🔴प्रश्न :
आपने हमें बहुत डरा दिया है। चौरासी कोटि योनियों में भटकने के बाद जीवन-चक्र का आरा केवल एक बार ही मनुष्य-रूप में आता है और इस बार में मूर्च्छा एवं अज्ञानवश भगवद्स्वरूप होने की संभावना खो जाए और खो जाने की पूरी व्यवस्था है, तो क्या पुनः चौरासी कोटि योनियों में भटकना पड़ेगा? चौरासी कोटि योनियों का अभिप्राय कृपा करके समझाइए और हमें भय से मुक्त करिए।
भय से मुक्त मैं तुम्हें नहीं कर सकता, तुम ही कर सकते हो। भय वास्तविक है। तुम चाहोगे कि मैं तुमसे कह दूं कि नहीं जी, कोई चिंता की बात नहीं है, चौरासी कोटि योनियां वगैरह नहीं होतीं--ताकि तुम निर्भार हो जाओ और लग जाओ अपनी वासनाओं की दौड़ में फिर।
नहीं, यह मैं तुमसे नहीं कह सकता। ऐसा ही है। सत्य यही है कि यह जो वर्तुल है, यह घूम रहा है। तुमने अगर मनुष्य होने का लाभ न उठाया तो तुम मनुष्य होने का हक खो देते हो। यह सीधा-सा गणित है। आखिर मनुष्य होने का हक तुम्हें मिला है--किसी कारण से।
बुद्ध से किसी ने पूछा--एक युवक आया, संन्यस्त होना चाहता था--उसने पूछा कि आपको देखकर, राह पर आपको चलते देखकर, आपकी यह प्रसादपूर्ण कांति, आपका यह अपूर्व अपार्थिव सौंदर्य--मेरे मन में भी बड़ी गहन आकांक्षा उठी है। मगर मैंने कभी इसके पहले संन्यास का सोचा भी नहीं था। और मैं कभी धर्म इत्यादि में उत्सुक भी नहीं रहा। पंडित-पुरोहितों से मैं ज़रा दूर ही दूर रहा। मेरे पिता और मेरी भी मुझे अगर कभी ले जाना चाहते हैं तो मैं बच जाता हूं हजार बहाने करके। पंडितों की बातें सुन कर मुझे सिर्फ सिरदर्द हो जाता है और ऊब आती है। मगर आपको देखकर मैं बड़ा आंदोलित हो गया हूं और एक भाव उठता है भीतर कि मैं दीक्षित हो जाऊं। मगर यह मेरी समझ में नहीं आता कि अनायास! पीछे कोई सिलसिला नहीं है, कोई श्रृंखला नहीं है। अनायास! इतनी बड़ी बात होने की मेरे मन में कैसे कामना आ गई!
बुद्ध ने आंख बंद की और उसे कहा : "युवक, तुझे पता नहीं, तू पिछले जन्म में हाथी था। जंगल में आग लग गई थी और तू भागा जा रहा था। सारे पशु-पक्षी भागे जा रहे थे। थका-मांदा तू एक वृक्ष के नीचे थोड़ी देर विश्राम करने को खड़ा हो गया। तेरे पैर थक गए थे और एक पैर के नीचे कांटा चुभ रहा था, तो तूने वह पैर ऊपर उठाया। जिस बीच तूने पैर ऊपर उठाया उसी बीच एक खरगोश तेरे उस पैर के नीचे आकर बैठ गया। तूने नीचे नहीं देखा। वह घड़ी ऐसी थी कि सारा जंगल आग से लगा था। वह मौका ऐसा था कि तुझे एक बात दिखाई पड़ी : हम सभी जीवन के लिए भागे जा रहे हैं: यह खरगोश भी बेचारा भागा जा रहा है। मैं थक गया, मैं बड़ा हाथी हूं, तो यह भी थक गया है। और यह किस निश्चिंतता से मेरे पैर के नीचे बैठा है जो मैंने उठाया हुआ है; अब मैं रखूंगा पैर नीचे तो यह मर जाएगा।
"वह घड़ी ऐसी थी कि तू अपने जीवन के लिए इतना उत्सुक था, तेरी जीवेष्णा इतनी प्रबल थी कि बच जाऊं, कि तुझे यह लगा कि जैसे मैं बचना चाहता हूं वैसे सभी बचना चाहते हैं। तुझे बड़ा बोध हुआ। और तू पैर वैसा ही उठाए खड़ा रहा और वह खरगोश नीचे निश्चिंत बैठा रहा। जब खरगोश हट गया तब तूने पैर नीचे रखा। लेकिन पैर अकड़ गया था। तू नीचे न रख पाया, गिर पड़ा। खरगोश तो बच कर निकल गया लेकिन तू उस जंगल में लगी आग में जल कर मर गया। लेकिन मरते वक्त तेरे मन में बड़ी तृप्ति थी, एक बड़ी शांति थी, एक अपूर्व उल्लास था, एक आनंद का भाव था कि मैंने खरगोश को नहीं मारा; चलो मैं मर गया, ठीक। उसका फल है कि तू मनुष्य हुआ।'
बुद्ध ने कहा : तूने वह जो करुणा दिखाई, उस करुणा के कारण तू मनुष्य हुआ। उसी करुणा के कारण तेरे भीतर यह बीज पड़ गया।
बुद्ध कहते थे : जिसके जीवन में करुणा हो उसके जीवन में प्रज्ञा आती है, बोध आता है। और जिसके जीवन में प्रज्ञा हो उसके जीवन में करुणा आती है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जो व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध होकर प्रज्ञा को उपलब्ध होता है उसके जीवन में महाकरुणा आ जाती है। और जिसके जीवन में महाकरुणा आ जाती है। और जिसके जीवन में करुणा की थोड़ी-सी भी गंध हो, वह आज नहीं कल समाधि में उत्सुक हो ही जाएगा। उस करुणा के कारण आज राह पर चलते मुझे देखकर तेरे मन में यह भाव उठा। यह अकारण नहीं है, इसके पीछे श्रृंखला है।
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम मनुष्य हो, यह अकारण नहीं है। कुछ किया होगा। कुछ हुआ होगा। अनंत अनंतयात्रा-पथ पर तुमने अर्जन किया है मनुष्यत्व। यह अर्जित है। लेकिन यह अवसर अवसर ही है। यह तुम्हारी कोई शाश्वत संपदा नहीं है। तुम इसके मालिक नहीं हो गए हो। यह क्षणभंगुर है। यह आज है और कल चला जाएगा। जैसे अर्जित किया है वैसे ही गंवा भी सकते हो।
अगर एक हाथी करुणा के कारण मनुष्य हो सकता है, तो एक मनुष्य कठोरता के कारण हाथी हो सकता है। यह तो सीधा गणित है। अगर एक हाथी करुणा के कारण मनुष्य होने की क्षमता, पात्रता पैदा कर लेता है, तो तुम कठोरता के कारण, हिंसा के कारण, क्रूरता के कारण पशु होने की क्षमता में उतर ही जाओगे। जाओगे कहां और? वर्तुल घूम जाएगा। चाक घूम गया। आरा नीचे जाने लगा। फिर लंबी यात्रा है, क्योंकि आरा तभी वापिस लौटेगा जब पूरा चाक घूम जाएगा।
यह जो चौरासी कोटियों की बात है, यह एकदम अवैज्ञानिक नहीं है। और यह चौरासी करोड़ योनियों की जो बात है, यह केवल कोई पौराणिक आंकड़ा भी नहीं है। ऐसा ही है। अब तो वैज्ञानिक धीरे-धीरे धीरे-धीरे खोज करते-करते इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि हिंदुओं का आंकड़ा शायद सही सिद्ध होगा। इतनी ही कोटियां हैं। अभी तक इतनी पूरी नहीं हो पाई हैं; लेकिन रोज खोज हो रही है। पहले तो ईसाई हंसते थे कि चौरासी करोड़! चौरासी करोड़ योनियां दिखाई कहां पड़ती हैं? चलो होंगी लाख, दो लाख, पचास लाख, करोड़ मान लो; मगर चौरासी करोड़ योनियां दिखाई कहां पड़ती हैं? लेकिन अब संख्या करोड़ों में हो गई है। क्योंकि बहुत योनियां हैं जो अदृश्य हैं। बहुत-से छोटे कीटाणु हैं, सूक्ष्म कीटाणु हैं जो अदृश्य हैं। अब उनकी भी गणना हो रही है। धीरे-धीरे करोड़ों पर संख्या पहुंच गई है। और तब तो वैज्ञानिकों को लगता है कि शायद हिंदुओं का आंकड़ा चौरासी करोड़ सही सिद्ध हो जाए। कम तो नहीं होंगी, ज्यादा भला हों। इतनी बात अब साफ हो गई है। जितनी नवीनतम शोधें हुई हैं, उनसे बात साफ हो गई है कि प्राणियों के होने के ढंग ज्यादा तो हो सकते हैं, कम नहीं हो सकते। अभी आंकड़ा पूरा नहीं हुआ है, लेकिन हो जाएगा आंकड़ा पूरा।
यह पूरा वर्तुल है। ये चौरासी करोड़ आरे हैं और इनका पूरा चाक है। यह चाक पूरा घूमता है। एक बार तुम मनुष्य होने के आरे पर ऊपर आए, शिखर बने . . . मनुष्य शिखर है। अगर वहां से छलांग लगा ली तो लगा ली। क्योंकि वहां थोड़ा बोध है--बहुत थोड़ा! मनुष्य होने में ही इतना थोड़ा बोध है कि यहां से भी चूक जाते हो। तो फिर और हाथी, घोड़े, कुत्ते होने में तो बोध और खो जाएगा। फिर वहां से तो चूकना निश्चित ही है।
तो मैं तुम्हें भय से मुक्त नहीं कर सकता--तुम्हीं भय से मुक्त कर सकते हो। मत चूको, भय खत्म हुआ। भय का उपयोग कर लो। इसको भय क्यों समझे हो? इसको सत्य समझो।
ऐसा ही समझो कि तुम जा रहे हो एक रास्ते पर, मैं तुमसे कहता हूं बाएं तरफ एक गङ्ढा है। तुम कहते हो, मार डाला। अब हम क्या करें? हमें भय से मुक्त करिए; कहिए कि गङ्ढा नहीं है।
मैं तो कह दूं कि गङ्ढा नहीं है, लेकिन इससे गङ्ढा सुनेगा नहीं और गङ्ढा मिटेगा नहीं। मेरे कहने से खतरा बढ़ जाएगा। मैं कह दूं कि गङ्ढा नहीं है, जाओ बेटा, मजे से जाओ, गीत गाते हुए जाओ, फिल्मी धुन गाना; कोई गङ्ढा वगैरह नहीं है; यह तो तुम्हें डराने के लिए कहा था--अब तुम जरूर गिरोगे।
गङ्ढा है। दोनों तरफ है। रास्ता संकरा है। रस्सी की तरह पतला है। जैसे रस्सी पर चलते नट को देखा है न--अब गिरा तब गिरा--ऐसा ही जीवन है। खतरा यहां है ही। इसको भय मत समझो। यह सच्चाई है। इस सच्चाई का उपयोग कर लो। इस सच्चाई के ऊपर उठ जाओ।
इस मनुष्य-जीवन के अवसर को खोओ मत। अजहूं चेत गंवार! अब भी जागो! यह अवसर बड़ा बहुमूल्य है। तुम जैसे गंवा रहे हो, इसलिए बेचारे पलटूदास को कहना पड़ता है "गंवार'--जैसे तुम गंवा रहे हो। जो गंवाए सो गंवार। तुम किस चीज में लगा रहे हो यह अवसर को? कोई स्त्री के पीछे दौड़ रहा है, कोई पुरुष के पीछे दौड़ रहा है, कोई धन के पीछे, कोई पद के पीछे। लेकिन यही तो तुम जन्मों-जन्मों में, कोटियों-कोटियों में, अलग-अलग योनियों में करते रहे हो। वहां भी यही सब चलता है।
तुमने देखी बंदरों की एक जमात! उनमें एक राष्ट्रपति होता है--सबसे ज्यादा उपद्रवी, झंझटी, झगड़ैल, मारने-पीटने को तैयार, डरवाने में कुशल। वह अगुआ होता है। बाकी सब उससे डरते हैं। फिर अगर तुम बंदरों को गौर से देखो, जिन्होंने अध्ययन किया है बंदरों को, तो वे कहते हैं बंदरों में पूरी की पूरी राजनीति होती है, पूरा कैबिनेट पाओगे, पूरा मंत्रिमंडल। वह जो एक सबसे ज्यादा दुष्ट, उसके आसपास दस-पांच का एक गिरोह, जो उसके सलाहकार, और फिर उसके बाद और, और फिर उसके बाद और। और तुम उनमें बराबर वर्ण भी पाओगे। कुछ हैं जो काम शूद्र के ही करते हैं। कुछ हैं जो काम सिर्फ ब्राह्मण का ही करते हैं, वे सिर्फ सलाह-मश्वरा देते हैं; कोई झगड़ा-झांसा आ जाए, तो मार्ग सुझाते हैं। कुछ हैं जो क्षत्रिय का काम करते हैं; झगड़ा-झांसा हो तो लड़ने को तैयार हैं--जवान, मजबूत। और स्त्री-बच्चे हैं, उनकी सब सुरक्षा करते हैं। जब बंदरों का गिरोह चलता है तो स्त्री-बच्चे बीच में चलते हैं; अगुआ आगे चलता है। स्त्री-बच्चों को घेर कर क्षत्रिय चलते हैं।
ठीक बंदरों में तुम पूरे मनुष्य की राजनीति पाओगे। तुम नई दिल्ली के सब रंग-ढंग बंदरों में पा सकते हो। तो पार्लियामेंट में अगर थोड़ा बंदरपन हो जाता है, तो बहुत चिंता मत किया करें, वह होने ही वाला है। अगर माराधापी हो जाती है, खींचतान हो जाती है, एक-दूसरे को धक्कम-धुक्की हो जाती है, तो वह होने ही वाली है। राजनीतिक से इससे ज्यादा की आशा की भी नहीं जा सकती। राजनीति है ही वही जंगलीपन, वही जानवर की वृत्ति--कैसे दूसरे का मालिक हो जाऊं!
जब तक तुम दूसरे के मालिक होना चाहते हो तब तक तुम पशु-वृत्ति से जी रहे हो। जिस दिन तुम अपने मालिक होना चाहते हो, उस दिन तुम सच में मनुष्य हुए। स्वयं की मालकियत की खोज धर्म; दूसरे की मालकियत की खोज राजनीति है।
फिर धन इकट्ठा कर रहे हो, तो धन भी इकट्ठा करके क्या होगा? सब पड़ा रह जाएगा। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बनजारा। तो तुम अवसर खो रहे हो। परमात्मा की संपत्ति सामने पड़ी है, उसकी गांठ नहीं बांधते, उसकी गठरी नहीं बांधते, और कूड़ा-कर्कट बांध रहे हो! . . .तो अगर पलटू गंवार कहते हैं तो नाराज मत होना, सच्चाई ही कहते हैं। और तुम खड़े-खड़े ही देख रहे हो। असली चीज के संबंध में तो दूर-दूर खड़े देखते हो, नकली चीज में एकदम दौड़ पड़ते हो। व्यर्थ को तो इकट्ठा करते हो, सार्थक की चिंता ही नहीं है। और जिंदगी बीती जाती है। और हाथ से समय खोया जाता है, एक-एक पल बहा जाता है। जल्दी ही मौत द्वार पर खड़ी हो जाएगी।
इसके पहले कि मौत द्वार पर खड़ी हो जाए, जो समझदार है वह समाधि को द्वार पर खड़ा कर लेगा। मौत के पहले समाधि, यह लक्ष्य होगा समझदार का। और जिसको समाधि पहले मिल गई मौत के , उसकी मौत होती ही नहीं; वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। अमृतस्य पुत्रः--वेद कहते हैं--वह अमृत का पुत्र हो जाता है।
तो मैं तुम्हें भय से मुक्त कैसे करूं? भय से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि समाधि को उपलब्ध हो जाओ। बस ध्यान में ही भय मरेगा। क्योंकि समाधि में ही मृत्यु मरेगी। जब तक मृत्यु है तब तक भय रहेगा। तो मृत्यु के पार जाओ, अमृत का रस ले लो। अमृत बनो।
अमृत बन सकते हो। वह तुम्हारी संभावना है। उसे पुकारो! उसे आह्वान करो! उसे जगाओ! चेतो!
तुम मनुष्य हो, परमात्मा हो सकते हो। और अगर परमात्मा नहीं हुए तो पशु होने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। मनुष्य संक्रमण है। मनुष्य पुल है। या तो इस पार जाओ; या उस पार जाओ मनुष्य होने में टिक नहीं सकते।
अकबर ने एक नगर बसाया था : फतेहपुर सीकरी। उस नगर को जोड़ने वाला जो पुल है, उस पुल पर वह एक वचन लिखना चाहता था। बड़ी खोजबीन की उसके पंडितों ने कि कोई ऐसा वचन मिल जाए। बहुत वचन खोजे गए, फिर जीसस का एक वचन उसे पसंद आया। मुसलमान बहुत प्रसन्न तो नहीं थे, क्योंकि वे चाहते थे, मुहम्मद का वचन हो। हिंदू पंडित भी उसके दरबार में थे, वे भी बहुत प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि वे चाहते थे कि कोई उपनिषद और वेद से मिले। मगर वह वचन सच में बहुमूल्य था। वह वचन है कि "यह जीवन एक पुल की भांति है, इससे गुजर जाना, इस पर घर मत बनाना'।
पुल पर कोई घर थोड़े ही बनाता है! मनुष्य तो केवल संक्रमण है, सेतु है; एक तरफ पशु है, दूसरी तरफ परमात्मा है। मनुष्य तो बीच की सीढ़ी है। इससे गुजर जाना, इस पर घर मत बनाना। क्योंकि इस पर अगर रुके तो नीचे गिरोगे। या तो नीचे गिरो या ऊपर जाओ। यहां रुकना हो नहीं सकता।
इतना ही मतलब है इस बात का कि चौरासी कोटि योनियों में भटकना पड़ेगा। ठीक ही किया है संतों ने कि तुम्हें साफ-साफ कह दिया है। गङ्ढे हैं और गिर कर लौटना आसान नहीं हुआ; बोध था, तब आसान नहीं हुआ--गङ्ढे में गिर गए, फिर तो अबोध हो जाओगे। फिर तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर तो प्रकृति की प्रक्रिया से ही घूमते-घूमते लंबी यात्रा के बाद शायद दुबारा आओ अनंत काल में। अभी बागडोर हाथ में ली जा सकती है। अभी न ली . . .।
पशुओं के हाथ में अपनी बागडोर नहीं है। मनुष्य के हाथ में अपनी बागडोर है।
भय से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि तुम इस भय का उपयोग कर लो; इसका सृजनात्मक उपयोग कर लो। समाधि को बुला लो--समाधान हो जाएगा। सब समस्याएं मिट जाएंगी। भक्ति हो, प्रार्थना हो कि ध्यान हो, किसी भी मार्ग से उस चित्त-दशा को खोज लो : गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में विसराम!
ओशो♣️
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