जगन्नाथपुरी — आज भारत की जनसंख्या में लगभग आधी आबादी युवाओं की है। युवा वर्ग के पास शिक्षा , हुनर , कला , श्रमशक्ति उपलब्ध है किन्तु उनको सही मार्ग नहीं दिखता कि इन योग्यताओं का वह स्वयं , परिवार , समाज एवं राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए किस प्रकार उपयोगिता सिद्ध करें। ऐसी अवस्था में यदि युवा वर्ग श्रीगोवर्धन मठ पुरी के प्रकल्प आदित्यवाहिनी के संयोजन के मूल भावना को समझकर इससे जुड़ता है तो स्वयं स्वावलंबी व सुबुद्ध बनकर अन्यों के लिये भी मार्ग प्रशस्त कर सकता है। आईये जानते हैं कि श्रीगोवर्धन मठ पुरी क्या है ? इसके प्रकल्प आदित्यवाहिनी से जुड़कर कैसे हम अपने लौकिक और पारलौकिक उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेंगे। ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व भगवान आदि शंकराचार्य जी महाभाग का प्रादुर्भाव हुआ था । तात्कालिन बौद्ध धर्म की बहुलता के समय उन्होंने सनातन धर्म को पुनर्स्थापित किया था तथा अपने जीवन काल में सनातन धर्म के प्रचार प्रसार के लिये सम्पूर्ण भारतवर्ष को चार भागों में विभक्त करके अपने चिन्मय करकमलों द्वारा चार मान्य पीठ की स्थापना करके अपने प्रमुख शिष्यों को शंकराचार्य के पद पर आरूढ़ कराया था , तब से इन चारों मान्य पीठों में शंकराचार्य परंपरा चली आ रही है। भारत के पूर्वी भाग पुरी उड़ीसा में स्थित श्रीगोवर्धन मठ आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मान्य पीठों में से एक है । वर्तमान में ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरी में श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी पीठ के 145 वें शंकराचार्य के रूप में विराजमान मान है । जब हम सृष्टि की , सम्पूर्ण विश्व की , यहांँ के समस्त प्राणियों के कल्याण की भावना रखते हैं यह तभी संभव है जबकि हम सनातन संस्कृति का आलंबन लें। हमारे वेदादि शास्त्रों में निहित ज्ञान विज्ञान वर्तमान वैज्ञानिक , दार्शनिक एवं व्यावहारिक धरातल पर आज भी प्रासंगिक है तथा इस कम्प्यूटर , मोबाईल , ऐटमबम के युग में भी इनकी उपयोगिता सर्वोत्कृष्ट है। पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी इस पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व धर्मसम्राट स्वामी श्रीकरपात्री जी महाराज के दीक्षित शिष्य होकर उनसे धर्म , अध्यात्म , गोरक्षा , राष्ट्ररक्षा , व्यासपीठ एवं शासनतन्त्र का शोधन आदि विषयों पर कार्य हेतु आशीर्वाद प्राप्त किया। स्वामी श्रीकरपात्री जी ने राजसत्ता के शोधन हेतु रामराज्य परिषद का गठन किया था , उन्हीं के प्रेरणास्वरूप समाज के सभी धर्मप्रेमी , राष्ट्रप्रेमी महानुभावों को एक संगठन के रूप में मंच प्रदान करने के पावन उद्देश्य से वर्तमान पुरी शंकराचार्य जी ने धर्मसंघ पीठ परिषद् की स्थापना की है ।धर्मसंघ पीठ परिषद के अंतर्गत आदित्यवाहिनी , आनन्दवाहिनी , राष्ट्रोत्कर्ष समिति , हिन्दू राष्ट्रसंघ, सनातन सन्त समिति कार्य करती है। इसमें 05 से 14 वर्ष तक के बालक बाल आदित्यवाहिनी , 14 से 45 वर्ष तक के युवक आदित्यवाहिनी तथा उसके ऊपर के आयु के सज्जन पीठ परिषद के सदस्य होते हैं। ठीक इसी प्रकार 05 से 14 वर्ष तक की आयु की बालिका बाल आनन्दवाहिनी के सदस्य तथा 14 से लेकर 45 वर्ष तक की मातृशक्ति आनन्दवाहिनी की सदस्या होती है । धर्मसंघ पीठ परिषद , आनन्द वाहिनी और इनसे संबद्ध संगठन प्रेरकमंडल , मार्गदर्शकमंडल का कार्य करते हैं , युवा शक्ति आदित्य वाहिनी का कार्य होता है पूज्यपाद पुरी शंकराचार्य जी के संदेशों के अनुसार संस्था के उद्देश्य की पूर्ति के लिये धर्म ,अध्यात्म , राष्ट्र रक्षा के साथ साथ स्वयं के लौकिक पारलौकिक उत्कर्ष की भावना से स्वयं को प्रस्तुत करना है। संस्था का उद्देश्य है कि अन्यों के हित का ध्यान रखते हुये हिन्दुओं के अस्तित्व एवं आदर्श की रक्षा , देश की एकता , अखण्डता तथा सुरक्षा के लिये कार्य करना। अब प्रश्न यह उठता है कि आदित्यवाहिनी से जुड़कर उपरोक्तानुसार कार्य कैसे करें ? किसी पुनीत कार्य , समष्टि कार्य को करने के लिये आत्मबल आवश्यक है , इसको प्राप्त करने के लिये प्रतिदिन लगभग सवा घंटे की उपासना की आवश्यकता है जो कि प्रंदह प्रंदह मिनट के रूप में भी प्रात: , स्नानोपरांत , दोपहर , सायं एवं रात्रि को किया जा सकता है। आत्मबल से युक्त आदित्यवाहिनी के सदस्य सांगठनिक रूप में कार्य करें क्योंकि इस कलिकाल में संगठन में ही शक्ति निहित होती है। प्रतिदिन प्रत्येक हिन्दू परिवार से एक रूपया एकत्रित कर एवं एक घंटा समयदान, श्रमदान के रूप में देकर उस क्षेत्र को सनातन मानबिन्दुओं के अनुरूप स्वावलंबी , समृद्ध , सुबुद्ध बनाने का कार्य करना है । ध्यान रहे एकत्रित राशि का उपयोग एवं श्रमदान उसी क्षेत्र में प्रकृति संरक्षण , नदी – नालों व तालाबों का संरक्षण एवं निर्मलीकरण , वृक्षारोपण , देसी गोवंश संरक्षण , मठ – मंदिरों का जीर्णोद्धार – रखरखाव , क्षेत्रवासियों को स्वरोजकार प्रदान करने एवं आत्मनिर्भर बनाने के लिये क्षेत्रीय आवश्यकतानुसार कुटीर उद्योगों के लिये प्रशिक्षण की व्यवस्था , संगोष्ठी के माध्यम से सनातन संस्कृति अनुरूप संयुक्त परिवार की आवश्यकता पर जनजागरण तदानुसार कुलदेवी , कुलदेवता , कुलगुरू , कुलपरंपरा का महत्त्व प्रतिपादित करना , नैतिक शिक्षा के माध्यम से बच्चों में प्रारंभ से ही संस्कार स्थापित करना , प्रतिभाओं के लिये खेलकूद , सांस्कृतिक , आध्यात्मिक गतिविधि का आयोजन कराना , स्वास्थ्य परीक्षण , निर्धन , असहाय , दिव्यांग की सहायता की भावना जैसे अनेक प्रकल्प संभव हो सकते हैं। प्रत्येक सप्ताह सभी की सुविधा की दृष्टि से समय निर्धारित कर मठ मंदिर या सार्वजनिक स्थान पर सामूहिक संकीर्तन का आयोजन इससे संगठन के सभी सदस्यों का आपस में मेल-मिलाप होगा , भगवत भजन से आध्यात्मिक बल मिलेगा। सामयिक विषयों पर चर्चा तथा भावी क्रियान्वयन के लिये भी चर्चा की जा सकती है। धर्मसम्राट स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज का कथन है कि समष्टि हित की भावना मनुष्य को ईश्वर कल्प बना देता है , समष्टि हित की भावना से कार्य करने से ही स्वयं का हित संभव है क्योंकि समष्टिहित में ही व्यष्टहित समाहित है। जब हम राजनीति या शासनतन्त्र की बात करते हैं तो भावना यह होती है कि सबको बराबर का अवसर मिले ,ऐसी व्यवस्था हो कि सबकी हित की भावना हो। यह सनातन संस्कृति के अनुकरण में ही संभव है कि जब हम रामराज्य के रूप में धर्मनियन्त्रित , पक्षपातविहीन , शोषणविनिर्मुक्त , सर्वहितप्रद शासनतन्त्र की स्थापना की देश में संकल्पना करें। शास्त्रसम्मत एवं वैदिकपरक राजनीति की विश्वस्तर पर चर्चा करते हुये पुरी शंकराचार्य जी का कथन है कि सुसंस्कृत , सुशिक्षित , सुरक्षित , संपन्न , सेवापरायण , स्वस्थ एवं सर्वहितप्रद व्यक्ति तथा समाज की संरचना ही राजनीति की विश्व स्तर पर शुद्ध परिभाषा हो सकती है। ऐसी स्थिति में वैदिक सिद्धांत में आस्थान्वित समस्त महानुभावों का परम दायित्व होता है कि वे सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर द्वारा प्रतिपादित वैदिक सिद्धांत की अर्थात सनातन मानबिन्दुओं की रक्षा के लिये पूज्यपाद श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पुरीपीठाधीश्वर महाभाग के संगठनों , अभियानों से जुड़े। सुशीलता , सक्रियता , सूझबूझ का परिचय देकर नीति और अध्यात्म का प्रशिक्षण लें , भारत तथा विश्व के मंगलमय स्वरूप को उद्भासित करें। धर्मप्राण देश भारत में धर्म एक आवश्यक तथ्य है, लेकिन वर्तमान काल में हिन्दू जनमानस इससे दूर होता दिख रहा है। जैसे किसी को अच्छे चिकित्सक का पता ना हो तो वो किसी फर्जी चिकित्सक के चपेट में आ जाता है, जो उनके स्वास्थ्य , सम्पत्ति और समय के लिये घातक ही सिद्ध होता है। वैसे ही परम्पराप्राप्त आचार्यों का पता न होने पर व्यक्ति धर्म के नाम पर ऐसी जगह चला जाता है , जहांँ पर उसके आस्था, विश्वास, श्रद्धा, सम्पत्ति व समय का क्षरण होता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक हिन्दू परिवार का दायित्व होता है कि वो शास्त्रोचित धार्मिक आचरण, धार्मिक ज्ञान व धर्म के ऊपर आ रहे खतरों से निबटने के लिये गोवर्धनमठ पुरी से जुड़े। जहाँ सनातन धर्म के सर्वोच्च आचार्य शिवावतार श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य जी महाराज का सान्निध्य सर्वदा सुलभ रहता है।
Tuesday, November 14, 2023
प्रार्थना
*इसे किसी और को न बतायें, या किसी और के पास न भेजें।*
👉प्रार्थना सरल और साफ तरीके से की जानी चाहिए और आसानी से बोली जाने वाली प्रार्थना करनी चाहिए.
👉शांत वातावरण में प्रार्थना करें।
👉प्रार्थना को रोज़ एक ही समय पर करें।
👉अपनी प्रार्थना को गोपनीय ही रखें।
👉जब भी समय मिले अपनी प्रार्थना को दोहराते रहे। इससे मनोकामनाएँ यथा शीघ्र पूर्ण होती हैं।
👉प्रार्थना करते समय आपका ध्यान भगवान पर और प्रार्थनाओं पर होना चाहिए। इस बात का ख्याल रखे की हमारा चित्त (ध्यान) इधर-उधर न भटके।
👉
👉हे नाथ! हे मेरे नाथ! मैं आपको कभी भूलू नहीं।
मैं सब विधि हीन, आपकी दया से उत्तम मानव योनी को प्राप्त किया हूँ। मूझे इस जीवन को कैसे सार्थक करना है इसका रतिभर भी ज्ञान नही। हे प्रभु! मैं अत्यन्त पापी हूँ, और नित्य पाप कर्मों में संलिप्त रहने की प्रवृति वाली हूँ, और अनेक जन्मों से पाप कर्मों में लिप्त रहने के कारण पाप कर्मों को बरबस करते रहती हूँ।
मैं इस समय मान-सम्मान, पारिवारिक उलझनों में फसी हूँ।
आप कृपा कर मेरे अवगुणों को न देखकर मेरे सम्मान की रक्षा करें।
इसलिये हे नाथ! आपकी अहेतु करूणा के कारण आज मेरी बुद्धि आपके श्री चरणों के तरफ आकृष्ट हुई है। अतः हे प्रभु आप मेरी बुद्धि को अपने चरणों में सदैव के लिये लगा लें जिससे आपके करूणा द्वारा प्रदत्त इस मानव जीवन का उद्धार हो सकें।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शक
लब्ध स्वर्ण पदक(काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
Saturday, May 27, 2023
श्रीगोवर्धन मठ पुरी का युवाओं के लिये प्रकल्प — आदित्यवाहिनी
श्रीगोवर्धन मठ पुरी का युवाओं के लिये प्रकल्प — आदित्यवाहिनी
Wednesday, May 24, 2023
सम्पूर्ण 16 संस्कार परिचय
सम्पूर्ण 16 संस्कार
1गर्भाधान संस्कार
2. पुंसवन संस्कार
3.सीमन्तोन्नयन संस्कार
4.जातकर्म संस्कार
5.नामकरण संस्कार
6.निष्क्रमण संस्कार
7.अन्नप्राशन संस्कार
8.मुंडन/चूडाकर्म संस्कार
9.विद्यारंभ संस्कार
10.कर्णवेध संस्कार
11. यज्ञोपवीत संस्कार
12. वेदारम्भ संस्कार
13. केशान्त संस्कार
14. समावर्तन संस्कार
15. विवाह संस्कार
16.अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार
1.गर्भाधान संस्कार
हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।विवाह उपरांत की जाने वाली विभिन्न पूजा और क्रियायें इसी का हिस्सा हैं.
गर्भाधान मुहूर्त
जिस स्त्री को जिस दिन मासिक धर्म हो,उससे चार रात्रि पश्चात सम रात्रि में जबकि शुभ ग्रह केन्द्र (१,४,७,१०) तथा त्रिकोण (१,५,९) में हों,तथा पाप ग्रह (३,६,११) में हों ऐसी लग्न में पुरुष को पुत्र प्राप्ति के लिये अपनी स्त्री के साथ संगम करना चाहिये। मृगशिरा अनुराधा श्रवण रोहिणी हस्त तीनों उत्तरा स्वाति धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में षष्ठी को छोड कर अन्य तिथियों में तथा दिनों में गर्भाधान करना चाहिये,भूल कर भी शनिवार मंगलवार गुरुवार को पुत्र प्राप्ति के लिये संगम नही करना चाहिये।
2.पुंसवन संस्कार
गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय ।हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है । वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए ।
क्रिया और भावना
गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ । मन्त्र बोला जाए । मंत्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए । वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे । भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है । गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है ।
ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वःपत॥
3.सीमन्तोन्नयन
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
4.जातकर्म
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
5.नामकरण संस्कार
नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है । यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दीखता । अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है । इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँचाने का सत्प्रयास किया जाता है । जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है । नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए । शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए । भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है । शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है । 'दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता ।' इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है । 'जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं ।' इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए । यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है । भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है । आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है । उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है । यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए । शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं । उसी के साथ यज्ञ एवं संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता है । यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके । तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए । घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है ।
6.निष्क्रमण्
निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
7.अन्नप्राशन संस्कार
बालक को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है । इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है । बालक को दाँत निकल आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है । तदनुसार अन्नप्राशन ६ माह की आयु के आस-पास कराया जाता है । अन्न का शरीर से गहरा सम्बन्ध है । मनुष्यों और प्राणियों का अधिकांश समय साधन-आहार व्यवस्था में जाता है । उसका उचित महत्त्व समझकर उसे सुसंस्कार युक्त बनाकर लेने का प्रयास करना उचित है । अन्नप्राशन संस्कार में भी यही होता है । अच्छे प्रारम्भ का अर्थ है- आधी सफलता । अस्तु, बालक के अन्नाहार के क्रम को श्रेष्ठतम संस्कारयुक्त वातावरण में करना अभीष्ट है । हमारी परम्परा यही है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर पंचबलि करते हैं । भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब खाते हैं । होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है । नई फसल में से एक दाना भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं । तब उसे खाने का अधिकार मिलता है । किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न निकालता है, तब घर ले जाता है । त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है । भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है...
8 मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार
इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं । लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ । यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं । इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान् एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही ।हमारी परम्परा हमें सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए ही यह संस्कार किया जाता है...
9.विद्यारंभ संस्कार
जब बालक/ बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है । इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें ।
10.कर्णवेध संस्कार
हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।
यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
11.यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
12.वेदारम्भ संस्कार
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
13.केशान्त संस्कार
गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
14.समावर्तन संस्कार
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
15.विवाह संस्कार
हिन्दू धर्म में; सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है । भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है । इसलिए कहा गया है ... 'धन्यो गृहस्थाश्रमः' ...
अंत्येष्टि संस्कार
सद्गति के भावना से उत्तम लोक कि प्राप्ति के लिए अथवा भगवत् धाम प्राप्ति के लिए श्रद्धा पूर्वक शास्त्रोंक्त विधि से किया जाने वाला अंतिम क्रिया को ही अंत्येष्टि संस्कार कहते है। यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अग्रिम जीवन का आधार यही है।
- डॉ मुकेश ओझा
Sunday, May 21, 2023
विकास का परिभाषा- शंकराचार्य जी
🚩🚩🚩🚩🚩 वेद विज्ञानं 🚩🚩🚩🚩🚩
मुझसे अगर पूछा जाए कि वेद विहीन स्रष्टि का क्या स्वरुप होगा ..वैदिक उपासनाकाण्ड , कर्मकांड , ज्ञानकाण्ड को ताक पर रख दीजिए , और वेद विहीन विकास को उदभाषित करें , क्या होगा ? ,............... ..तो उत्तर है
नरक और नारकीय प्राणियों के अतिरिक्त विश्व कुछ नहीं बचेगा , संभावित विश्व का अर्थ होगा नरक व् नारकीय प्राणी .....विश्व में जो कुछ चमत्कृति है वह वेद विज्ञानं के कारण है ....वेदोक्त कर्मकाण्ड का आलम्बन लें , वेदोक्त उपासना काण्ड का आलम्बन लें तो जीवन में उस दिव्यता का संचार होता है कि आधिदैविक द्रष्टि से व्यक्ति वायु , अग्नि , यम , कुबेर आदि जो दिक्पाल है यहाँ तक कि ब्रह्मा तक के शरीर को प्राप्त करता है जीवन को प्राप्त करता है ..........जीवन में दिव्यता का आधान वेदोक्त उपासना काण्ड , कर्म काण्ड की तिलांजलि देकर संभव ही नहीं है !
अगर कोई भौतिकवादी कहता है कि हम आत्मा को अमर नहीं मानते , परलोक को नहीं मानते , हम देहात्मवादी है शरीर को ही आत्मा मानते है केवल हम भौतिक उत्कर्ष के ही पक्षधर है .....उनको भगवती भू देवी ने क्या सन्देश दिया है श्रीमद भागवत चतुर्थस्कंध अध्याय १८ श्लोक ३,४,५ >>> सुनीए ......भूदेवी ने कहा डंके की चोट से ....वैदिक महर्षियों के द्वारा चिरपरिचित और प्रयुक्त कृषि , भोजन , वस्त्र , आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य , उत्सव , रक्षा , सेवा , न्याय और विवाह आदि जितने प्रकल्प है उनको त्याग देने पर , उपेक्षा कर देने पर भौतिक उत्कर्ष भी संभव नहीं है !
हाथ कंगन को आरसी क्या द्रष्टान्त लीजिए >>>> पुरे विश्व ने लगभग सौ वर्ष या उससे भी अधिक समय से भौतिक ढंग से विकास को परिभाषित किया लेकिन विकास के गर्भ से विनाश निकल रहा है या नहीं ?
अब इसकी व्याख्या सुन लीजिए >>> पृथ्वी , पानी , प्रकाश , पवन , आस्तिक , नास्तिक , वैदिक , अवैदिक , उभयसम्मत उर्जा के चार स्त्रोत्र है , वर्तमान में जो पुरे विश्व को परिभाषित किया गया है उसके फलस्वरूप पृथ्वी , पानी , पवन , प्रकाश सभी विकृत , क्षुब्ध व् कुपित हो रहे है या नहीं .....अब थोडा विचार कीजिए .........
आपके और हमारे जीवन में जब अन्न व् जल का दूषित संघात होता है तो कफ नामक रोग की प्राप्ति होती है , तेज जब दूषित होता है तो पित्त नामक रोग की प्राप्ति होती है , वायु के कुपित होने से वात नामक रोग की प्राप्ति होती है , जब यह सभी कुपित हो जाते है तो सन्निपात नामक रोग की प्राप्ति होती है !
गिने चुने ऐसे चिकित्सक या डॉक्टर होते है जो सन्निपात को दूर कर सके , और समाष्टि सन्निपात को जन्म देना आजकल विकास का परिणाम है या नहीं , इसका अर्थ क्या है ? पृथ्वी विकृत , दूषित व् कुपित बनाई जा चुकी है विकास के नाम पर इसी प्रकार वायु , जल , तेज को भी दूषित , विकृत और कुपित बनाया जा चूका है विकास के नाम पर ........इसलिए समष्टि सन्निपात को जन्म दिया है आधुनिक विकासशील देशो ने , विकास की वर्तमान वेद विरुद्ध परिभाषा ने समष्टि सन्निपात को जन्म दिया है ......इसलिए वेद की उपेक्षा के कारण वेद को ताक पर रख कर विकास को उदभाषित किया गया उसका परिणाम है पृथ्वी कुपित , पानी कुपित , तेज कुपित , पवन कुपित , दूषित , तथा क्षुब्ध है !
इसलिए हमने संकेत किया वेद विज्ञानं की और से पुरे विश्व को चुनौती है , चाहे उधर ओबामा जी हो या इधर मोदी जी ....ध्यान पूर्वक सुने >>>>>>>>> .वैदिक द्रष्टि से विकास को उदभाषित न करके आधुनिक विज्ञानं की द्रष्टि से वेद विहीन विज्ञानं की द्रष्टि से विकास को परिभाषित कीजिए ....उसके गर्भ से विनाश निकल आएगा !
इसलिए विकास का प्रारूप या स्वरुप वेदों के आधार पर निर्धारित करने की आवश्यकता है , विकास के लिए वेदों की और से पहली शर्त क्या है ?
१. पृथ्वी , पानी , प्रकाश , और पवन को दूषित , कुपित और विकृत किये बिना विकास को कर सकते हो तो कीजिए !
२. गौवंश , गंगा इत्यादि सब हित्प्रद व् सनातन मान बिंदु है उनको विकृत , दूषित , कुपित और विलुप्त किये बिना आप विकास को क्रियान्वित कीजिए ........पूरा विश्व असमर्थ है !
३. हम विकास के पक्षधर है लेकिन महंगाई नाम की कोई चीज न हो और विकास चरम पर हो , इस ढंग से विकास को परिभाषित कीजिए .......पुरे विश्व की मेधाशक्ति ठप्प .....महंगाई के बगैर यह लोग विकास को परिभाषित ही नहीं कर सकते , सामानांतर रखते है , विकास होगा तो महंगाई होगी , महंगाई होगी तो विकास होगा ?
इसलिए वेद विज्ञानं का चमत्कार देखिए ...सुनिए >>> विकास चरम पर हो और महंगाई नाम की कोई चीज न हो !
४. चौथी शर्त क्या है आजकल का पूरा विश्व , भौतिकवादियो का बनाया हुआ मस्तिष्क , विकास को परिभाषित करते समय नास्तिकता को ताक पर रख दें ...संभव नहीं , देहात्मवाद , शरीर को आत्मा मानकर सारी विकास की परियोजनाए है या नहीं है , इसका अर्थ बौद्धिक धरातल पर अत्यंत लुंज पुंज आधुनिक विज्ञानं की चपेट में आकर बना दिए गए !
एक कूप माण्डुक होता है , उसके लिए स्रष्टि का क्षेत्रफल कुए के अन्दर का ही हिस्सा होता है , कहने के लिए हम विकसित हो रहे है , लेकिन शरीर को आत्मा मानकर जितना विकास क्रियान्वित किया जा रहा है इसलिए हमने विश्वस्तर से
एक समस्या रखी है क्या >>>>>>>>
वेद विज्ञान विहीन विकास विनाश में हेतु है , और वैदिक द्रष्टि से यदि हम विकास को परिभाषित करेंगे तो पृथ्वी , पानी , प्रकाश और पवन को विकृत , दूषित कुपित किये बिना हमारे यहाँ विकास की परिभाषा क्रियान्वित होगी , गौवंश आदि सभी मानबिंदु सभी सुरक्षित रहेंगे और विकास की परिभाषा क्रियान्वित हो जाएगी , महंगाई नाम की कोई चीज नहीं रहेगी और वेद विज्ञान का आलम्बन लेकर विकास चरम पर होगा , इसी प्रकार नास्तिकता , देहात्म्वाद नामक कोई वाद नहीं होगा और विकास चरम पर होगा !!
सिद्ध मंत्र
१. यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व तीन बार गौतम,गौतम,गौतम कहने से यात्रा सुरक्षित व् व्यवस्थित होती है !!
२.सर्प यदि आपके सामने आ जाए अथवा पीछे पड़ जाए तो तीन बार आस्तिक ,आस्तिक, आस्तिक कहने से वह पलट कर चला जाएगा अथवा वही फन पटक कर अपनी जान दे देगा !!
३.यदि आपके सामने कोई ठग आ जाए तो तीन बार कायव्य ,कायव्य ,कायव्य कहने से आपको ठग नहीं पाएगा !!
Saturday, May 20, 2023
मंदिर में दर्शन करने के नियम - भाग-1
मंदिर में दर्शन करने के नियम - भाग-1
शास्त्र सम्मत पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड होना चाहिए यदि शास्त्र सम्मत पूजा-पाठ कर्मकाण्ड नहीं हुआ तो लाभ के स्थान पर हानि होता है।
वैदिक पूजा पाठ कर्मकाण्ड का नियम ईश्वर प्रदत्त है, मानव निर्मित नहीं जिसमें परिवर्तन हो सकें।
* मंदिर में दर्शन करने के क्या नियम है आज जानते हैं।*
👉 शुद्ध और पवित्र शरीर, वस्त्र, और वस्तुओं के साथ ही मंदिर में प्रवेश करें।
👉जिस देवता का मंदिर हो उस देवता का नाम जप मंदिर में प्रवेश करते समय से प्रारंभ कर दें और मंदिर से बाहर निकलते समय तक करें।
👉 मंदिर में किसी प्रकार के बातचीत किसी से भी न करें।
👉 भगवान के प्रतिमा को एकटक देखें और देवता के छबि को हृदय में बैठा लें, जिससे देवता का छबि जब चाहे तब हृदय में दिख सकें।
👉 मंदिर के परिसर, शिखर द्वार, सीढ़ी, दीवाल, इत्यादि को भी देव प्रतिमा ही समझकर आदर से प्रणाम करें।
👉 मंदिर के गर्भगृह में कभी भी प्रवेश न करें।
👉 देव प्रतिमा का स्पर्श कभी भी न करें।
👉देवता को अर्पण किये जानेवाले वस्तुओं को दूर से ही भाव द्वारा अर्पण करें या पुजारी को अर्पण करने के लिए दें।
👉 यदि सामर्थ्य हो तो देवता और पुजारी दोनों के लिए दक्षिणा दें।
👉 देवता के लिए दक्षिणा पुजन सामग्री के साथ ही दें। तथा प्रसाद ग्रहण करते समय पुजारी को दक्षिणा दें।
👉यदि आपके पास धन न हो तो पुजारी द्वारा दक्षिणा मांगें जाने पर हाथ जोड़कर अपनी असमर्थता जतायें, पुजारी से बहस करने से बचें।
👉 मंदिर में देवता के परिकरों(पुजारी, सफाई करनेवाले, व्यवस्था करनेवाले) का आदर करें, परिकरों के प्रति अच्छे भाव रखें।
👉यदि परिकरों द्वारा किसी प्रकार का ग़लत व्यवहार किया जाता है तो भी उनसे न उलझे। व्यवस्थापक से कहें और ईश्वर से अपनी वेदना कह कर अपने घर आ जायें।
👉 धन, समय और पुजन सामग्री के अभाव में मंदिर को बाहर से ही शिखर दर्शन कर प्रणाम करें। और भगवान से प्रार्थना करें कि मुझे धन, समय, पुजन सामग्री प्रदान करें जिससे मैं भी विधिपूर्वक पूजन दर्शन कर सकूं।
👉यदि आपके मन में कोई और भी प्रश्न हो तो हमसे पूछ सकते हैं।
- डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शक
लब्ध स्वर्ण पदक (काशी हिन्दू विश्व विद्यालय)
सम्पर्क सूत्र- 8808634026
मंदिर में दर्शन करने के नियम - भाग2 पढ़ने लिए लिंग पर क्लिक करें
http://jyotishdhyan.blogspot.com/2019/11/blog-post.html
Wednesday, May 3, 2023
नक्षत्र वाटिका, राशि वाटिका, ग्रह वाटिका
इस फोटो के चारों तरफ तीन घेरे बने हुए हैं जो सबसे पहला घेरा है उसमें 27 नक्षत्रों के नाम हैं और उनकी पोधो के भी नाम साथ में लिखे हुए हैं।
दूसरे घेरे में 12 राशियों के नाम लिखे हुए हैं साथ में उनके पौधों के नाम भी लिखे हुए हैं।
तीसरे गहरे में नौ ग्रहों के नाम लिखे हुए हैं और उनसे संबंधित पेड़ पौधों के नाम भी लिखे हुए हैं।
जहां पर पेड़ पौधे जड़ी बूटियां वृक्ष का नाम लिखा हुआ है तो उन में उन नक्षत्रों का या उन राशियों का या उन ग्रहों का वास होता है यदि हम उन पर पौधों जड़ी बूटियों या वृक्षों की पूजा करते हैं या उनको हम रत्न की तरह धारण करते हैं तब भी हमें वह जड़ी बूटियां पेड़ पौधे वृक्ष लाभ प्रदान करते हैं। 🙏
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