संस्कारविमर्श ६ (गर्भाधान के बाद माता पिता का दायित्व)
हमारे ऋषियों ने संस्कारों का बड़ी गम्भीरता से विमर्श किया हैं और उनकी उपादेयता सिद्ध करके विश्वगुरु की प्रतिष्ठा प्राप्त की हैं।
मनुस्मृति में कहा हैं - इस देश (भारत)में उत्पन्न अग्रजन्मा(विद्वान् ब्राह्मणों)से संसार के सभी लोग अपने अपने चरित्र को सीखें - "(एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। मनुः २/२०।।)"
संस्कारों से मण्डित सनातनधर्म की अपनी विशेष महिमा हैं, किंतु दिव्य भूमि भारतदेश आज संस्कारविहिनों का देश होने जा रहा हैं। यह बहुत बड़ी चिन्ता की बात हैं। हमारी पहचान हमारी धरोहर हैं। हमारा आचार हमारी संस्कृति हैं, हमारी वेशभूषा हमारी वाणी हैं। हमारे सांस्कृतिक आधार आप्तवाक्य और वेदादि महान् ग्रन्थ हैं। ४ वेद, ६ वेदांग, मन्वादि स्मृतियां, ईशादि उपनिषद्, १८पुराण, रामायण,महाभारत,रामायण, रामचरितमानस, गीतादि धर्मग्रन्थों एवं गुरुजन, संत-महात्मा - किसी ने भी धर्मविरुद्ध आचरण की अनुमति नहीं दी। किसी ने आचारविहिन जीने का आदेश नहीं दिया;फिर कहाँ से ये गर्हित विचार और व्यवहार आ गये, जिसके कारण हमारी पीढ़ी संस्कारों का नाम भी नहीं जानती। यह दोष कहाँ से आया ? यह विमर्श्य हैं,चिन्तनीय हैं। यदि समय रहते इस ओर हम सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं, जब हम अपने सनातन गौरव को सर्वथा के लिये भुला ड़ालेंगे।
हम ऋषियों की संतान हैं,हमें सदसद्विवेचनी बुद्धि पूर्वजों से प्राप्त हैं। यदि कुसंगमात्र से परहेज कर लिया जाय और हम अपनी आर्ष परम्परा का स्मरण करे तथा तदनुरूप सदाचार का पालन करें तो हम पुनः गौरवान्वित हो जायेंगे। अन्य धर्मावलम्बी हमारी तरह परमुखापेक्षी, परधर्मसेवी एवं अपसंस्कृति के अनुयायी नहीं बन रहे हैं। वे कट्टरपन्थी करवाकर भी गौरव का अनुभव करते हैं और एक हम हैं, जो स्वधर्म के अनुष्ठान में लज्जा का अनुभव करते हैं वह भी मात्र किसी संस्काररहितों की खुशीयों के लिए । इसलिये वैभवशाली संस्कृति सम्पन्न होनेपर भी हम उपहास के पात्र बन बैठे हैं। इसलिये हमें चाहिये कि हम गीता अध्याय ३-३५ के इस वाक्यका सदा स्मरण करें और आचरण में लायें #स्वधर्मे_निधनं_श्रेयः_परधर्म_भयावहः।।
आचार सभी का धर्म हैं, यह निश्चित हैं। जो हीन आचरणवाला हैं, वह संसार में भी नष्ट हो जाता हैं तथा मरकर परलोक में भी । संस्कारों का उचित प्रवेश मनुष्य के उत्थान-पतन के मार्ग को प्रशस्त करता हैं। जीवन में कुसंस्कार और संस्कार के प्रवेश से ही व्यक्ति वन्दनीय और निन्दनीय होता हैं। संस्कारों का गौरव असीम हैं। हीन आचरणवालें कुसंस्कारी का उद्धार होना कठिन हैं -- "( नैनं तपांसि न ब्रह्म नाग्निहोत्रं न दक्षिणाः। हीनाचारमितो भ्रष्टं तारयन्ति कथञ्चन।। वसिष्ठस्मृति ६/२।।)"अर्थात् हीन आचरणवाले को तप, वेद, अग्निहोत्र और दक्षिणा किसी प्रकार से भी नहीं तार सकतें। इसके विपरित श्रद्धालु और असूया दोष से रहित सत्संस्कार सम्पन्न व्यक्ति सदाचार द्वारा सौ वर्षतक जीता हैं और अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्तकर धन्य हो जाता हैं - "(सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः। श्रद्धदानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति।।मनु ४/१५८।।)" कोई कोई महात्मा इस पवित्र धरातल पर अपने धर्म के कार्य को यथोचित मर्यादा में सम्पन्न करतें हुए कुछ वर्ष तक भी दर्शन देकर धरातल को पावन करने के लिए ही अवतरित होतें हैं।
मानव-जीवन के चरम उत्कर्षरूप की प्राप्ति के लिये ही हमें यह देवदुर्लभ मनुष्यशरीर मिला हैं, जिसकी महिमा संतशिरोमणि तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस ७/४३/७ में कही हैं - "/// बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।///
इस प्रकार हमें यह अमूल्य शरीर प्राप्त है, इसे पाकर हम अपने अजर अमर स्वरूप को प्राप्त करनेपर ही धन्य हैं, नहीं तो महान् अनर्थ हैं ।
गर्भकाल में माता की भावना कैसी होनी चाहिये ?
जब गर्भ में संतान होती हैं, तब माता सात्त्विक, राजस,तामसी भावना से भावित रहती हैं,जैसा अच्छा -बुरा देखती, सनती, पढ़ती, खाती-पीती हैं, उन सब का गर्भ में स्थित संतानपर प्रभाव पड़ता हैं। इसलिये गर्भवती स्त्री को राजसी, तामसी भावों से बचकर सात्त्विक भावनाएँ करनी चाहिये। गंदे सिनेमा-टेलीविजन, पोस्टर न दैखकर सात्त्विक देवदर्शन, संतदर्शन आदि ही करना चाहिये। गंदे गीत सुनना-गाना छोड़कर सात्त्विक भजन-कीर्त्तन ही सुनना-गाना चाहिये। गंदे उपन्यास पढ़ना सुनना-सुनाना छोड़कर संतचरित्रों,वीर,योद्धा पराक्रमी राजाओं का चरित्र,भक्तचरित्र, कुछ कल्याणअंक इस प्रकार से गीताप्रेस गोरखपुर के प्रस्तुत हैं - संत-अंक, नारी-अंक,स्त्री-अंक, भक्त-अंक, आदि को ही पढना-सुनना सुनाना चाहिये। भागवत, रामायण, पुराणोपपुराण आदि विद्वान् ब्राह्मण के मुख से सुनना चाहिये। विद्वान होना मात्र भी उचित नहीं अपितु महाभारत में कहा गया हैं कि जिनके विद्या, माता और पितृपिढ़ीयों से ब्राह्मण कुल और कर्म - ये तीनों शुद्ध हों, उन सत्पुरुषों, की सेवा करें, उनका सत्संग करें। उनका सत्संग स्वाध्याय से भी श्रेष्ठ हैं --- "(येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च। ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी।। महाभा०अनुशासन पर्व १अध्याय २७।।)"
इसके विपरित दुर्जनों, दुष्टों के सङ्ग के दुष्परिणामों पर प्रकाश डालते हुएँ कहा गया हैं - दुष्ट,पातकी,लंपट,व्रात्य,दुर्भोजी,अक्कर्मी(अपनी वेद-शाखा के अनुसार अनिवार्य द्विज के नित्यकर्मों को भलीँभाँति न करनेवाला)अनाचारी,कुलघ्नी( जाति बहार विवाह करनेवाला)तथा व्यसनी मनुष्यों के दर्शन से , स्पर्श से उनके साथ वार्तालाप करने से धार्मिक आचार नष्ट हो जाते हैं। ऐसे कुसङ्गी मनुष्य कभी भी अपने किसी कार्य में, विशुद्ध वर्णाचार के लिये सफल नहीं हो सकतें ---> "( असतां दर्शनात् स्पर्शात् सञ्जल्पाच्च सहासनात्। धर्माचाराः प्रह्रीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः।। महाभारत वनपर्व १/२९।।)" इसलिये उचित आचार सम्पन्न कुलिन विद्वान् ब्राह्मण से ही धर्मग्रन्थों का श्रवण कर मनन करतें हुएँ, तदनुरूप अपने जीवन को ढ़ालने का दृढ़ और सत्संकल्प करना चाहिये। राजस-तामस,अभक्ष्यपदार्थों,अतितीक्ष्ण मिर्च-मसाला छोड़कर कृत-वैश्वदैव, अतिथिब्राह्मण का कच्चे अन्नादि से सत्कार के पश्चात् यज्ञशिष्टान्न - सात्त्विक दूध-घी-दाल-रोटी, मैथी, आदि ही खाना पीना चाहिये। गर्भकालीन भावना का संतानपर प्रभाव पड़ता हैं, इसमें प्रह्लादजी का उत्तमचरित माननीय हैं।
मन्वर्थमुक्तावली टीका के लेखक आचार्य कुल्लुक-भट्ट ने मनुस्मृति के २/६ "स्मृतिशीले च तद्विदाम्।। श्लोक की टीका में हारीत के द्वारा निर्दिष्ट शील के तेरह परियाचक तत्त्वों की चर्चा की हैं तदनुसार माता-पिता का शील रहना चाहिये - " ( ब्रह्मण्यता देवपितृभक्तता सौम्यता अपरोपतापिता अनसूयता मृदुता अपारुष्यं मैत्रता प्रियवादित्वं कृतज्ञता शरण्यता कारुण्यं प्रशान्तिश्चेति त्रयोदशविधं शीलम्।।)"---- अर्थात् १ वेदज्ञ ब्राह्मणों के प्रति समादर भावना, २ देव और पितरों के प्रति भक्तिभावना, ३ सौम्यता, ४ दूसरों को पीड़ा न पहुँचाना, ५ दूसरों के गुणों की उत्कृष्टता के प्रति दोषारोपण न करने की भावना, ६- व्यवहार में कोमलता, ७ निष्ठुरता से रहित मनोभावना, ८ सब के प्रति मैत्रीभाव , ९ प्रियवादिता, १० कृतज्ञता(कृतघ्नता नहीं),११ शरणागत की रक्षा करना, १२ -दया या करुणा की भावना और १३- शान्तचित्तता - ये तेरह शील के स्वरूप हैं।
आचरण से शरीर में अच्छाई और बुराई उत्पन्न होती हैं, जिस समय मनुष्य बुरों की संगत में पड़ता हैं या स्वयं उसके हृदय में बुरे आचरण का प्रवाह बहने लगता हैं तो ऐसी दशा में बुरे आचरणों का आश्रय लेना पड़ता हैं तो गर्भ के बालक पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। इसके अनेक भेद हैं जो गर्भावस्था तक रहतें हैं। कुछ आचरण की चर्चा आयुर्वेद की सुश्रुतसंहिता से करतें हैं --
यदि गर्भवती अंगो को फैलाकर सोवें और रात्रि में फिरा करे तो उन्मत्त सन्तान होती हैं(सुश्रुत सं० ८/४१)
यदि कलह और लड़ाई करना गर्भवती को अच्छा मालूम हो, या करे तो भृँगी रोगवाली संतान होती हैं (८/४१)
गर्भवती बहुत सोचें ,विचार किया करें तो करनेवाली, क्षीण अथवा अल्पायुवाली संतान होती हैं (८/४६)
कामचोरी किया करे तो आलसी , झगडा करनेवाली और बुरे कामों में लगी करनेवाली के समान सन्तान होती हैं(८/४१)
क्रोधी रहने से छली और चुगलखोर सन्तान होती हैं(८/४२)
*बहुत सोनेवाली की तन्द्रावाली, मूर्ख या मन्दाग्नि रोगवाली सन्तान होती हैं (८/४१)*
गर्भावस्था में मैथुन करें तो बदचलन और कन्या का जन्म हो तो परपुरुषगामिनी (शरीर-अध्याय कर्मचिकित्सा)
जैसा आचरण गर्भवती का होता हैं उसी के अनुसार सन्तान उत्पन्न होती हैं (शरीर अध्याय कर्म चिकित्सा)
इस प्रकार बुरे आचरणों से अनेक प्रकार की सन्तान उत्पन्न होती हैं अतएव माता-पिता को अपने आचरणों पर विशेष शास्त्रदृष्टि से ध्यान रखना चाहिये।
इच्छा वह चीज हैं कि मनुष्य के हृदय का भाव मालूम होता हैं। जब मनुष्य किसी बात की इच्छा करता हैं तो उसको अपनी इच्छा के वश में हो जाना पड़ता हैं, जबतक वह वस्तु उस को नहीं मिलती ,उसके पाने की लालसा लगी रहती हैं। गर्भवती में इच्छाशक्ति अच्छी तरह से चौथे महीने में उत्पन्न होती हैं, उस समय गर्भस्थित बालक का हृदय बन जाता हैं और माता की इच्छा में बच्चे की इच्छा भी मिली रहती हैं। अतएव माता की इच्छा का बुराभला प्रभाव अनेक प्रकार से पड़ता हैं। इसलिये शिष्ट इच्छा और आचरण पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
आईये कुछ जानतें हैं चरकसंहिता से - मैथुनप्रिय हो अर्थात् उसको मैथुन की इच्छा हो तो निर्लज्ज, विकलांग अथवा मेहरा, रांड़िया सन्तान उत्पन्न होती हैं ( चरक संहिता शरीरस्था ८/४१)
पराये धन के हरने की इच्छा करे तो कुठने और ईर्षावाली अथवा राढ़ियाँ या जनानियाँ सन्तान उत्पन्न होती हैं (चरकसंहिता ८/४१)
अपनी इच्छा के अनुसार गर्भवती को मनमाना पदार्थ न मिलने से गर्भ का बालक बौना,कुबड़ा,ढूँढा, पागल, मूर्ख और नेत्रविकारवाली संतान उत्पन्न होती हैं इस में शिष्ट वस्तु आदि की इच्छा बढ़ानी चाहिये , मनमाना पदार्थ मिल जाय तो पराक्रमी चिरंजीवी और उत्तम संतान होतीं हैं (३/२१)
जिन जिन इन्द्रियसुख को गर्भवती भोगनेकी इच्छा करे उनके न मिलने से गर्भ बाधा पहुँचती हैं,इसलिये सत् इच्छाओं से मन को गर्भावस्था के पहिले से ही दृढ़ करना चाहिये (३/२२-२४)
यदि गर्भवती उत्तमवस्त्राभूषण की इच्छा करे तो शौखीन सन्तान उत्पन्न होती हैं, इससे यह भी मानना चाहिये कि ओछे-छिंछोंरे वस्त्र पहनने की इच्छा से निर्लज्ज सन्तान होती हैं (सुश्रुत ३/२६)
यदि महात्मा, देवताओ के दर्शन की इच्छा हो तो धर्मशील और सत्पात्र --- (सुश्रुत सं०३/२७)
हिंसक पशु,कुत्ते,बिल्ली आदि देखने की इच्छा करे तो हिंसक सन्तान इसलिये पालनेवालें संभल जाय (सुश्रुत संहिता ३/२८)
बदचलनी की लिये किसी मित्र से मिलने की इच्छा हो तो बदचलन पुत्र और कन्या होवें तो वह कुकर्म करनेवाली ,
किसी स्नेही से मिलने की इच्छा करे तो सदाचारी संतान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय )
श्रेष्ठ और पूज्यजनों से मिलने की इच्छा से सदाचारी , खेल करने की इच्छा से हँसमुख , लिखने पढ़ने की इच्छा से गुणिन् सन्तान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय)
नाच,गाने की इच्छा हो तो बेशर्मवाली शृंगाररसभरी संतान होती हैं, उत्तम फल खाने की इच्छा से शुद्धभोजन करनेवाली सन्तान होती हैं, फुलवारी उपवनों में सैर करने की इच्छा से प्रसन्न चित्तवाली संतान होती हैं, दिल्लगी करने की इच्छा हो तो पुत्र परस्त्रीप्रिय और पुत्री जन्में तो कुकर्मी और द्रव्य एकत्र करने की इच्छा से कंजूस संतान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय)
इच्छा बहुत बड़ी चीज हैं। गर्भसमय से इससे सावधान और संयम से रहना चाहिये - जहाँचक हो सके उत्तम इच्छा का होना ठीक हैं, क्योंकि इच्छा का बहुत बड़ा प्रभाव बालकों पर पड़ता हैं। माता की जैसी इच्छा होती हैं उसी के अनुसार सन्तान भी उत्पन्न होती हैं।
आहार वह वस्तु हैं कि जिससे शरीर का पोषण होता हैं। गर्भ का बालक भी आहार के रस से पलता और पुष्ट होता हैं। अतएव माता का जैसा आहार होगा उसी के गुणदोष के अनुसार बच्चा भी होगा। आहार के गुणदोष बच्चों में अनेक प्रकार से होतें हैं ।
अधिक मीठा भोजन खानेवाली गर्भवती से प्रमेहरोगवाली, गूँगी या मोटी सन्तान होती हैं, अधिक खटाई खानेपर रक्त पित्त से रोगी,कुष्ठी या नेत्ररोगवाली, अधिक नमक खानेवाली गर्भवती से बली,पलित और खलित्य रोगग्रस्त, चरपरे रस का अधिक सेवन करने से दुर्बल,थोड़े वीर्य और उससे सन्तान न होने वाली, कडुए रस के सेवन करनेवाली की शोषी,दुर्बल और सूखी, कसैले रस का सेवन करनेवाली की कालेरंगवाली या अफरा या उदावर्त रोगवाली, फीका भोजन करनेवाली की निस्तेज आलसी -सन्तानें होती हैं (रतिशास्त्र ४२)
वैश्वदेव रहित अन्न खानेवाली की कृतघ्नी और पतित तथा निंदितों का अन्न खाने वाली की तादृश दोष के समान होती हैं।
इस प्रकार विपरित भोजन के होने से अनेक प्रकार के रोग-दोषों से युक्त सन्तान उत्पन्न होती हैं।अतएव माता को अपने भोजनपर विशेष ध्यान रखना चाहिये, क्योंकि सन्तान के गुणदोष में आहार एक बहुत बड़ी महत्व की चीज हैं। खायें हुएँ पदार्थ से रस बनकर गर्भ का पोषण होता हैं। अतएव भोजन के गुण-दोषानुसार सन्तान के उत्पन्न होने में आश्चर्य क्या ?
इस लेख को सहयोग प्राप्त करवाने शास्त्री, हर्ष शर्माजी का चिन्तनीयलेख भी विचारणीय हैं -
प्राय: वर्तमान समाज आधुनिक होता जा रहा है | इसलिए बच्चे संस्कारी हों या ना हों इस ओर कम ध्यान जाकर बच्चे अधिक से अधिक पैसे कमाने वालों हों इस ओर अधिक ध्यान जा रहा है | किन्तु इनमें भी कुछ माता-पिता हैं जो अर्थ के साथ-साथ बच्चों में संस्कार भी चाहते हैं | और वर्तमान समाज के सभी माता-पिता संस्कार का आधार ही रखते हैं मांसाहार से |..................
आप सोच रहे होंगे क्या सभी माता-पिता आजकल अपने बच्चों को मांसाहार देते हैं ?
हाँ, यह सत्य है | क्योंकि आप लोगों का पूर्वाग्रह (पहले से ही सोच लेना कि हमारी बात सही है) है |
जी हाँ आप लोगों ने मान लिया है एलोपेथी एक उत्तम स्वास्थ पद्धति है और हम उसी को स्वीकारेंगे चाहे उसमें मांस, रक्त और पशुओं को कितना ही कष्ट क्यों ना हो | क्योंकि हमें धर्म से कुछ लेना देना नहीं |
आज गर्भवती स्त्री के लिए सर्वप्रथम एलोपेथी चिकित्सा का प्रबंध किया जाता है और उसमें होता क्या है - गर्भवती को कैल्शियम देने के लिए कैल्शियम की गोली जिसमें पशुओं की हड्डी होती है, गर्भवती को रक्त की पूर्ति हेतु सीरप जिसमें पशुओं का रक्त होता है (जैसे - dexorange आदि) और पशुओं की खाल, नख, चर्बी आदि से बनने वाले कैप्सूल और दवाईयाँ |
तो गर्भ से ही जिस बालक को मांस और रुधिर का सेवन कराया गया वो भला कैसे संस्कारी होगा ? और यदि हुआ भी तो कुछ ना कुछ कुसंस्कार उसमें रहना स्वाभाविक हैं | यही कारण है कि वर्तमान के कुछ युवा धर्म गुरु उपदेश के साथ-साथ भोगों में भी लिप्त पाए गए |
अत: अपने विचार को समय रहते परिवर्तित कर लीजिए अन्यथा लोक-परलोक तो बिगड़ेगा ही उसके साथ-साथ कुल का भी नाश हो जाएगा |