्थान – अनोमनगर, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - यशस्वी (यशस्विनी) एवं सुप्रतीत, पटरानी – सुचित्रा, पुत्र – शूर्पबुद्ध|

२३-  ककुसन्ध बुद्ध, जन्मस्थान - क्षेमवती नगरी, कुल – ब्राह्मण, माता एवं पिता - विशाखा एवं अग्निदत्त, पटरानी – रोचिनी, पुत्र – उत्तर|

२४-  कोणागमन बुद्ध, जन्मस्थान – शोभवती, कुल – ब्राह्मण, माता एवं पिता - उत्तरा एवं यज्ञदत्त, पटरानी – रुचिगात्रा, पुत्र – स्वस्तिज|

२५-  काश्यप बुद्ध, जन्मस्थान - कीकट , कुल – ब्राह्मण, माता एवं पिता - धनवती एवं ब्रह्मदत्त (अजन), पटरानी – सुनन्दा, पुत्र – विजितसेन|

२६-  गौतम बुद्ध, जन्मस्थान – कपिलवस्तु, कुल – क्षत्रिय, माता एवं पिता - मायादेवी एवं शुद्धोदन, पटरानी - भद्रकञ्चना यशोधरा, पुत्र – राहुल|

उपर्युक्त विवेचनों व प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि अनेकों बुद्धों का अवतार अथवा जन्म हुआ है| सिद्दार्थ गौतम बुद्ध से पूर्व में भी बुद्ध हुये हैं, जिनका उल्लेख पुराणों, तन्त्रों व बौद्ध साहित्यों में उल्लेख मिलता है| सिद्दार्थ गौतम बुद्ध से पूर्व में भी दर्शन, चिन्तन व उपासना के रूप में एक बौद्द परम्परा सनातन या आस्तिक दर्शन के समानान्तर विद्यमान रही है, जिसका व्यापक रूप में प्रभाव समाज मे कुछ काल पर्यन्त तक ही रहता रहा है| वर्तमान में जो बौद्ध धर्म का स्वरुप है उके प्रतिष्ठापक निश्चित रूप से शुद्धोदन के पुत्र व राहुल के पिता गौतम बुद्ध ही हैं| यदि शुद्धोदन के पुत्र गौतम बुद्ध को भगवान् का अवतार न भी माना जाय तब भी पौराणिक प्रमाणों के आधार पर भगवान् के बुद्धावतार को तो सनातनियों को स्वीकार करना ही होगा| इस विषय मे अभी भी बहुत कुछ अनुसन्धेय है|

अत: निष्कर्ष रूप में हम सनातनियों को पौराणिक बुद्धावतार को स्वीकार करने में कोइ आपत्ति नहीं होनी चाहिये| भगवान् बुद्ध अथवा तथागत बुद्ध सभी के जीवन में प्रेम, सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि का संचार करते हुये सभी का मङ्गल करें, इसी भावना के साथ भगवान् बुद्धके जयन्ती की शुभकामनायें|
साभार सहायक सामग्री संकलन- भगवतानंद जी का लेख

Saturday, May 22, 2021

विवाहमें_भांवर_फेरे_कितने_होने_चाहिए_३_या_४_अथवा_७

#विवाहमें_भांवर_फेरे_कितने_होने_चाहिए_३_या_४_अथवा_७

(आचार्य सियाराम दास नैयायिक द्वारा)

आज कल विवाह में कहीं तो 7 फेरों का प्रचलन है तो कहीं 4 का ,  इस विषय पर बहुत विवाद सुनने में आ रहा है । राजस्थान, गुजरात और मिथिला आदि प्रान्तों में कई स्थानों में 4 फेरों की परम्परा है और उत्तर प्रदेश आदि कुछ प्रान्तों के कतिपय स्थलों में 7 फेरों की परम्परा | कई  कुछ वैश्य परिवारों में मात्र ३ फेरे ही पंडितों पर दबाव डालकर कराये जाते हैं |

*हम यहां सप्रमाण यह तथ्य प्रस्तुत करेंगे कि “फेरे कितने होने चाहिए ।*

यहां एक बात ध्यान में अवश्य रखनी है कि सभी बातें शास्त्रों में ही उपलब्ध नहीं होती हैं ।

 जैसे — वर वधू का मंगलसूत्र पहनाना,गले में माला धारण करवाना, वर वधू के वस्त्रों में ग्रन्थि लगाना ( गांठ बांधना ),वर के हृदय पर दही आदि का लेपन, ऐसे बहुत से कार्य हैं जो गृह्यसूत्रों में उपलब्ध नही हैं । इन सब कार्यों में कौन प्रमाण है ?

इसका उत्तर है –”अपने अपने कुल की वृद्ध महिलायें ;क्योंकि वे अपने पूर्वजों से किये गये सदाचारों का स्मरण रखती हैं । इसलिए विवाहादि कार्यों में इनकी बात मानने का विधान शास्त्रों ने किया है ।

देखें —शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व शाखा इन दोनों का प्रतिनिधित्व करता है |महर्षि पारस्कर प्रणीत ” पारस्करगृह्यसूत्र” में महर्षि कहते हैं –

“ग्रामवचनं च कुर्युः”-।। 11।।

“विवाहश्मशानयोर्ग्रामं प्राविशतादिति वचनात् ‘।।12।। “तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणमिति श्रुतेः ।।13।।–प्रथमकाण्ड, अष्टमी कण्डिका ।

 यहां 11वें सूत्र का अर्थ “हरिहरभाष्य” में किया गया है कि “विवाह और श्मशान सम्बन्धी कार्यों में ( ग्रामवचनं = स्वकुलवृद्धानां स्त्रीणां वाक्यं कुर्युः ) अपने कुल की वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्य करना चाहिए ।

“गदाधरभाष्यकार”भी यही अर्थ किये हैं । इनमें कुछ बातें जैसे “मंगलसूत्र आदि” इनका उल्लेख इसी भाष्य के आधार पर मैने किया है ।

 सूत्र11 में ” च ” शब्द आया है । उससे “देशाचार, कुलाचार और जात्याचार ” का ग्रहण है ।

 “चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः –च शब्द जो बातें नहीं कहीं गयी हैं -उनका संकेतक माना जाता है । अत एव ” च शब्दाद्देशाचारोऽपि ” –ऐसा भाष्य श्रीगदाधर जी ने लिखा ।

 यहां “अपि” शब्द कैमुत्यन्याय से कुलाचार और जात्याचार का बोधक है ;क्योंकि विवाहादि कार्यों मेंजाति और कुल के अनुसार भी आचार में भिन्नता कहीं कहीं देखने को मिलती है ।

ग्रामवचन का अर्थ “भर्तृयज्ञ ” जो कात्यायन श्रौतसूत्र के व्याख्याता हैं उन्होने लोकवचन किया है –

ऐसा गदाधर जी ने अपने भाष्य में संकेत किया है । इसे लोकमत या शिष्टाचार — सदाचार कहते हैं । यह भी हमारे यहां प्रमाणरूप से अंगीकृत है ।

पूर्वमीमांसा में सर्वप्रथम प्रमाणों की ही विशद चर्चा हुई है । इसलिए उस अध्याय का नाम ही” प्रमाणाध्याय” रख दिया गया है । इसमें शिष्टाचार को प्रमाण माना गया है । शिष्ट का लक्षण वहां निरूपित है ।

“वेदः स्मृतिः सदाचारः” –मनुस्मृति,2/12,

तथा “श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः “–याज्ञवल्क्य स्मृति-आचाराध्याय,7, इन दोनों में सदाचार को धर्म में प्रमाण माना है ।

किन्तु धर्म में परम प्रमाण भगवान् वेद ही हैं । उनसे विरुद्ध समृति या सदाचार प्रमाण नही हैं । पूर्वमीमांसा में वेदैकप्रमाणगम्य धर्म को बतलाया गया –जैमिनिसूत्र-1/1/2/2,

पुनः ” स्मृत्यधिकरण “-1/3/1/2, से वेदमूलक स्मृतियों को धर्म में प्रमाण माना गया ।

यदि कोई स्मृति वेद से विरुद्ध है तो वह धर्म में प्रमाण नही हो सकती –यह सिद्धान्त “विरोधाधिकरण”-1/3//2/3-4, से स्थापित किया गया ।

इसी अधिकरण में सदाचार की प्रामाणिकता को लेकर यह निश्चित किया गया कि सदाचार स्मृति से विरुद्ध होने पर प्रमाण नही है । ( इस बात का ध्यान आप सब सुधी  जन वाल्मीकि रामायण का प्रमाण पढ़ते समय अवश्य ध्यान में रखियेगा |)

 जैसे दक्षिण भारत में मामा की लड़की के साथ भांजे का विवाह आदि ;क्योंकि यह सदाचार

“मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च । समानप्रवरां चैव त्यक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । ।”

इस शातातप स्मृति से विरुद्ध है । भागवत के 10/61/23-25 श्लोकों द्वारा इस विवाहरूपी कार्य को अधर्म बतलाया गया है ।। अस्तु।।

 तात्पर्य यह कि सदाचार से उसकी ज्ञापक स्मृति का अनुमान किया जाता है और उस स्मृति से तद्बोधक श्रुति का अनुमान । जब आचार की विरोधिनी स्मृति बैठी है तो उससे वह बाधित हो जायेगा । इसी प्रकार स्मृति भी स्वतः धर्म में प्रमाण नही है अपितु वेदमूलकत्वेन ही प्रमाण है ।

  स्मृति से श्रुति का अनुमान किया जाता है । जब स्मृति विरोधिनी श्रुति प्रत्यक्ष उपलब्ध है तो उससे स्मृति बाधित हो जायेगी –

 ”विरोधे त्वनुपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम्”–पूर्वमीमांसा,1/3/2/3,

सदाचार से स्मृति और स्मृति से श्रुति का अनुमान होता है । इन तीनों में श्रुति से स्मृति और स्मृति से सदाचार रूपी प्रमाण दुर्बल है । निष्कर्ष यह कि स्मृति या वेदविरुद्ध आचार प्रमाण नही है ।

 अब हम यह देखेंगे कि विवाह में जो फेरे पड़ते हैं – ३-4 या 7, इनमें किसको स्मृति या वेद का समर्थन प्राप्त है और कौन इनसे विरुद्ध है ?

यहां यह बात ध्यान में रखनी है कि स्मृति का अर्थ केवल मनु या याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों से प्रणीत स्मृतियां ही नहीं अपितु सम्पूर्ण धर्मशास्त्र है —

“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः “–2/10,

धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृतियां ,पुराण,इतिहास,कल्पसूत्र आदि आते हैं –यह मीमांसकों का सिद्धान्त है — स्मृत्यधिकरण,1/3/1/1-2,

इसी से ३ या  4 अथवा  7 फेरों का निश्चय हो जायेगा ।

 विवाह में 4 कर्म ऐसे हैं जिनसे फेरों का सम्बन्ध है । अर्थात् उन चारों का क्रमशः सम्पादन करने के बाद फेरे( परिक्रमा या भांवर ) का क्रम आता है । वे निम्नलिखित हैं —

1-लाजा होम—

इसमें कन्या को उसका भाई शमी के पल्लवों से मिश्रित धान के लावों को अपनी अञ्जलि से कन्या के अञ्जलि में डालता है । कन्या उस समय खड़ी रहती है ।

यदि कन्या के भाई न हो तो यह कार्य उसके चाचा ,मामा का लड़का ,मौसी का पुत्र या फुआ( बुआ -फूफू अर्थात् पिता की बहन ) का पुत्र आदि भी कर सकते हैं–

 यह तथ्य श्रीगदाधर जी ने बहवृचकारिका को उद्धृत करके अपने भाष्य में दर्शाया है ।

पारस्करगृह्यसूत्र के प्रथम काण्ड की छठी कण्डिका में “कुमार्या भ्राता –”–1 में इसका कथन है ।

 कन्या के अञ्जलि में लावा है । वर भी खड़ा होकर उसके दोनों हाथों से अपने हाथ लगाये रहता है और कन्या खड़ी होकर ही उन लावों को मिली हुइ अञ्जलि से होम करती है –अर्यमणं देवं –इत्यादि मन्त्रों से ।

 ये तीनों मन्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । अतः इनका अर्थ प्रस्तुत किया जा रहा है –

1-अर्यमणं देवं– सूर्य देव, जो ,अग्निं –अग्निस्वरूप हैं ,उनकी वरप्राप्ति के लिए, अयक्षत –पूजा की है,स–वे,अर्यमा देवः–भगवान् सूर्य, नो–हमें,इतः–इस पितृकुल से , प्रमुञ्चतु –छुड़ायें, किन्तु ,पत्युः –पति से ,मा –न छुड़ायें , स्वाहा — इतना बोलकर कन्या होम करती है ।

आज इस पद्धति का विधिवत् आचरण न करने का परिणाम इतना भयंकर दिख रहा है कि पति या तो पत्नी को छोड़ देता है अथवा पत्नी पति को ।

 2-मन्त्र –” आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा।

अर्थ– मे पतिः –मेरे पति, आयुष्मानस्तु –दीर्घायु हों,और मम– मेरे ,ज्ञातयो– बन्धु बान्धव,एधन्तां –बढ़ें ,स्वाहा बोलकर पुनः होम ।

विवाह में इस मन्त्र के छूट जाने का पहला परिणाम “पति असमय ही किसी भी कारण से अकालमृत्यु को प्राप्त होता है । या मृत्यु जैसे कष्टकारी रोगों से आक्रान्त हो जाता है । और पत्नी के पतिगृह पहुंचने के कुछ समय बाद ही बंटवारे की नौबत भी आ जाती है । जो आजकल का तथाकथित सभ्य समाज भुगत रहा है ।

 3 मन्त्र –” इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव । मम तुभ्य च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियं

स्वाहा ।

हे स्वामिन् ! , तव –तुम्हारी , समृद्धिकरणं –समृद्धि करने के लिए, इमाँल्लाजान् –इन लावों को ,अग्नौ –अग्नि में , आवपामि –मैं डाल रही हूं । मम तुभ्य च — हमारा और तुम्हारा , जो, संवननं –पारस्परिक प्रेम है , तत् –उसका , ये, अग्निः–अग्नि देव, अनुमन्यन्ताम्—अनुमोदन करें अर्थात् सदृढ करें , और, इयं –अग्नि की पत्नी स्वाहा भी , स्वाहा –बोलकर पुनः होम । इस मन्त्र से होम किया जाता है कि दाम्पत्य जीवन सदा प्रेम से संसिक्त रहे ।

पर आज जो पण्डित आधे घण्टे में विवाह करा दे उसे कई शहरों में बहुत अच्छा मानते हैं । इस मन्त्र से होम न करने का परिणाम है –दाम्पत्य जीवन का कलहमय होना ।

अतः विवाहोपरान्त भविष्य में आने वाले इन सभी संकटों को रोकने के लिए हमारे ऋषियों ने हमें जो कुछ दिया । उसकी अवहेलना का परिणाम आज घर घर में किसी न किसी रूप में दिख रहा है ।

अतः वेदों के इन पद्धतियों की वैज्ञानिकता और आदर्श समाज की रचना के इन अद्भुत प्रयोगों को हमें पुनः अपनाना होगा ।

 2-सांगुष्ठग्रहण–यह कर्म लाजा होम के बाद वर द्वारा किया जाता है । वह वधू का दांया हाथ अंगूठे सहित पकड़ता है । और ” गृभ्णामि से शरदः शतम् ” तक मन्त्र पढ़ता है ।

 इस मन्त्र से वर वधू में देवत्व का आधान होता है । तथा बहुत से पुत्रों के प्राप्ति की प्रार्थना की गयी है ।

 पुत्र वही है जो पुत् नामक नरक से तार दे -पुत् नामकात् नरकात् त्रायते इति पुत्रः ।

 इस मन्त्र के छूटने का परिणाम यह है कि आज कल लड़के अपने माता पिता का जीवन नरकमय बना रहे है । तारना तो दूर की बात है ।

3-अश्मारोहण– अग्निकुण्ड के उत्तर की ओर रखे हुए ” पत्थर ” ( लोढ़ा आदि) के समीप जाकर वर वधू के दायें पैर को पकड़कर उस पर रखता है ।

श्रीगदाधर ने अपने भाष्य मे सप्रमाण इसका उल्लेख किया है । और मिथिला मे यह आज भी वर द्वारा किया जाता है |

इस समय वर स्वयं मन्त्र पढ़ता है–”आरोहे से लेकर पृतनायत ” तक ।

 इस मन्त्र का अर्थ है कि कन्ये !तुम इस पत्थर पर आरूढ होकर इस प्रस्तर की भांति दृढ़ हो जाओ । और कलह चाहने वालों को दबाकर स्थिर रहो । और उन शत्रुओं को दूर हटा दो ।

 यह कर्म कन्या द्वारा आज भी U.P आदि में देखा जाता है । कन्या उस लोढ़े को पैर के अंगूठे से प्रहार करके  फेंक देती है ।

यह कर्म अद्भुत भाव से ओतप्रोत है । यह कन्या को हर विषम परिस्थितियों में अविचल भाव देने के साथ ही शत्रुदमन की अदम्य ऊर्जा भी प्रदान करता है ।

4-गाथागान — इसमें एक मन्त्र का गान वर करता है जिसमें नारी के उदात्त व्यक्तित्व की सुन्दर झलक है ।

 5- परिक्रमा या फेरे — अब वर वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं । इस समय वर –

 ”तुभ्यमग्रे से लेकर प्रजया सह ” तक 1 मन्त्र बोलता है ।

 1 परिक्रमा (फेरा ) अब पूर्ण हुई |

 इसी प्रकार पुनः पूर्ववत् लाजाहोम, सांगुष्ठग्रहण, अश्मारोहण, गाथागान और 1 परिक्रमा करनी है ।

 तत्पश्चात् पुनः वही लाजाहोम से लेकर 1 परिक्रमा तक पूर्वकी भांति सभी कर्म करना है ।

इसका संकेत प्रथम काण्ड की सप्तमी कण्डिका में शुक्लयजुर्वेद के सूत्रकार महर्षि पारस्कर अपने गृह्यसूत्र में करते हैं —

“एवं द्विरपरं लाजादि ” इसका अर्थ ” हरिहरभाष्य और गदा धरभाष्य ” दोनो में यही किया गया कि

“कुमार्या भ्राता —-” –जहां से लाजाहोम आरम्भ है वहां से परिक्रमा पर्यन्त कर्म होता है ।

 अब यहां हमारे समक्ष लाजा होम से लेकर परिक्रमा पर्यन्त सभी कर्मों का ३ बार अनुष्ठान सम्पन्न हुआ ।

 जिनमें 9 बार लावों की आहुति पड़ी ;क्योंकि १ -१ लाजाहोम में ३ –३ बार कन्या ने पूर्वोक्त मन्त्रों से आहुति दिया है ।

 3 बार सांगुष्ठग्रहण, 3 बार अश्मारोहण, 3 बार गाथागान और 3परिक्रमा (फेरे ) सम्पन्न हो चुकी है ।

 अब चौथी बार केवल लाजा होम  ही करना  है। पर इस चौथे क्रम में पहले से कुछ भिन्नता है ।

 क्या भिन्नता ?

 इसे महर्षि पारस्कर स्वयं सूत्र द्वारा दिखाते हैं —

 ” चतुर्थं शूर्पकुष्ठया सर्वाँल्लाजानावपति–भगाय स्वाहेति। “

 —-पारस्करगृह्यसूत्र,प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका,5,

 कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे ।

 इसके बाद मौन होकर वर और वधु अग्नि की परिक्रमा करते हैं –इसमें “सदाचार “ही प्रमाण है | अर्थात् शास्त्र प्रमाण इसमें नहीं मिलता –

 देखें हरिहरभाष्यकार लिखते है –

 ” ततः समाचारात्तूष्णीं चतुर्थं परिक्रमणं वधूवरौ कुरुतः “|

 इसे सर्वसम्मत पक्ष बतलाते हुए गदाधर भाष्य में “वासुदेव ,गंगाधर ,हरिहर और रेणु दीक्षित जैसे भाष्यकारों के नाम का उल्लेख श्रद्धापूर्वक किया गया है |–प्रथम काण्ड ,सप्तमी कण्डिका,६

किन्तु सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो । और  इस सदाचार के विरुद्ध प्रमाण है ” परम आर्ष ग्रन्थ वाल्मीकिरामायण”–

” त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः”-बालकाण्ड–७३/३९,

महातेजस्वी उन तीनों भाइयों ने तीन बार अग्नि की परिक्रमा करके विवाह किया | अतः इसके विरुद्ध ४ बार भांवर को प्रमाण कैसे माना जाय ?

महर्षि पारस्कर  स्वयं भी चौथी परिक्रमा का नाम नहीं लिए |उन्होंने तो केवल चौथी बार लाजा होम का ही नाम लिया है, परिक्रमा का नहीं–

” चतुर्थं शूर्पकुष्ठया सर्वाँल्लाजानावपति–भगाय स्वाहेति। “

—-पारस्करगृह्यसूत्र,प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका,5,

कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के

अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे ।

आश्चर्य है कि इन विद्वान भाष्यकारों ने शास्त्रविरुद्ध आचार को प्रमाण कैसे मान लिया ? क्योंकि स्मृतिविरुद्ध आचार प्रमाणकोटि में नहीं आता |

अतः पारस्कर गृह्यसूत्र और रामायण के प्रमाण से विवाह में तीन भांवर ( परिक्रमा ) ही सिद्ध होती है |

यह विषय विद्वानों के लिए सुचिन्त्य है |

इस प्रकार शुक्लयजुर्वेद के महर्षि पारस्कररचित ” पारस्करगृह्यसूत्र” और “रामायण” के अनुसार विवाह में ३  फेरे (परिक्रमा )ही प्रमाणसिद्ध है । ४ या 7 फेरे केवल भ्रममात्र हैं । अतः यही मान्य और शास्त्रसम्मत है ।

 यदि कोई कहे कि ४ या  7 फेरों का सदाचार हमारी परम्परा में चला आ रहा है और सदाचार का प्रामाण्य सभी ने स्वीकार किया है । अतः यह ठीक है ।तो मैं उस व्यक्ति से यही कहूंगा कि सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो । अतः इसके विपरीत ४ या 7 फेरों वाला सदाचार प्रमाण नही है ।

Monday, February 8, 2021

बिहार के विद्यालयों मे होने वाला प्रार्थना

बिहार के विद्यालयों मे होने वाला प्रार्थना -
प्रार्थना

तू ही राम है तू रहीम है,
तू करीम,कृष्ण,खुदा हुआ,
तू ही वाहे गुरु,तू ईशू मसीह,
हर नाम में,तू समा रहा ।
तू ही राम है तू रहीम है....

तेरी जात पाक कुरान में,
तेरा दर्श वेद पुराण में,
गुरु ग्रन्थ जी के बखान में,
तू प्रकाश अपना दिखा रहा ।
तू ही राम है तू रहीम है..

अरदास है,कहीं कीर्तन, 

कहीं राम धुन,कहीं आव्हन,
विधि वेद का है ये सब रचन,
तेरा भक्त तुझको बुला रहा ।
तू ही राम है तू रहीम है..

विधि वेश जाति के भेद से हमे मुक्त कर दो परम्पिता

तुझे देख पायें सभी मे हम तुझे ध्या सकें हम सभी जगह।।

तू ही राम है तू रहीम है..

Monday, January 4, 2021

समानता मूलक शासन की स्थापना

एक बार जंगल में मीटिंग हुई जिसमें सवर्मत से निर्णय लिया गया कि समता और समानता मूलक शासन की स्थापना हो, सभी को अवसर मिले और रोटेशन प्रणाली को लागू किया जाय। अर्थात शेर के बाद घोड़ा, हाथी, भेड़, बकरी, सुअर, सियार, लोमड़ी आदि भी राजा बन सकें।

सब में बड़ी खुशी थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी और अपनी जाति वाला राजा बन सकेगा। कुछ दिन बाद देखा क्या गया कि जब लोमड़ी राजा बना तो सभी महत्वपूर्ण पद लोमड़ी को दिया, जब सियार राजा हुआ तो महत्वपूर्ण पद सियार को मिला। योग्यता को दरकिनार कर दिया गया। वैमनस्यता आधारित शासन हो गया। जब जिसका राजा बनता अपने जाति वाले को ला कर बसा देता।

लोग सामान्य कार्य के लिए भी भष्ट्राचार का सहारा और आगे अपनी जाति के शासक बनने का हवाला देने लगे। धीरे – धीरे जंगल में घुसपैठियों की समस्या बढ़ती गयी। लेकिन अब बहुमत के आधार पर शासक का निर्णय होना भी बीच में तय कर लिया गया। सबसे कम जनसंख्या शेर की थी इसलिए वह स्वयं लोकतंत्र के चक्कर में शासन से दूर हो गया किन्तु उससे अराजकता नहीं देखी जाती, वह जंगल को लेकर चिंतित रहता था।

एक दिन जब वोट के आधार पर लोमड़ी का शासन चल रहा था उसी समय जंगल पर जंगली भैसों का आक्रमण हुआ लोमड़ी के शासन में चौथी पीढ़ी थी। इस समय जो लोमड़ी थी वह बिल्कुल अयोग्य थी किन्तु उसके शासन की आदत और संख्या में अधिक होने के कारण वह सत्ता में थी।

लोमड़ी ने अपने कुनबे को बचाने के एवज में सत्ता भैसों को सौंपने का निर्णय किया। इस समय जंगल में अवैध जानवरों की संख्या काफी बढ़ गयी थी। जो वोट के समय एक बड़े फैक्टर का काम करती थी। उन्होंने नव आयातित भैसों की तरफ झुकाव किया जिससें उनकी स्वीकार्यता बढ़े और शासन में पद भी मिल सके।

धीरे – धीरे वहाँ के कानून परिवर्तित होने लगे। लोभ और लालच चरम पर पहुँच गया, अनुशासन जाता रहा। अब लोकतंत्र था जिसकी संख्या बढ़ती वह सत्ता ले लेता। बड़ी जातियों में भी संख्या बढ़ाने की होड़ मच गई। योग्य सिर्फ चिंता करते और चुप रहते क्योंकि गधों को न्याय व्यवस्था, भेड़िए के हिस्से पुलिस व्यवस्था थी। सत्ता, जनसंख्या और जाति निर्धारित करने लगी थी।

शेर और उसका प्रधानमंत्री हाथी तीर्थ यात्रा के बहाने उस जंगल को छोड़ कर चले गये। अब तो सुना है कौवे को रक्षा मंत्री और उल्लू को संचार का पद मिला है। लोकतंत्र में शेर और हाथी का क्या काम जब गधा हुआ पहलवान।

जंगल में आपराधिक गतिविधियों के साथ जानवरों के गायब होने का सिलसिला शुरू है। रोज मुकदमें होते हैं, न्याय की ढकोसलेबाजी चलती है। पीड़ित के पास धन नहीं है तो न्याय वहीं दम तोड़ देता है। लोकतंत्र का भेड़चाल जातिवाद और राजनीतिक वंशवाद का रूप धर अपने को ठग रहा है किन्तु अयोग्यता को बढ़ाने की जिम्मेदारी सब पर है, विचार का अभाव अराजकता में फंसा देता है।

आज, एक तरफ हम CAA की बात कर रहे हैं, 377 हटा रहे हैं, विवाहेत्तर सम्बन्ध को वैध करके लैस्बियन, ट्रांसजेंडर को अधिकार दे रहे हैं तो दूसरी तरफ निर्भया और हैदराबाद रेप और मर्डर की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा रहे हैं। जंगल का कानून, मैंने चूड़ियां नहीं पहनी है और समाज की नपुंसकता जैसे स्लोगन ओछे हैं। सिर्फ भेड़चाल है, सत्ता मिलने की और पद कुनबे को देने की, बाकी चलता आया है और चलता रहेगा।
बच्चे मरेंगे, किसान आत्महत्या करेंगे, नारी का रेप होगा, संगठित अपराध जारी रहेगा और सबसे बड़ी बात देश को गाली दीजाएगी, तिरंगे और राष्ट्रगान का अपमान होगा क्योंकि यही शासन है, जहां संवेदना से अधिक वोट और सत्ता महत्वपूर्ण है।
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इस पोस्ट के लेखक :
Dhananjay Gangay

Saturday, January 2, 2021

विविध देवों के गायत्री मंत्र

॥ गायत्रीमन्त्राः ॥ 
         सर्व गायत्री 145 देवो के गायत्री मंत्र

1 सूर्य ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
 2 ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात् ॥
 3 ॐ प्रभाकराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥ 
4 ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥ 
5 ॐ भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि तन्न आदित्यः प्रचोदयात् ॥ 
6 ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥ 
7 ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥ 
8 ॐ भास्कराय विद्महे महाद्द्युतिकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥ 
9 चन्द्र ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥ 
10 ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥ 
11 ॐ निशाकराय विद्महे कलानाथाय धीमहि तन्नः सोमः प्रचोदयात् ॥ 
12 अङ्गारक, भौम, मङ्गल, कुज ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥ 
13 ॐ अङ्गारकाय विद्महे भूमिपालाय धीमहि तन्नः कुजः प्रचोदयात् ॥
 14 ॐ चित्रिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥
15 ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥
 16 बुध ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात् ॥
 17 ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि तन्नो बुधः 
प्रचोदयात् ॥
18 ॐ सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात् ॥ 
19 गुरु ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥
 20 ॐ सुराचार्याय विद्महे सुरश्रेष्ठाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥
 21 शुक्र ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥
22 ॐ रजदाभाय विद्महे भृगुसुताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥ 
23 ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥
 24 शनीश्वर, शनैश्चर, शनी ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात् ॥ 
25 ॐ शनैश्चराय विद्महे सूर्यपुत्राय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात् ॥
 26 ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः सौरिः प्रचोदयात् ॥
27 राहु ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात् ॥
28 ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात् ॥
29 केतु ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥
30 ॐ चित्रवर्णाय विद्महे सर्परूपाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥
31 ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥
32 पृथ्वी ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे सहस्रमर्त्यै च धीमहि तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात् ॥
33 ब्रह्मा ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
34 ॐ वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
35 ॐ चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
36 ॐ परमेश्वराय विद्महे परमतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
37 विष्णु ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥
38 नारायण ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥
39 वेङ्कटेश्वर ॐ निरञ्जनाय विद्महे निरपाशाय धीमहि तन्नः श्रीनिवासः प्रचोदयात् ॥
40 राम ॐ रघुवंश्याय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
41 ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
42 ॐ भरताग्रजाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
43 ॐ भरताग्रजाय विद्महे रघुनन्दनाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥
44 कृष्ण ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥
45 ॐ दामोदराय विद्महे रुक्मिणीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥
46 ॐ गोविन्दाय विद्महे गोपीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ।
47 गोपाल ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात् ॥
48 पाण्डुरङ्ग ॐ भक्तवरदाय विद्महे पाण्डुरङ्गाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥
49 नृसिंह ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नो नारसिꣳहः प्रचोदयात् ॥
50 ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात् ॥
51 परशुराम ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नः परशुरामः प्रचोदयात् ॥
52 इन्द्र ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात् ॥
53 हनुमान ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात् 
54 ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात् ॥
55 मारुती ॐ मरुत्पुत्राय विद्महे आञ्जनेयाय धीमहि तन्नो मारुतिः प्रचोदयात् ॥
56 दुर्गा ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥
57 ॐ महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात् ॥
58 ॐ गिरिजायै च विद्महे शिवप्रियायै च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥
59 शक्ति ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे विश्वजनन्यै च धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात् ॥
60 काली ॐ कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै च धीमहि तन्न अघोरा प्रचोदयात् ॥
61 ॐ आद्यायै च विद्महे परमेश्वर्यै च धीमहि तन्नः कालीः प्रचोदयात् ॥
62 देवी ॐ महाशूलिन्यै च विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात् ॥
63 ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराज्ञै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
64 गौरी ॐ सुभगायै च विद्महे काममालिन्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥
65 लक्ष्मी ॐ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीश्च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥
66 ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥
67 सरस्वती ॐ वाग्देव्यै च विद्महे विरिञ्चिपत्न्यै च धीमहि तन्नो वाणी प्रचोदयात् ॥
68 सीता ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै च धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात् ॥
69 राधा ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि तन्नो राधा प्रचोदयात् ॥
70 अन्नपूर्णा ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्न अन्नपूर्णा प्रचोदयात् ॥
71 तुलसी ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे विष्णुप्रियायै च धीमहि तन्नो बृन्दः प्रचोदयात् ॥
72 महादेव ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥
73 रुद्र ॐ पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥
74 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥
75 शङ्कर ॐ सदाशिवाय विद्महे सहस्राक्ष्याय धीमहि तन्नः साम्बः प्रचोदयात् ॥
76 नन्दिकेश्वर ॐ तत्पुरुषाय विद्महे नन्दिकेश्वराय धीमहि तन्नो वृषभः प्रचोदयात् ॥
77 गणेश ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
78 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥
79 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
80 ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥
81 ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥
82 षण्मुख ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥
83 ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षष्ठः प्रचोदयात् ॥
84 सुब्रह्मण्य ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात् ॥
85 ॐ ॐ ॐकाराय विद्महे डमरुजातस्य धीमहि! तन्नः प्रणवः प्रचोदयात् ॥
86 अजपा ॐ हंस हंसाय विद्महे सोऽहं हंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
87 दक्षिणामूर्ति ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात् ॥
88 गुरु ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्मणे धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥
89 हयग्रीव ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
90 अग्नि ॐ सप्तजिह्वाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात् ॥
91 ॐ वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात् ॥
92 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्नो अग्निः प्रचोदयात् ॥
93 यम ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नो यमः प्रचोदयात् ॥
94 वरुण ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नो वरुणः प्रचोदयात् ॥
95 वैश्वानर ॐ पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात् ॥
96 मन्मथ ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पवनाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात् ॥
97 हंस ॐ हंस हंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
98 ॐ परमहंसाय विद्महे महत्तत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
99 नन्दी ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो नन्दिः प्रचोदयात् ॥
100 गरुड ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥
101 सर्प ॐ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नः सर्पः प्रचोदयात् ॥
102 पाञ्चजन्य ॐ पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शङ्खः प्रचोदयात् ॥
103 सुदर्शन ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् ॥
104 अग्नि ॐ रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो वह्निः प्रचोदयात् ॥
105 ॐ वैश्वानराय विद्महे लाललीलाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात् ॥
106 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निमथनाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात् ॥
107 आकाश ॐ आकाशाय च विद्महे नभोदेवाय धीमहि तन्नो गगनं प्रचोदयात् ॥
108 अन्नपूर्णा ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्नोऽन्नपूर्णा प्रचोदयात् ॥
109 बगलामुखी ॐ बगलामुख्यै च विद्महे स्तम्भिन्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
110 बटुकभैरव ॐ तत्पुरुषाय विद्महे आपदुद्धारणाय धीमहि तन्नो बटुकः प्रचोदयात् ॥
111 भैरवी ॐ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
112 भुवनेश्वरी ॐ नारायण्यै च विद्महे भुवनेश्वर्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
113 ब्रह्मा ॐ पद्मोद्भवाय विद्महे देववक्त्राय धीमहि तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात् ॥
114 ॐ वेदात्मने च विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
115 ॐ परमेश्वराय विद्महे परतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
116 चन्द्र ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्त्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥
117 छिन्नमस्ता ॐ वैरोचन्यै च विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
118 दक्षिणामूर्ति ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात् ॥
119 देवी ॐ देव्यैब्रह्माण्यै विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
120 धूमावती ॐ धूमावत्यै च विद्महे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात् ॥
121 दुर्गा ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥
122 ॐ महादेव्यै च विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
123 गणेश ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
124 ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
125 गरुड ॐ वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥
126 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपर्णाय (सुवर्णपक्षाय) धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥
127 गौरी ॐ गणाम्बिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥
128 ॐ सुभगायै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥
129 गोपाल ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात् ॥
130 गुरु ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥
131 हनुमत् ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॥
132 ॐ अञ्जनीजाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॥
133 हयग्रीव ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
134 इन्द्र, शक्र ॐ देवराजाय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्नः शक्रः प्रचोदयात् ॥
135 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सहस्राक्षाय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात् ॥
136 जल ॐ ह्रीं जलबिम्बाय विद्महे मीनपुरुषाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥
137 ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नस्त्वम्बु प्रचोदयात् ॥
138 जानकी ॐ जनकजायै विद्महे रामप्रियायै धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात् ॥
139 जयदुर्गा ॐ नारायण्यै विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥
140 काली ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नोऽघोरा प्रचोदयात् ॥
141 काम ॐ मनोभवाय विद्महे कन्दर्पाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात् ॥
142 ॐ मन्मथेशाय विद्महे कामदेवाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात् ॥
143 ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात् ॥
144ॐ दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥
145ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्ण: प्रचोदयात्: