Monday, November 4, 2024

श्री मण्डन मिश्र और भगवान शंकराचार्य

मण्डन मिश्र की ख्याति सुनकर जब आचार्य शंकर उनके नगर गये,  तब कुएं पर जल भरने वाली महिलाओं से मण्डन के घर का पता पूछा।

महिलाओं ने कहा----  "सूर्य को देखने के लिए भी किसीसे पूछा जाता है क्या? -------

"स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं,
 कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्ध: 
जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ॥
फलप्रदं कर्म फलप्रदोऽय: 
कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्ध:
 जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ॥
जगद्ध्रुवं स्याज्जगदध्रुवं स्यात् 
कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्ध:
 जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ॥'
            (माधवीय दिग्विजय , ८/६,७,८)

"हे यतिवर !  वेद स्वतः प्रमाण है या परत: प्रमाण है, कर्म फल देता है या ईश्वर, जगत् सत्य (नित्य) है या अनित्य,  द्वार पर स्थित पिंजरों में बंद तोता, मैना आदि जहां पर शास्त्रार्थ करते हों, वही मण्डन पण्डित का घर समझो।"

दासियों का वचन सुनकर आचार्यपाद वहीं पहुँचे।
 उस समय मण्डन मिश्र पिता का श्राद्ध कर रहे थे।

पितृकर्म में संन्यासी की उपस्थिति तथा दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए,   क्योंकि श्राद्ध में नित्य, अनित्य दोनों प्रकार के पितरों का आवाहन किया जाता है। 
यति को देखकर पितर लज्जित होकर भागने की चेष्टा करते हैं। वे विचार करते हैं कि "हम सकाम कर्म उपासना में पड़े रहने के कारण पितृलोक में पड़े हैं और इन यतियों ने कर्मों को ज्ञानरूपी अग्नि में दग्ध करके ब्रह्मत्व की प्राप्ति की है।"

अतः वे घर के सब किवाड़ बंद करके पितृकर्म में लगे हुए थे। भगवान वेदव्यास जी तथा महर्षि जैमिनी भी उपस्थित थे। सब द्वार बंद देखकर आचार्यपाद उड़कर आंगन में पहुंच गए। एक यति को ऐसे समय में उपस्थित देखकर अत्यंत कुपित होकर मण्डन बोले----- 

"हे दुर्बुद्धे !  तुम कन्था का इतना भार ढोते हो, क्या एक यग्योपवित नहीं धारण कर सकते ?, क्या तुमने भाँग पी रखी है ?"

पहले उन्होंने कहा--
"कुत: मुंडी ?"
किस मार्ग से आये हो ?

शंकर ने कहा--
"आ गलान्तमुंडी।"
गले तक मुंडी हूँ।

मण्डन ---
"पन्थानं पृच्छते मया ?"
मैं रास्ता पूछता हूँ, किस रास्ते से आये हो ?

शंकर----
"तर्हि पन्थानं प्रति प्रच्छ।"
तो रास्ते से पूछो, मुझे क्यों पूछते हो?"

मण्डन----
"किं सुरा पीतं ?"
क्या सुरा पी रखी है?

शंकर (पीतं का अर्थ पीला करके)---
"न पीतं, श्वेतम्।"
पीत नहीं श्वेत।

मण्डन---- 
"किं वर्णम् जानासि ?"
क्या रंग जानते हो ?

शंकर-----
"अहं वर्णम् जानामि भवान् स्वादम्।"
मैं रंग जानता हूँ और आप स्वाद जानते हैं।  इत्यादि,,,

तब व्यास जी तथा जैमिनी जी ने मण्डन को शांत करते हुए कहा--- 

"बड़े सौभाग्य से ब्रह्मवेत्ता साक्षात शिव स्वरूप यति शिरोमणि तुम्हारे शुभकर्म में पधारे हैं। तुम्हे सपत्नीक पाद्य, अर्घ्य आदि से इनका पूजन करके आतिथ्य करना चाहिए।"

दोनों की आज्ञा प्राप्त करके मण्डन ने शंकराचार्य जी का यथोचित सत्कार किया।

आचार्यपाद भगवान् शंकर ने "वेद-वेदांत का ब्रह्मात्मैक्य सिद्धांत ही परमार्थ सत्य है, अन्य सब मिथ्या है। इसी अनुभूति-जन्य एकता से ही मुक्ति हो सकती है, अन्य उपाय से नहीं।"   इस भाव को व्यक्त करते हुए कहा-----

"ब्रह्मैक्यं परमार्थ सच्चिदमलं विश्वप्रपंचात्मना।
शुक्तिरूप्यपरमात्मनैव बहुला ज्ञानवृतं भासते।।
तज्ज्ञानन्निखिल प्रपंच विलयात्स्वात्मन्यवस्था परं।
निर्वाणं जनि मुक्तिमभ्युपगतं मानं श्रुतेर्मस्तकं ।।"

'श्रुतिमस्तक रूप उपनिषद् (वेदांत) का सिद्धांत है कि ब्रह्म एक है परमार्थ सत्ता में,  वह ब्रह्म निर्मल है, अज्ञान से आवृत्त होने के कारण उसमें जगत् का विस्तार सीपी में चांदी के समान भासित होता है। 

कार्य सहित अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति होने पर अज्ञान से भासित होने वाले जगत् का लय हो जाता है। आत्मस्वरूप में पूर्ण स्थिति हो जाने पर जीव को निर्वाण पद की प्राप्ति होती है।'

अनेकों श्रुतियों में कहा है-----  "तीन भेदों से रहित एक ब्रह्म ही है।", "ब्रह्म सत्य ज्ञान अनन्त है।",  "वह देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित है।" , "ब्रह्म विज्ञान आनन्द स्वरूप है।" , "निश्चय ही सब ब्रह्म ही है।" , "आत्मवेत्ता शोक, मोह से तर जाता है।" , "आत्मदर्शी को शोक, मोह नहीं होता।" , "ब्रह्मवित् ब्रह्म स्वरूप है।" , "वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।"

भगवान शंकर की प्रतिज्ञा सुनकर गृहस्थवर्य विश्वरूप ने प्रतिज्ञा की------

"वेदान्ता न प्रमाणं चिति वपुषि पदे तत्र संगत्ययोगात्।
पूर्वोभागः प्रमाणं पदचयगमिते कार्यवस्तून्यशेषे।।
शब्दानां कार्यमात्रं प्रतिसमधिगताः  शक्तिरभ्युन्नतानां।
कर्मेभ्यो मुक्तिरिष्टा तदिहतनुभृतामायुषः स्यात् समाप्ते।।"

'चैतन्य स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति में वेदांत (उपनिषद्) प्रमाण नहीं है। 
चैतन्य स्वरूप वस्तुरूपी परमात्मा की सिद्धि में पदों से प्राप्त होने वाली अर्थ की शक्ति ही प्रमाण है। 
वेदों का पूर्व भाग पदों के समूह से प्राप्त होने वाली अर्थशक्ति को ही प्रमाण मानता है। 
वेद ने कर्मों से मुक्ति कही है। अतः मनुष्य को आयु पर्यन्त कर्म ही करना चाहिए।' वेद ने कहा भी है---- "यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्।।"
इस प्रकार दोनों ने प्रतिज्ञा की।

नित्य प्रति दोनों अपने नित्यकर्मों से निवृत्त होकर शास्त्रार्थ में डट जाते थे। 
मध्यान्ह में भोजन के समय भारती पति से "भोजन का समय हो चुका है" यह कहती थी। 
तथा स्वामीजी को भिक्षा करने के लिए आग्रह करती थी।
 
इन दोनों का शास्त्रार्थ मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया से आरम्भ होकर दक्षिण पंचांगानुसार चैत्र शुक्ल चतुर्थी तक  ३ माह १७ दिन तक चला। 

दोपहर में भिक्षा के बाद थोड़ा विश्राम होता था। दोनो विद्वान् मुस्कुराते मुखकमल से उसी क्षण बिना रुके एक दूसरे के सिद्धांत का खंडन करते थे। 

प्रश्नोत्तर देने में किसी को पसीना नहीं आता था, न आवाज कांपती थी, न चिन्ता थी, न घबराहट।  अंतिम दिन यति के आक्षेप का उत्तर न देने के कारण मण्डन की वाणी रुक गई। घबराहट हुई, पसीना आया, उनके गले की माला कुम्हला गई। 

तब मण्डन ने आद्यशंकर की स्तुति करते हुए कहा--- "हे यतिपते !   आप तो साक्षात सदाशिव हैं। सभी देहधारियों तथा विद्याओं के स्वामी है।"  तथा दुर्वासा के शाप की कथा सुनाई।

पति की हार के अनन्तर उभयभारती ने कहा---- "अभी आपने मेरे आधे पति को जीता है, अभी मैं शेष हूँ।"  

तब उसने शास्त्रार्थ आरम्भ किया। वह सत्रह दिनों तक शास्त्रार्थ करती रही। जब उसने सभी शास्त्रों में आचार्य को अजेय समझा तब उसने विचार किया कि ये नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, इनको वात्स्यायन प्रणीत स्त्री-पुरुषों की काम-कलाओं का अनुभव नहीं है। अतः काम-कला सम्बन्धी प्रश्न करके परास्त करूंगी।   

ऐसा विचार करके उसने पूछा--- "शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष में स्त्री तथा पुरुष के मन, बुद्धि पर काम की किन-किन कलाओं का प्रभाव पड़ता है ?  काम की कितनी कलाएं है ?  उनके नाम तथा कार्य क्या है ?"

यद्यपि सर्वज्ञ शंकर ने इस शास्त्र का भी गम्भीर अध्ययन किया था। सुना जाता है कि कामशास्त्र के रचयिता वात्स्यायन ऋषि ऊर्ध्वरेता नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे तथा शुकदेव एवं बाल ऋष्यश्रृंग की भांति स्त्री-पुरुष के ज्ञान से रहित थे। 

आचार्यपाद ने संन्यासी शरीर से इनका उत्तर देना उचित नहीं समझा। स्त्री के सामने ऐसी चर्चा करने से संन्यास से पतित हो जाता है। 

अतः गृहस्थ शरीर से लिखित पुस्तक रूप में उत्तर देने का विचार किया।  तब उन्होंने चैत्र कृष्णपक्ष अष्टमी को राजा अमरुक जो कि मृत्यु को प्राप्त कर चुके थे, उनके शरीर में प्रवेश किया। उस शरीर में पांच महीने के लगभग रहे। तदनन्तर वापस आकर उभयभारती को भी उत्तर देकर मण्डन मिश्र को अपना शिष्य बनाया।

हर हर महादेव
#वन्दे_हरिहरानंद_करपात्रं_जगदगुरुम 
#धर्म_सम्राट्_स्वामी_श्री करपात्री_जी_महराज की जय हो

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