Monday, November 4, 2024

श्री मण्डन मिश्र और भगवान शंकराचार्य

मण्डन मिश्र की ख्याति सुनकर जब आचार्य शंकर उनके नगर गये,  तब कुएं पर जल भरने वाली महिलाओं से मण्डन के घर का पता पूछा।

महिलाओं ने कहा----  "सूर्य को देखने के लिए भी किसीसे पूछा जाता है क्या? -------

"स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं,
 कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्ध: 
जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ॥
फलप्रदं कर्म फलप्रदोऽय: 
कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्ध:
 जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ॥
जगद्ध्रुवं स्याज्जगदध्रुवं स्यात् 
कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्ध:
 जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ॥'
            (माधवीय दिग्विजय , ८/६,७,८)

"हे यतिवर !  वेद स्वतः प्रमाण है या परत: प्रमाण है, कर्म फल देता है या ईश्वर, जगत् सत्य (नित्य) है या अनित्य,  द्वार पर स्थित पिंजरों में बंद तोता, मैना आदि जहां पर शास्त्रार्थ करते हों, वही मण्डन पण्डित का घर समझो।"

दासियों का वचन सुनकर आचार्यपाद वहीं पहुँचे।
 उस समय मण्डन मिश्र पिता का श्राद्ध कर रहे थे।

पितृकर्म में संन्यासी की उपस्थिति तथा दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए,   क्योंकि श्राद्ध में नित्य, अनित्य दोनों प्रकार के पितरों का आवाहन किया जाता है। 
यति को देखकर पितर लज्जित होकर भागने की चेष्टा करते हैं। वे विचार करते हैं कि "हम सकाम कर्म उपासना में पड़े रहने के कारण पितृलोक में पड़े हैं और इन यतियों ने कर्मों को ज्ञानरूपी अग्नि में दग्ध करके ब्रह्मत्व की प्राप्ति की है।"

अतः वे घर के सब किवाड़ बंद करके पितृकर्म में लगे हुए थे। भगवान वेदव्यास जी तथा महर्षि जैमिनी भी उपस्थित थे। सब द्वार बंद देखकर आचार्यपाद उड़कर आंगन में पहुंच गए। एक यति को ऐसे समय में उपस्थित देखकर अत्यंत कुपित होकर मण्डन बोले----- 

"हे दुर्बुद्धे !  तुम कन्था का इतना भार ढोते हो, क्या एक यग्योपवित नहीं धारण कर सकते ?, क्या तुमने भाँग पी रखी है ?"

पहले उन्होंने कहा--
"कुत: मुंडी ?"
किस मार्ग से आये हो ?

शंकर ने कहा--
"आ गलान्तमुंडी।"
गले तक मुंडी हूँ।

मण्डन ---
"पन्थानं पृच्छते मया ?"
मैं रास्ता पूछता हूँ, किस रास्ते से आये हो ?

शंकर----
"तर्हि पन्थानं प्रति प्रच्छ।"
तो रास्ते से पूछो, मुझे क्यों पूछते हो?"

मण्डन----
"किं सुरा पीतं ?"
क्या सुरा पी रखी है?

शंकर (पीतं का अर्थ पीला करके)---
"न पीतं, श्वेतम्।"
पीत नहीं श्वेत।

मण्डन---- 
"किं वर्णम् जानासि ?"
क्या रंग जानते हो ?

शंकर-----
"अहं वर्णम् जानामि भवान् स्वादम्।"
मैं रंग जानता हूँ और आप स्वाद जानते हैं।  इत्यादि,,,

तब व्यास जी तथा जैमिनी जी ने मण्डन को शांत करते हुए कहा--- 

"बड़े सौभाग्य से ब्रह्मवेत्ता साक्षात शिव स्वरूप यति शिरोमणि तुम्हारे शुभकर्म में पधारे हैं। तुम्हे सपत्नीक पाद्य, अर्घ्य आदि से इनका पूजन करके आतिथ्य करना चाहिए।"

दोनों की आज्ञा प्राप्त करके मण्डन ने शंकराचार्य जी का यथोचित सत्कार किया।

आचार्यपाद भगवान् शंकर ने "वेद-वेदांत का ब्रह्मात्मैक्य सिद्धांत ही परमार्थ सत्य है, अन्य सब मिथ्या है। इसी अनुभूति-जन्य एकता से ही मुक्ति हो सकती है, अन्य उपाय से नहीं।"   इस भाव को व्यक्त करते हुए कहा-----

"ब्रह्मैक्यं परमार्थ सच्चिदमलं विश्वप्रपंचात्मना।
शुक्तिरूप्यपरमात्मनैव बहुला ज्ञानवृतं भासते।।
तज्ज्ञानन्निखिल प्रपंच विलयात्स्वात्मन्यवस्था परं।
निर्वाणं जनि मुक्तिमभ्युपगतं मानं श्रुतेर्मस्तकं ।।"

'श्रुतिमस्तक रूप उपनिषद् (वेदांत) का सिद्धांत है कि ब्रह्म एक है परमार्थ सत्ता में,  वह ब्रह्म निर्मल है, अज्ञान से आवृत्त होने के कारण उसमें जगत् का विस्तार सीपी में चांदी के समान भासित होता है। 

कार्य सहित अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति होने पर अज्ञान से भासित होने वाले जगत् का लय हो जाता है। आत्मस्वरूप में पूर्ण स्थिति हो जाने पर जीव को निर्वाण पद की प्राप्ति होती है।'

अनेकों श्रुतियों में कहा है-----  "तीन भेदों से रहित एक ब्रह्म ही है।", "ब्रह्म सत्य ज्ञान अनन्त है।",  "वह देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित है।" , "ब्रह्म विज्ञान आनन्द स्वरूप है।" , "निश्चय ही सब ब्रह्म ही है।" , "आत्मवेत्ता शोक, मोह से तर जाता है।" , "आत्मदर्शी को शोक, मोह नहीं होता।" , "ब्रह्मवित् ब्रह्म स्वरूप है।" , "वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।"

भगवान शंकर की प्रतिज्ञा सुनकर गृहस्थवर्य विश्वरूप ने प्रतिज्ञा की------

"वेदान्ता न प्रमाणं चिति वपुषि पदे तत्र संगत्ययोगात्।
पूर्वोभागः प्रमाणं पदचयगमिते कार्यवस्तून्यशेषे।।
शब्दानां कार्यमात्रं प्रतिसमधिगताः  शक्तिरभ्युन्नतानां।
कर्मेभ्यो मुक्तिरिष्टा तदिहतनुभृतामायुषः स्यात् समाप्ते।।"

'चैतन्य स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति में वेदांत (उपनिषद्) प्रमाण नहीं है। 
चैतन्य स्वरूप वस्तुरूपी परमात्मा की सिद्धि में पदों से प्राप्त होने वाली अर्थ की शक्ति ही प्रमाण है। 
वेदों का पूर्व भाग पदों के समूह से प्राप्त होने वाली अर्थशक्ति को ही प्रमाण मानता है। 
वेद ने कर्मों से मुक्ति कही है। अतः मनुष्य को आयु पर्यन्त कर्म ही करना चाहिए।' वेद ने कहा भी है---- "यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्।।"
इस प्रकार दोनों ने प्रतिज्ञा की।

नित्य प्रति दोनों अपने नित्यकर्मों से निवृत्त होकर शास्त्रार्थ में डट जाते थे। 
मध्यान्ह में भोजन के समय भारती पति से "भोजन का समय हो चुका है" यह कहती थी। 
तथा स्वामीजी को भिक्षा करने के लिए आग्रह करती थी।
 
इन दोनों का शास्त्रार्थ मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया से आरम्भ होकर दक्षिण पंचांगानुसार चैत्र शुक्ल चतुर्थी तक  ३ माह १७ दिन तक चला। 

दोपहर में भिक्षा के बाद थोड़ा विश्राम होता था। दोनो विद्वान् मुस्कुराते मुखकमल से उसी क्षण बिना रुके एक दूसरे के सिद्धांत का खंडन करते थे। 

प्रश्नोत्तर देने में किसी को पसीना नहीं आता था, न आवाज कांपती थी, न चिन्ता थी, न घबराहट।  अंतिम दिन यति के आक्षेप का उत्तर न देने के कारण मण्डन की वाणी रुक गई। घबराहट हुई, पसीना आया, उनके गले की माला कुम्हला गई। 

तब मण्डन ने आद्यशंकर की स्तुति करते हुए कहा--- "हे यतिपते !   आप तो साक्षात सदाशिव हैं। सभी देहधारियों तथा विद्याओं के स्वामी है।"  तथा दुर्वासा के शाप की कथा सुनाई।

पति की हार के अनन्तर उभयभारती ने कहा---- "अभी आपने मेरे आधे पति को जीता है, अभी मैं शेष हूँ।"  

तब उसने शास्त्रार्थ आरम्भ किया। वह सत्रह दिनों तक शास्त्रार्थ करती रही। जब उसने सभी शास्त्रों में आचार्य को अजेय समझा तब उसने विचार किया कि ये नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, इनको वात्स्यायन प्रणीत स्त्री-पुरुषों की काम-कलाओं का अनुभव नहीं है। अतः काम-कला सम्बन्धी प्रश्न करके परास्त करूंगी।   

ऐसा विचार करके उसने पूछा--- "शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष में स्त्री तथा पुरुष के मन, बुद्धि पर काम की किन-किन कलाओं का प्रभाव पड़ता है ?  काम की कितनी कलाएं है ?  उनके नाम तथा कार्य क्या है ?"

यद्यपि सर्वज्ञ शंकर ने इस शास्त्र का भी गम्भीर अध्ययन किया था। सुना जाता है कि कामशास्त्र के रचयिता वात्स्यायन ऋषि ऊर्ध्वरेता नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे तथा शुकदेव एवं बाल ऋष्यश्रृंग की भांति स्त्री-पुरुष के ज्ञान से रहित थे। 

आचार्यपाद ने संन्यासी शरीर से इनका उत्तर देना उचित नहीं समझा। स्त्री के सामने ऐसी चर्चा करने से संन्यास से पतित हो जाता है। 

अतः गृहस्थ शरीर से लिखित पुस्तक रूप में उत्तर देने का विचार किया।  तब उन्होंने चैत्र कृष्णपक्ष अष्टमी को राजा अमरुक जो कि मृत्यु को प्राप्त कर चुके थे, उनके शरीर में प्रवेश किया। उस शरीर में पांच महीने के लगभग रहे। तदनन्तर वापस आकर उभयभारती को भी उत्तर देकर मण्डन मिश्र को अपना शिष्य बनाया।

हर हर महादेव
#वन्दे_हरिहरानंद_करपात्रं_जगदगुरुम 
#धर्म_सम्राट्_स्वामी_श्री करपात्री_जी_महराज की जय हो

विवाह

#विवाह__के__आठ__भेद

(१) ब्राह्म, (२) दैव, (३) आर्ष, (४) प्राजापत्य,
(५) आसुर, (६) गान्धर्व, (७) राक्षस और
(८) अत्यन्त अधम पैशाच।

#आठों__के__गुण__दोष

जिस वर्णका जो विवाह धर्मसे युक्त है, जिस
विवाहके जो इष्ट और अनिष्ट फल हैं और उनउन विवाहोंसे उत्पन्न संततिमें जो गुण या दोष आते
हैं, वे बातें बतायी जा रही हैं-ब्राह्मणके लिये ब्राह्म,
दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर और गान्धर्व-ये छः
विवाह विहित हैं। 

क्षत्रियके लिये अन्तवाले आसुर,
गान्धर्व, पैशाच और राक्षस-ये चार विवाह विहित
हैं।

 वैश्यके लिये आसुर, गान्धर्व और पैशाच-ये तीन
विवाह विहित हैं। इन विवाहोंमें ब्राह्मणके लिये ब्राह्म,
दैव, प्राजापत्य एवं आर्ष-ये चार विवाह प्रशस्त हैं।

क्षत्रियके लिये एक राक्षस-विवाह अधिक प्रशस्त माना
गया है। 

वैश्य और शूद्रके लिये आसुर विवाहको
प्रशस्त माना गया है। अन्तवाले जो पाँच प्रकारके
[प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच] विवाह
हैं, इनमेंसे तीन प्रकारके [प्राजापत्य, गान्धर्व और
राक्षस] विवाह धर्मयुक्त हैं 

और आसुर एवं पैशाचये दो विवाह अधर्मयुक्त हैं। अतः आसुर एवं पैशाचइन दो विवाहोंको कभी नहीं करना चाहिये। क्षत्रियोंके
लिये पैशाच तथा राक्षस-विवाह पृथक्-पृथक् या मिश्रित अच्छे कहे गये हैं। 
विवाहोंके लक्षण

(१) #ब्राह्य_विवाहका_लक्षण-वेदविद् और
आचारवान् वरको अपने यहाँ स्वयं बुलाकर सत्कारपूर्वक
वस्त्र और भूषणसे अलंकृत कर उसे कन्या प्रदान
करना 'ब्राह्म विवाह' है।

(२) #दैव_विवाहका_लक्षण-ज्योतिष्टोम आदि
यज्ञके प्रारम्भ हो जानेपर विधिसे कर्म करनेवाले
ऋत्विक्को अलंकृत कर उसे कन्यादान करना 'दैव
विवाह' कहलाता है।

(३) #आर्ष_विवाह_का_लक्षण-कन्याको देनेके
१-ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः । गान्धर्वो
२-अद्भिरेव द्विजाप्रयाणां कन्यादानं विशिष्यते । इतरेषां
लिये वरसे दो गायें लेकर शास्त्रोक्त-विधिसे कन्यादान करना 'आर्ष विवाह' कहलाता है।

(४) #प्राजापत्य_विवाहका_लक्षण-'वधू और
वर तुम दोनों एक साथ मिलकर धर्मकी रक्षा करो'
| ऐसा कहकर और वरका पूजन कर उसे जो कन्या प्रदान
की जाती है उसे 'प्राजापत्य विवाह' कहा जाता है।

(५) #आसुर_विवाहका_लक्षण-कन्याके पिता,
| चाचा या कन्या आदिको शक्तिके अनुसार धन देकर
अपनी इच्छासे उस कन्याको स्वीकार करना 'आसुर
विवाह' कहलाता है।

(६) #गान्धर्व_विवाहका_लक्षण-कन्या और
पुरुषका परस्पर प्रेमसे जो आलिंगन आदिरूप संयोग
| है, उसे 'गान्धर्व विवाह' कहते हैं।

(७) #राक्षस_विवाहका_लक्षण-बलात् कन्याका
हरण करना 'राक्षस विवाह' है। [इस हरणमें यदि
पिता आदि उपेक्षा कर जाये तब मार-पीटकी आवश्यकता
नहीं पड़ती। किंतु यदि कन्यापक्षके लोग युद्ध करनेके
लिये उद्यत हो जाये तो उनका हनन अपेक्षित है।
इस तरह कन्यापक्षके लोगोंको मारकर या उनका
अंग-भंग कर गृह आदि तोड़कर चिल्लाती-रोती हुई
कन्याका हरण करना 'राक्षस विवाह' कहा जाता है।]

(८) #पैशाच_विवाहका_लक्षण-जो कन्या सोयी हो, मदिराके नशे में हो और अपनी शील-रक्षाकी उपेक्षा करती हो, उसके साथ अंग-संग करना 'पैशाच विवाह' कहा जाता है, जो अति निन्दित है। 
ब्राह्मणके लिये जल लेकर संकल्पके साथ कन्यादान करना प्रशस्त है। अन्य वर्गों का कन्या-दान परस्पर | इच्छाके अनुसार वचनमात्रसे भी हो सकता है और जलपूर्वक भी ॥

!! नारायण  !!

Wednesday, October 2, 2024

ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी
दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है।
इसका उत्तर इस प्रकार है।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी
ने लिखा है कि भगवान श्री राम जी ने श्री
परशुराम जी से कहा कि  →
"देव  एक  गुन  धनुष  हमारे।
 नौ गुन  परम  पुनीत तुम्हारे।।"

हे प्रभु हम क्षत्रिय हैं हमारे पास एक ही गुण
अर्थात धनुष ही है आप ब्राह्मण हैं आप में
परम पवित्र 9 गुण है-
ब्राह्मण_के_नौ_गुण :-
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः।।

● रिजुः = सरल हो,
● तपस्वी = तप करनेवाला हो,
● संतोषी= मेहनत की कमाई पर  सन्तुष्ट,
रहनेवाला हो,
● क्षमाशीलो = क्षमा करनेवाला हो,
● जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में
रखनेवाला हो,
● दाता= दान करनेवाला हो,
● शूर = बहादुर हो,
● दयालुश्च= सब पर दया करनेवाला हो,
● ब्रह्मज्ञानी,
    
 
 श्रीमद् भगवत गीता के 18वें अध्याय
के 42श्लोक में भी ब्राह्मण के 9 गुण
इस प्रकार बताए गये हैं-

" शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजम्।।"

अर्थात-मन का निग्रह करना ,इंद्रियों को वश
में करना,तप( धर्म पालन के लिए कष्ट सहना),
शौच(बाहर भीतर से शुद्ध रहना),क्षमा(दूसरों के
अपराध को क्षमा करना),आर्जवम्( शरीर,मन
आदि में सरलता रखना,वेद शास्त्र आदि का
ज्ञान होना,यज्ञ विधि को अनुभव में लाना
और परमात्मा वेद आदि में आस्तिक भाव
रखना यह सब ब्राह्मणों के स्वभाविक कर्म हैं।

पूर्व श्लोक में "स्वभावप्रभवैर्गुणै:
"कहा इसलिएस्वभावत कर्म बताया है।

स्वभाव बनने में जन्म मुख्य है।फिर जन्म के
बाद संग मुख्य है।संग स्वाध्याय,अभ्यास आदि
के कारण  स्वभाव में कर्म गुण बन जाता है।

दैवाधीनं  जगत सर्वं , मन्त्रा  धीनाश्च  देवता:। 
ते मंत्रा: ब्राह्मणा धीना: , तस्माद्  ब्राह्मण देवता:।। 

धिग्बलं क्षत्रिय बलं,ब्रह्म तेजो बलम बलम्।
एकेन ब्रह्म दण्डेन,सर्व शस्त्राणि हतानि च।। 

इस श्लोक में भी गुण से हारे हैं त्याग तपस्या
गायत्री सन्ध्या के बल से और आज लोग उसी
को त्यागते जा रहे हैं,और पुजवाने का भाव
जबरजस्ती रखे हुए हैं।

 *विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या।
 *वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् l।*
 *तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं।
 *छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ll*

भावार्थ --  वेदों का ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण
एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल(जड़)
दिन के तीन विभागों प्रातः,मध्याह्न और सायं
सन्ध्याकाल के समय यह तीन सन्ध्या(गायत्री
मन्त्र का जप) करना है,चारों वेद उसकी
शाखायें हैं,तथा  वैदिक धर्म के  आचार
विचार का पालन करना उसके पत्तों के
समान हैं।

अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि,,
इस सन्ध्या रूपी मूल की यत्नपूर्वक रक्षा करें,
क्योंकि यदि मूल ही नष्ट हो जायेगा तो न तो
शाखायें बचेंगी और न पत्ते ही बचेंगे।। 

पुराणों में कहा गया है ---
विप्राणां यत्र पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।

जिस स्थान पर ब्राह्मणों का पूजन हो वहाँ
देवता भी निवास करते हैं।
अन्यथा ब्राह्मणों के सम्मान के बिना देवालय
भी  शून्य हो जाते हैं। 
इसलिए .......
ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रा वेद विवर्जिताः।।

 श्री कृष्ण ने कहा-ब्राह्मण यदि वेद से हीन भी हो,
तब पर भी उसका अपमान नही करना चाहिए।
क्योंकि  तुलसी का पत्ता क्या छोटा क्या बड़ा
वह हर अवस्था में  कल्याण ही करता है।

 ब्राह्मणोस्य मुखमासिद्......

वेदों ने कहा है की ब्राह्मण विराट पुरुष भगवान
के मुख में निवास करते हैं।
इनके मुख से निकले हर शब्द भगवान का ही
शब्द है, जैसा की स्वयं भगवान् ने कहा है कि,

विप्र प्रसादात् धरणी धरोहमम्।
विप्र प्रसादात् कमला वरोहम।
विप्र प्रसादात् अजिता जितोहम्।
विप्र प्रसादात् मम् राम नामम् ।।

 ब्राह्मणों के आशीर्वाद से ही मैंने
धरती को धारण कर रखा है।
अन्यथा इतना भार कोई अन्य पुरुष
कैसे उठा सकता है,इन्ही के आशीर्वाद
से नारायण हो कर मैंने लक्ष्मी को वरदान
में प्राप्त किया है,इन्ही के आशीर्वाद से मैं
हर युद्ध भी जीत गया और ब्राह्मणों के
आशीर्वाद से ही मेरा नाम राम अमर हुआ है,
अतः ब्राह्मण सर्व पूज्यनीय है।

और ब्राह्मणों काअपमान ही कलियुग
में पाप की वृद्धि का मुख्य कारण है।

प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें।।
हर हर महादेव शिव शंभू 🔱

#जय_सनातन⛳.
 #जय_ब्रह्मण_देव🚩🙏🏻

Saturday, September 28, 2024

तर्पण

तर्पण-प्रयोग-विधि'
गायत्रीमन्त्रसे शिखा बाँधकर तिलक लगाकर प्रथम दाहिनी अनामिकाके मध्य पोरमें दो कुशों और बायीं अनामिकामें तीन कुशोंकी पवित्री' धारण कर ले। फिर हाथमें त्रिकुश, यव, अक्षत और जल लेकर निम्नलिखित संकल्प पढ़े-

अद्य श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थं देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये। (संकल्प करे)

आवाहन - इसके बाद ताँबेके पात्रमें जल और चावल डालकर त्रिकुशको पूर्वाग्र रखकर उस पात्रको दायें हाथमें लेकर बायें हाथसे ढककर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर देव ऋषियोंका आवाहन करे।

आवाहन-मन्त्र-

ब्रह्मादयः सुराः सर्वे ऋषयः सनकादयः । 
आगच्छन्तु महाभागा ब्रह्माण्डोदरवर्तिनः ।।

(१) देव-तर्पण-विधि- देव तथा ऋषि-तर्पणमें- १-पूरब दिशाकी ओर मुँह करे। २-जनेऊको सव्य रखे। ३-दाहिना घुटना जमीनपर लगाकर बैठे। ४-अर्घ्यपात्रमें चावल छोड़े।५-तीनों कुशोंको पूर्वकी ओर अग्रभाग' कर रखे। ६-जलकी अञ्जलि एक-एक हो। ७-देवतीर्थसे अर्थात् दायें हाथकी अँगुलियोंके अग्रभागसे दे। (देवतीर्थका चित्र पृ० सं० ६० में देखें) ८-जलाञ्जलिको सोना, चाँदी, ताँबा अथवा काँसेके बर्तनमें डाले। यदि नदीमें तर्पण किया जाय तो दोनों हाथोंको मिलाकर जलसे भरकर गौकी सींग जितना ऊँचा उठाकर जलमें ही अञ्जलि डाल दे'।
👉निम्नलिखित प्रत्येक नाम-मन्त्रके बाद 'तृप्यताम्' कहकर एक- एक अञ्जलि जल देता जाय।

ॐ ब्रह्मा तृप्यताम् । ॐ विष्णुस्तृप्यताम् । ॐ रुद्रस्तृप्यताम् । ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् । ॐ देवास्तृप्यन्ताम् । ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् । ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् । ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् । ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम्। ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् । ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ संवत्सरः सावयवस्तृप्यताम् । ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् । ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्। ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् । ॐ नागास्तृप्यन्ताम् । ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् । ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् । ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् । ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्। ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् । ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् । ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् । ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् । ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् । ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् । ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्। ॐ भूतग्रामश्चतु- विधस्तृप्यताम् ।

(२) ऋषि-तर्पण- इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्योंसे मरीचि आदि ऋषियोंको भी एक-एक अञ्जलि जल दे-

ॐ मरीचिस्तृप्यताम् । ॐ अत्रिस्तृप्यताम् । ॐ अंगिरास्तृप्यताम्। ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् । ॐ पुलहस्तृप्यताम् । ॐ क्रतुस्तृप्यताम्।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् । ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् । ॐ भृगुस्तृप्यताम् । ॐ नारदस्तृप्यताम्।

(३) दिव्य मनुष्य-तर्पण- दिव्य मनुष्य-तर्पणमें-१-उत्तर दिशाको और मुँह करे'। २-जनेऊको कंठीकी तरह कर ले। ३-गमछेको भी कंठीकी तरह कर ले। ४-सीधा बैठे। कोई घुटना जमीनपर न लगाये। ५-अर्घ्यपात्रमें जौ छोड़े। ६-तीनों कुशोंको उत्तराग्र रखे। प्राजापत्य (काय) तीर्थसे दे अर्थात् कुशोंको दाहिने हाथकी कनिष्ठिकाके मूलभागमें रखकर यहींसे जल दे। ७-दो-दो अंजलियाँ दे'।
अञ्जलिदानके मन्त्र -

ॐ सनकस्तृप्यताम् (२) । ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् (२)। ॐ सनातनस्तृप्यताम् (२)। ॐ कपिलस्तृप्यताम् (२)। ॐ आसुरिस्तृप्यताम् (२) । ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् (२)। ॐ वोडुस्तृप्यताम् (२)।

(४) दिव्य पितृ-तर्पण पितृ तर्पणमें १- दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करे। २-अपसव्य हो जाय अर्थात् जनेऊको दाहिने कंधेपर रखकर बायें हाथके नीचे ले जाय। ३-गमछेको भी दाहिने कंधेपर रखे। ४-बायाँ घुटना जमीनपर लगाकर बैठे'। ५-अर्घ्य-पात्रमें कृष्ण तिल छोड़े। ६-कुशोंको बीचसे मोड़कर उनकी जड़ और अग्रभागको दाहिने हाथमें तर्जनी और अँगूठेके बीचमें रखे। ७-पितृतीर्थ से अर्थात् अँगूठे और तर्जनीके मध्यभागसे अंजलि दे। ८-तीन-तीन अञ्जलियाँ दे।

उपर्युक्त नियमसे प्रत्येक मन्त्रसे तीन-तीन अञ्जलियोंको देनेके मन्त्र इस प्रकार हैं-

ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः। ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः (३)। ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः (३)। ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलम् (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः (३)। ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः, तेभ्यः स्वधा नमः, तेभ्यः स्वधा नमः । ॐ सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः (३)। ॐ बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः (३)।

(५) यम-तर्पण- इसी प्रकार निम्नलिखित प्रत्येक नामसे यमराजको पितृतीर्थसे ही दक्षिणाभिमुख तीन-तीन अञ्जलियाँ दे- 
ॐ यमाय नमः (३)। ॐ धर्मराजाय नमः (३)। ॐ मृत्यवे नमः (३)। ॐ अन्तकाय नमः (३)। ॐ वैवस्वताय नमः (३)। ॐ कालाय नमः (३)। ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः (३)। ॐ औदुम्बराय नमः (३)। ॐ दध्नाय नमः (३)। ॐ नीलाय नमः (३)। ॐ परमेष्ठिने नमः (३)। ॐ वृकोदराय नमः (३)। ॐ चित्राय नमः (३)। ॐ चित्रगुप्ताय नमः (३)"।

(६) मनुष्यपितृ-तर्पण - पितरोंका तर्पण करनेके पूर्व निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे हाथ जोड़कर प्रथम उनका आवाहन करे- 
ॐ उशन्तस्त्वा नि धीमह्युशन्तः समिधीमहि।
उशन्नुशत आ वह पितृन् हविषे अत्तवे ॥ (यजु० १९।७०)
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ (यजु० १९।५८) 
यदि ऊपर लिखे वेदमन्त्रोंका शुद्ध उच्चारण सम्भव न हो तो निम्नलिखित वाक्यका उच्चारण कर पितरोंका आवाहन करे- 
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलाञ्जलिम् ।
इसी तरह नीचे लिखे मन्त्रोंका भी शुद्ध उच्चारण सम्भव न हो तो मन्त्रोंको छोड़कर केवल 'अमुकगोत्रः अस्मत्पिता... अमुकस्वरूपः' आदि संस्कृत वाक्य बोलकर तिलके साथ तीन-तीन जलाञ्जलियाँ दे, यथा- अमुकगोत्रः अस्मत्पिता अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः ।

अमुकगोत्रः अस्मत्पितामहः अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रः अस्मत्प्रपितामहः अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रा अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः ।
अमुकगोत्रा अस्मत्पितामही अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रा अस्मत्प्रपितामही अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः (३)।

यदि सौतेली माँ मर गयी हो तो उसको भी तीन बार जल दे- अमुकगोत्रा अस्मत्सापत्नमाता अमुकी देवी तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः (३)।

👉इसके बाद निम्नाङ्कित नौ मन्त्रोंको पढ़ते हुए पितृतीर्थसे जल गिराता रहे* (जिन्हें वेदमन्त्र न आता हो, वे इसे ब्राह्मणद्वारा पढ़‌वावें या छोड़ भी सकते हैं।)
ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः । असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥
(যজু० १९। ४९)
अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः । तेषां वयःसुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥
(यजु० १९।५०) 
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः। 
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ (यजु० १९। ५८)
ऊर्ज वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्रुतम्। स्वधा स्थ तर्पयत मे पितृन् ॥(यजु० २। ३४)
पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम् । (यजु० १९। ३६)
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विदा याँ उच न प्रविद्य। त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञः सुकृतं जुषस्व। (यजु० १९। ६७)
मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीनः सन्त्वोषधीः । (यजु० १३। २७)
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवःरजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥(यजु० १३। २८)
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाः अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥
ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् । फिर नीचे लिखे मन्त्रका पाठमात्र करे-

ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो देष्मैतद्वः पितरो वास आधत्त। (यजु. २।32)

द्वितीय गोत्र-तर्पण- इसके बाद द्वितीय गोत्रवाले (ननिहालके) मातामह (नाना) आदिका तर्पण करे। यहाँ भी पहलेकी भाँति निम्नलिखित वाक्योंको तीन-तीन बार पढ़कर तिलसहित जलकी तीन- तीन अञ्जलियाँ पितृतीर्थसे दे-

अमुकगोत्रः अस्मन्मातामहः (नाना) अमुकः वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रः अस्मत्प्रमातामहः (परनाना) अमुकः रुद्ररूप- स्तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रः अस्मद् वृद्धप्रमातामहः (वृद्ध परनाना) अमुकः आदित्यरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रा अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी दा वसुरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रा अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी दा रुद्ररूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः (३)।
अमुकगोत्रा अस्मद्‌वृद्धप्रमातामही (बुद्ध परनानी) अमुकी देवी दा आदित्यरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः (३.)
इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो सीधे बैठ जाय। कुशोंको सीधा कर उनके अग्रभागको भी पूरबकी ओर कर ले। फिर नीचे लिखे श्लोकोंको पढ़ते हुए देवतीर्थसे जल गिराये- 
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसाः ।
 पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः कूष्माण्डास्तरवः खगाः ॥
जलेचरा भूनिलया वाय्वाधाराश्च जन्तवः । 
तृप्तिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः ॥

इसके बाद अपसव्य होकर जनेऊ और अँगोछेको भी दाहिने कंधेपर रखकर दक्षिणाभिमुख हो जाय। कुशोंको बीचसे मोड़कर इनकी जड़ और अग्रभागको दक्षिणकी ओर कर दे। फिर नीचे लिखे हुए श्लोकोंको पढ़कर पितृतीर्थसे जल गिराये -
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥
येऽबान्धवा बान्धवाश्च येऽन्यजन्मनि बान्धवाः । 
ते तृप्तिमखिला यान्तु यश्चास्मत्तोऽभिवाञ्छति ।। (पद्म पु० १। २०। १६९-७०)
ये मे कुले लुप्तपिण्डाः पुत्रदारविवर्जिताः । 
तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकम् ॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः । 
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ॥ अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥ 
वस्त्र-निष्पीडन- इस प्रकार सब पितरोंका तर्पण हो जानेके बाद अँगोछेकी चार तह कर उसमें तिल तथा जल छोड़कर नीचे लिखा मन्त्र
पढ़कर जलके बाहर बायीं ओर पृथ्वीपर निचोड़े-
ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः ।
ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ॥
(देवी० भा० ११। २०१ २६-२७) 
भीष्मतर्पण - इसके बाद भीष्मपितामहको पितृतीर्थ और कुशोंसे जल दे-
भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः । आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ॥

सूर्यको अर्घ्यदान- इसके पश्चात् पात्रको जल तथा मिट्टीसे स्वच्छ कर ले। तदनन्तर पूर्वोक्त रीतिसे आचमन और प्राणायाम कर सव्य हो जाय अर्थात् जनेऊको बायें कंधेपर कर ले। अर्घ्यमें फूल-चन्दन लेकर निम्नलिखित मन्त्रसे सूर्यको अर्घ्य दे- नमो विवस्वते ब्रह्मन् ! भास्वते विष्णुतेजसे । जगत्सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने ॥ सूर्यार्घ्य देकर प्रदक्षिणा करे। इसके बाद दिशाओं एवं उनके अधिष्ठातृ देवताओंका वन्दन करे*-

१-ॐ प्राच्यै नमः, ॐ इन्द्राय नमः। २-ॐ आग्नेय्यै नमः, ॐ अग्नये नमः। ३-ॐ दक्षिणायै नमः, ॐ यमाय नमः । ४-ॐ नैऋत्यै ममः, ॐ निश्तये नमः। ५-ॐ प्रतीच्यै नमः, ॐ वरुणाय नमः। ६-ॐ वायव्यै नमः, ॐ वायवे नमः। ७-ॐ उदीच्यै नमः, ॐ कुबेराय नमः । ८-ॐ ऐशान्यै नमः, ॐ ईशानाय नमः। ९-ॐ ऊर्ध्वायै नमः, ॐ ब्रह्मणे नमः । १०-ॐ अधरायै नमः, ॐ अनन्ताय नमः ।

इस तरह दिशाओं और देवताओंको नमस्कार कर. बैठकर नीचे लिखे मन्त्र पढ़कर एक-एक जलाञ्जलि दे-

ॐ ब्रह्मणे नमः। ॐ अग्नये नमः । ॐ पृथिव्यै नमः । ॐ ओषधिभ्यो नमः । ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो नमः । ॐ अपाम्पतये नमः । ॐ वरुणाय नमः ।

समर्पण - निम्नाङ्कित वाक्य पढ़कर यह तर्पण कर्म भगवान्‌को समर्पित करे-
अनेन यथाशक्तिकृतेन देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणाख्येन कर्मणा भगवान्पितृस्वरूपी जनार्दनवासुदेवः प्रीयतां न मम। 
ॐ तत्सद्द्ब्रह्मार्पणमस्तु । तदनन्तर हाथ जोड़कर भगवान्‌का स्मरण करते हुए पाठ करे-
 प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् ।
 स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः ॥ 
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥ यत्पादपङ्कजस्मरणात् यस्य नामजपादपि । 
न्यूनं कर्म भवेत् पूर्ण तं वन्दे साम्बमीश्वरम् ॥ 
ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः।ॐ विष्णवे नमः । 
तर्पण-विधि समाप्त।



Thursday, June 6, 2024

वट सावित्री व्रत कथा

*🌳वट सावित्री व्रत महत्व कथा🌳*
    
        *वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ माह की अमावस्या को रखा जाता है। यह पतिव्रता नारीयों के लिए अनुकरणीय व्रत है।http://jyotishdhyan.blogspot.com/2024/06/blog-post.html

*🌳वट सावित्री व्रत कथा🌳*

*विवाहित महिलाओं के बीच अत्यधिक प्रचलित ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन आने वाले सावित्री व्रत की कथा निम्न प्रकार से है:*

*भद्र देश के एक राजा थे, जिनका नाम अश्वपति था। भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी।*

*उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा।*

*इसके बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि: राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी। सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने के कारण से कन्या का नाम सावित्री रखा गया।*

*कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान हुई। योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा।*

*सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे, क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।*

*ऋषिराज नारद को जब यह बात पता चली तो वह राजा अश्वपति के पास पहुंचे और कहा कि हे राजन! यह क्या कर रहे हैं आप? सत्यवान गुणवान हैं, धर्मात्मा हैं और बलवान भी हैं, पर उसकी आयु बहुत छोटी है, वह अल्पायु हैं। एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।*

*ऋषिराज नारद की बात सुनकर राजा अश्वपति घोर चिंता में डूब गए। सावित्री ने उनसे कारण पूछा, तो राजा ने कहा, पुत्री तुमने जिस राजकुमार को अपने वर के रूप में चुना है वह अल्पायु हैं। तुम्हे किसी और को अपना जीवन साथी बनाना चाहिए।*

*इस पर सावित्री ने कहा कि पिताजी, आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती हैं, राजा एक बार ही आज्ञा देता है और पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं और कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है।*

*सावित्री हठ करने लगीं और बोलीं मैं सत्यवान से ही विवाह करूंगी। राजा अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया।*

*सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा करने लगी। समय बीतता चला गया। नारद मुनि ने सावित्री को पहले ही सत्यवान की मृत्यु के दिन के बारे में बता दिया था। वह दिन जैसे-जैसे करीब आने लगा, सावित्री अधीर होने लगीं। उन्होंने तीन दिन पहले से ही उपवास शुरू कर दिया। नारद मुनि द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया।*

*हर दिन की तरह सत्यवान उस दिन भी लकड़ी काटने जंगल चले गये साथ में सावित्री भी गईं। जंगल में पहुंचकर सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गये। तभी उसके सिर में तेज दर्द होने लगा, दर्द से व्याकुल सत्यवान पेड़ से नीचे उतर गये। सावित्री अपना भविष्य समझ गईं।*

*सत्यवान के सिर को गोद में रखकर सावित्री सत्यवान का सिर सहलाने लगीं। तभी वहां यमराज आते दिखे। यमराज अपने साथ सत्यवान को ले जाने लगे। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं।*

*यमराज ने सावित्री को समझाने की कोशिश की कि यही विधि का विधान है। लेकिन सावित्री नहीं मानी।*

*सावित्री की निष्ठा और पतिपरायणता को देख कर यमराज ने सावित्री से कहा कि हे देवी, तुम धन्य हो। तुम मुझसे कोई भी वरदान मांगो।*

*1) सावित्री ने कहा कि मेरे सास-ससुर वनवासी और अंधे हैं, उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा। जाओ अब लौट जाओ।*
*लेकिन सावित्री अपने पति सत्यवान के पीछे-पीछे चलती रहीं। यमराज ने कहा देवी तुम वापस जाओ। सावित्री ने कहा भगवन मुझे अपने पतिदेव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है। पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है। यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिए कहा।*

*2) सावित्री बोलीं हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे पुन: वापस दिला दें।*
*यमराज ने सावित्री को यह वरदान भी दे दिया और कहा अब तुम लौट जाओ। लेकिन सावित्री पीछे-पीछे चलती रहीं।*

*यमराज ने सावित्री को तीसरा वरदान मांगने को कहा।*
*3) इस पर सावित्री ने 100 संतानों और सौभाग्य का वरदान मांगा। यमराज ने इसका वरदान भी सावित्री को दे दिया।*

*सावित्री ने यमराज से कहा कि प्रभु मैं एक पतिव्रता पत्नी हूं और आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया है। यह सुनकर यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े। यमराज अंतध्यान हो गए और सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आ गई जहां उसके पति का मृत शरीर पड़ा था।*

*सत्यवान जीवंत हो गया और दोनों खुशी-खुशी अपने राज्य की ओर चल पड़े। दोनों जब घर पहुंचे तो देखा कि माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है। इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे।*

*अतः पतिव्रता सावित्री के अनुरूप ही, प्रथम अपने सास-ससुर का उचित पूजन करने के साथ ही अन्य विधियों को प्रारंभ करें। वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपवासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो वो टल जाता है।*

*पतिव्रता नारीयों को सदैव महान तपस्वी पतिव्रता नारीयों का जीवन चरित्र पढ़ना चाहिए जिससे धर्म का बोध प्रगाढ़ हो।
नारी धर्म के विषय मे पढ़ने के लिए लिंक पर जाईये 👉 http://jyotishdhyan.blogspot.com/2024/06/blog-post.html

Wednesday, June 5, 2024

नारीधर्म

नारीधर्म


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः शास्त्र के इस वचन के अनुसार स्त्री-धर्म की रक्षा से ही भारतवर्ष देवताओं का निवास स्थान बना था। देवताओं को अमरलोक से मृत्युलोक में अवतरण के लिए एक नारी धर्म ही समर्थ है।

 स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।संकरोनरकायैव कुलध्नानां कुलध्नानां कुलस्य च॥

अर्थात- स्त्रियों के दूषित-धर्मभ्रष्ट हो जाने पर वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है, वर्णसंकर संतान कुलघाती पुरूषों को तथा अपने कुल को भी नरक में ले जाने वाली होती है। इस भगवद् वचन के अनुसार सब तरफ से नुकसान ही नुकसान होगा। इसलिए नारी धर्म की रक्षा आवश्यक है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

भावार्थ- जिस कल में स्त्रियों का समादर है वहां देवता प्रसन्न रहते हैं और जहां ऐसा नहीं है, उस परिवार न में समस्त (यज्ञादि) क्रियाएं व्यर्थ होती हैं। हिन्दू संस्कृति में नारी के प्रति यह कोरी शाब्दिक सद्भावना का प्रदर्शन नहीं है, भारतीय गृहस्थ जीवन में इसकी व्यवहारिक सार्थकता सिद्ध है। भौतिकवादी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे लोगों को हो सकता है, यह सत्य गले न उतरे, कोई तथ्य दिखाई न दे लेकिन जो नारी सम्मान के महत्व को समझते हैं, जानते हैं वे हिन्दू जीवन में नारी-मर्यादा सुरक्षित रखने का विशेष ध्यान रखते हैं और ऐसा कोई कार्य नहीं करते जिससे नारी के सम्मान को ठेस लगे या प्रतिष्ठा पर आंच आये। वैसे भी नारी के प्रति शास्त्र का स्पष्ट आदेश है|

 पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति॥

बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं| स्त्री को कभी इनसे पृथक स्वतंत्र रहने का विधान नहीं है।


👉👉यह उपदेश सभी स्त्रियों के लिए बहुत प्रेरक उपदेश है, आचरण में लायें।

द्रोपदी का सत्यभामा को नारी-धर्म का उपदेश

देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृत: ।
द्रव्यवानभिरुपोवा न मेऽन्य: पुरुषोमत: ।।
भावार्थ― देवता, मनुष्य, गन्धर्व, युवक अच्छी सज धज वाला धनवान अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन भर्ता (पति) को छोड़कर कहीं नहीं जाता।
दुर्व्याह्रताच्छंकमाना दु:स्थिताद् दुखेक्षिताद् ।
दुरासिताद् दुर्व्रजितादिङ्गिताघ्यासितादपि ।।
भावार्थ―मेरे मुख से कभी कोई बुरी बात न निकल जाय।इस बात से सदा सावधान रहती हूं। असभ्य की भांति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्ज के समान इधर उधर कभी दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर अथवा असभ्यतापूर्ण से कभी नहीं बैठती। दुराचरण से बचती तथा चलने-फिरने में असभ्यता न हो जाये इसके लिए सदा सावधान रहती हूं। इशारे, भावभंगिमा तथा अत्यन्त आग्रह (किसी बात पर अड़ जाना) आदि से भी कतराती हूं।
नाभुक्तवति नास्ताते नासंविष्टे च भर्तरि ।
न सदिशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि ।।
भावार्थ― पति और अपने सेवकों को भोजन कराये बिना में कभी भोजन नहीं करती, उनको स्नान कराये बिना मैं कभी स्नान नहीं करती और जब तक वे (पति) सो नहीं जाते तब तक मैं कभी नहीं सोती हूं।
अतिरस्कृतं सम्भाषा दु:स्त्रियो नानु सेयती ।
अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा ।।
भावार्थ―अपनी बोल-चाल या बात-चीत में कभी किसी का मैं तिरस्कार नहीं करती हूं। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा बचती हूं। नित्य अनुकूल बर्ताव करती हूं और आलस्य को कभी अपने पास फटकने नहीं देती।
अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णश: ।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये ।।
भावार्थ― पति के साथ हास-परिहास के सिवा मैं कभी अनवसर हंसी नहीं करती। बार बार दरवाजे पर जाकर कभी खड़ी नहीं होती। घर के पास लगे बगीचों में अकेले देर तक घूमते रहने से भी बचती हूं।
अन्त्यालापमसन्तोषं परव्यापारसंकथाम् ।
अतिहासातिरोषो च क्रोधस्थानं वर्जये ।।
भावार्थ― नीच पुरुषों के साथ कभी बात नहीं करती, अपने मन में कभी असन्तोष को नहीं आने देती, पराये कार्यों की चर्चा से सदा बचती हूं। न कभी अधिक हँसती हूं। न रोष करती हूं। क्रोध से बचती हूं।
यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित् ।
सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी ।।
भावार्थ― जब कभी मेरे पति परिवार के किसी भी कार्य से प्रवास पर प्रदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं न फूलों का श्रृङ्गार धारण करती हूं और न अङ्गराग लगाती तथा निरन्तर व्रत व संयम का आचरण करती हूं।
पत्याश्रयोहि मे धर्मों मत: स्त्रीणां सनातन: ।
स देव: सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत् ।।
भावार्थ― मैं इस बात को मानती हूं कि पति के आश्रय में रहना ही स्त्रियों का सदा से चला आया धर्म है। क्योंकि पति ही उसका देवता है। पति ही उसकी गति है। पति के अतिरिक्त कोई दूसरा उसका सहारा नहीं है। ऐसे पतिदेव का कौन स्त्री अप्रिय करेगी।
अहं पतिन् नातिशये नित्यश्ने नाति भूषये ।
नापिश्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ।।
भावार्थ― पतिदेव के सोने से पहले कभी शयन नहीं करती, उसके भोजन करने से पहले कभी भोजन नहीं करती, उसकी इच्छा के विपरित कभी अपने आपको अलंकृत नहीं करती, अपनी सास की कभी निन्दा नहीं करती, अपने को सदा नियन्त्रण में रखती हूं।
प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं सांवशामि च ।
नित्यकाल महं सत्ये ! एतत् संवननं मम ।।
भावार्थ― हे सत्यभामा ! प्रतिदिन मैं सबसे पहले जागती हूं और बाद में सोती हूं। यह पति-भक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण मन्त्र है।
एतज्जानाम्यहं कर्त्तव्यं भर्तु सवननमहत् ।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्या न कामये ।।
भावार्थ― पति को वश में करने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय यही मैं जानती हूं। दुराचारिणी स्त्रियाँ जिन उपायों का आचरण करती हैं, न तो मैं उन्हें करती हूं और न करने की कामना ही करती हूं।
नैतादृशं दैवतमस्ति सत्ये सर्वेषु लोकेषु सदेवकेषु ।
यथा पतिस्तस्यतु सर्वकामा लभ्य: प्रसादात् कुपितश्चहन्यात् ।।
भावार्थ― हे सत्यभामा ! देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में स्त्रियों के लिये अपने पति के समान कोई अन्य देवता नहीं है। पति की प्रसन्नता से नारी की सम्पूर्ण कामना सफल हो सकती हैं और यदि पति कुपति हो जाय तो वह नारी की समस्त आशाओं को नष्ट कर सकता है।
इसीलिये तो मानव धर्मशास्त्र प्रणेता मनु ने कहा―
दाराधीनस्तथा स्वर्ग ।
अर्थात् स्वर्ग (गृहस्थ जीवन की सुख-शान्ति) नारी के आधीन है।


👉👉महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 146 में पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन हुआ है।

महादेव नारद संवाद

नारद जी कहते हैं- ऐसा कहकर महादेव जी स्वयं भी पार्वती जी के मुँह से कुछ सुनने की इच्छा करने लगे। अतएव स्वयं भगवान शिव ने पास ही बैठी हुई अपनी प्रिय एवं अनुकूल भार्या पार्वती से कहा।

श्री महेश्वर बोले- तपोवन में निवास करने वाली देवि! तुम भूत और भविष्य को जानने वाली, धर्म के तत्त्व को समझने वाली और स्वयं भी धर्म का आचरण करने वाली हो। सुन्दर केशों और भौंहों वाली सती-साध्वी हिमवान- कुमारी! तुम कार्यकुशल हो, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह से भी सम्पन्न हो। तुम में अहंता और ममता का सर्वथा अभाव है, अतः वरारोहे! मै! तुमसे एक बात पूछता हूँ। मेरे पूछने पर तुम मुझे मेरे अभीष्ट विषय को बताओ।

ब्रह्मा जी की पत्नी साध्वी हैं। इन्द्र पत्नी शची भी सती हैं। विष्णु की प्यारी पत्नी लक्ष्मी पतिव्रता हैं। इसी प्रकार यम की भार्या धृतिमार्कण्डेय की पत्नी धूमोर्णाकुबेर की स्त्री ऋद्धिवरुण की भार्या गौरीसूर्य की पत्नी सुवर्चलाचन्द्रमा की साध्वी स्त्री रोहिणी, अग्नि की भार्या स्वाहा और कश्यप की पत्नी अदिति- ये सब-की-सब पतिव्रता देवियाँ हैं। देवि! तुमने इन सबका सदा संग किया है और इन सबसे धर्म की बात पूछी है। अतः धर्मवादिनि धर्मज्ञे! मैं तुमसे स्त्री धर्म के विषय में प्रश्न करता हूँ और तुम्हारे मुख से वर्णित नारी धर्म आद्योपान्त सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी सहधर्मिणी हो। तुम्हारा शील-स्वभाव तथा व्रत मेरे समान ही है।

तुम्हारी सारभूत शक्ति भी मुझसे कम नहीं है। तुमने तीव्र तपस्या भी की है। अतः देवि! तुम्हारे द्वारा कहा गया स्त्रीधर्म विशेष गुणवान होगा और लोक में प्रमाणभूत माना जायगा। विशेषतः स्त्रियाँ ही स्त्रियों की परम गति हैं। सुश्रोणि! संसार में भूतल पर यह बात सदा से प्रचलित है। मेरा आधा शरीर तुम्हारे आधे शरीर से निर्मित हुआ है। तुम देवताओं का कार्य सिद्ध करने वाली तथा लोक-संतति का विस्तार करने वाली हो। अनिन्दिते! नारी की कही हुई जो बात होती है, उसे ही स्त्रियों में अधिक महत्त्व दिया जाता है। पुरुषा की कही हुई बात को स्त्रियों में वैसा महत्त्व नहीं दिया जाता। शुभे! तुम्हें सम्पूर्ण सनातन स्त्रीधर्म का भलीभाँति ज्ञान है,अतः अपने धर्म का पूर्णरूप से विस्तारपूर्वक मेरे आगे वर्णन करो।

पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन

उमा ने कहा- भगवन! सर्वभूतेश्वर! भूत, भविष्य और वर्तमानकालस्वरूप सर्वश्रेष्ठ महादेव! आपके प्रभाव से मेरी यह वाणी प्रतिभासम्पन्न हो रही है- अब मैं स्त्रीधर्म का वर्णन कर सकती हूँ। किंतु देवेश्वर! ये नदियाँ सम्पूर्ण तीर्थों के जल से सम्पन्न हो आपके स्नान और आचमन आदि के लिये अथवा आपके चरणों का स्पर्श करने के लिये यहाँ आपके निकट आ रही हैं। मैं इन सबके साथ सलाह करके क्रमशः स्त्री धर्म का वर्णन करूँगी। जो व्यक्ति समर्थ होकर भी अहंकार शून्य हो, वही पुरुष कहलाता है।

भूतनाथ! स्त्री सदा स्त्री का ही अनुसरण करती है। मेरे ऐसा करने से ये श्रेष्ठ सरिताएँ मेरे द्वारा सम्मानित होंगी। ये नदियों में उत्तम पुण्यसलिला सरस्वती विराजमान हैं, जो समुद्र में मिली हुई हैं। ये समस्त सरिताओं में प्रथम (प्रधान) मानी जाती हैं। इनके सिवा विपाशा (व्यास), वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा (चनाव), इरावती (रावी) शतद्रू (शतलज), देविका, सिन्धु कौशिकी (कोसी), गौतमी (गोदावरी)यमुनानर्मदा तथा कावेरी नदी भी यहाँ विद्यमान हैं।[1]

ये समस्त तीर्थों से सेवित तथा सम्पूर्ण सरिताओं में श्रेष्ठ देवनदी गंगा देवी भी, जो आकाश से पृथ्वी पर उतरी हैं, यहाँ विराजमान हैं। ऐसा कहकर देवाधिदेव महादेव जी की पत्नी, धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, धर्मवत्सला,देवमहिषी उमा ने स्त्री धर्म के ज्ञान में निपुण गंगा आदि उन समस्त श्रेष्ठ सरिताओं को मन्द मुस्कान के साथ सम्बोधित करके उनसे स्त्रीधर्म के विषय में प्रश्न किया।

उमा बोलीं- हे समस्त पापों का विनाश करने वाली, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न पुण्यसलिला श्रेष्ठ नदियो! मेरी बात सुनो! भगवान शिव ने यह स्त्रीधर्मसम्बन्धी प्रश्न उपस्थित किया है। उसके विषय में मैं तुम लोगों से सलाह लेकर ही भगवान शंकर से कुछ कहना चाहती हूँ। समुद्रगामिनी सरिताओ! पृथ्वी पर या स्वर्ग में मैं किसी का भी ऐसा कोई विज्ञान नहीं देखती, जिसे उसने अकेले ही- दूसरों का सहयोग लिये बिना ही सिद्ध कर लिया हो, इसीलिये मैं आप लोगों से सादर सलाह लेती हूँ। इस प्रकार उमा ने जब समस्त कल्याणस्वरूपा परम पुण्यमयी श्रेष्ठ सरिताओं के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया, तब उन्होंने इसका उत्तर देने के लिये देवनदी गंगा को सम्मानपूर्वक नियुक्त किया। पवित्र मुसकानवाली गंगा जी अनेक बुद्धियों से बढ़ी-चढ़ी, स्त्री-धर्म को जानने वाली, पाप-भय को दूर करने वाली, पुण्यमयी, बुद्धि और विनय से सम्पन्न, सर्वधर्मविशारद तथा प्रचुर बुद्धि से संयुक्त थीं। उन्होंने गिरिराज कुमारी उमा देवी से मन्द-मन्द मुसकरकाते हुए कहा।

गंगा जी ने कहा- देवि! धर्मपरायणे! अनघे! मैं धन्य हूँ। मुझ पर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है, क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत की सम्माननीया होने पर भी एक तुच्छ नदी को मान्यता प्रदान कर रही हैं। जो सब प्रकार से समर्थ होकर भी दूसरों से पूछता तथा उन्हें सम्मान देता है और जिसके मन में कभी दुष्टता नहीं आती, वह मनुष्य निस्संदेह पण्डित कहलाता है। जो मनुष्य ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न और ऊहापोप में कुशल दूसरे-दूसरे वक्ताओं से अपना संदेह पूछता है, वह आपत्ति में नहीं पड़ता है।

विशेष बुद्धिमान पुरुष सभा में और तरह की बात करता है और अहंकारी मनुष्य और ही तरह की दुर्बलतायुक्त बातें करता है। देवि! तुम दिव्य ज्ञान से सम्पन्न और देवलोक में सर्वश्रेष्ठ हो। दिव्य पुण्यों के साथ तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम्हीं हम सब लोगों को स्त्री-धर्म का उपदेश देने के योग्य हो। तदनन्तर गंगा जी के द्वारा अनेक गुणों का बखान करके पूजित होने पर देव सुन्दरी देवी उमा ने सम्पूर्ण स्त्री-धर्म का पूर्णतः वर्णन किया।

उमा बोलीं- स्त्री-धर्म का स्वरूप मेरी बुद्धि में जैसा प्रतीत होता है, उसे मैं विधिपूर्वक बताऊँगी। तुम विनय और उत्सुकता से युक्त होकर इसे सुनो। विवाह के समय कन्या के भाई-बन्धु पहले ही उसे स्त्री-धर्म का उपदेश कर देते हैं। जबकि वह अग्नि के समीप अपने पति की सहधर्मिणी बनती है। जिसके स्वभाव, बातचीत और आचरण उत्तम हों, जिसको देखने से पति को सुख मिलता हो, जो अपने पति के सिवा दूसरे किसी पुरुष में मन नहीं लगाती हो और स्वामी के समक्ष सदा प्रसन्नमुखी रहती हो, वह स्त्री धर्माचरण करने वाली मानी गयी है। जो साध्वी स्त्री अपने स्वामी को सदा देवतुल्य समझती है, वही धर्मपरायणा और वही धर्म के फल की भागिनी होती है।[2] जो पति की देवता के समान सेवा और परिचर्या करती हैं, पति के सिवा दूसरे किसी से हार्दिक प्रेम नहीं करती, कभी नाराज नहीं होती तथा उत्तम व्रत कापालन करती है, जिसका दर्शन पति को सुखद जान पड़ता है, जो पुत्र के मुख की भाँति स्वामी के मुख की ओर सदा निहारती रहती है तथा जो साध्वी एवं नियमित आहार का सेवन करने वाली है, वह स्त्री धर्मचारिणी कही गयी है। ‘पति और पत्नी को एक साथ रहकर धर्माचरण करना चाहिये।’ इस मंगलमय दाम्पत्य धर्म को सुनकर जो स्त्री धर्मपरायण हो जाती है, वह पति के समान व्रत का पालन करने वाली (पतिव्रता) है।

साध्वी स्त्री सदा अपने पति को देवता के समान समझती है। पति और पत्नी का यह सहधर्म (साथ-साथ रहकर धर्माचरण करना) रूप धर्म परम मंगलमय है। जो अपने हृदय के अनुराग के कारण स्वामी के अधीन रहती है, अपने चित्त को प्रसन्न रखती है, देवता के समान पति की सेवा और परिचर्या करती है, उत्तम व्रता का आश्रय लेती है ओर पति के लिये सुखदायक सुन्दर वेष धारण किये रहती है, जिसका चित्त पति के सिवा और किसी की ओर नहीं जाता, पति के समक्ष प्रसन्नवदन रहने वाली वह स्त्री धर्मचारिणी मानी गयी है। जो स्वामी के कठोर वचन कहने या दोषपूर्ण दृष्टि से देखने पर भी प्रसन्नता से मुसकराती रहती है, वही स्त्री पतिव्रता है। जो सुन्दरी नारी पति के सिवा पुरुष नामधारी चन्द्रमासूर्य और किसी वृक्ष की ओर भी दृष्टि नहीं डालती, वही पातिव्रतधर्म का पालन करने वाली है। जो नारी अपने दरिद्र, रोगी, दीन अथवा रास्ते की थकावट से खिन्न हुए पति की पुत्र के समान सेवा करती है, वह धर्मफल की भागिनी होती है। जो स्त्री अपने हृदय को शुद्ध रखती, गृहकार्य करने में कुशल और पुत्रवती होती, पति से प्रेम करती और पति को ही अपने प्राण समझती है, वही धर्मफल पाने की अधिकारिणी होती है।

जो सदा प्रसन्नचित्त से पति की सेवा-सुश्रूषा में लगी रहती है, पति के ऊपर पूर्ण विश्वास रखती और उसके साथ विनयपूर्ण बर्ताव करती है, वही नारी धर्म के श्रेष्ठ फल की भागिनी होती है। जिसके हृदय में पति के लिये जैसी चाह होती है, वैसी काम, भोग और सुख के लिये भी नहीं होती। वह स्त्री पातिव्रत धर्म की भागिनी होती है। जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठने में रुचि रखती है, घरों के काम-काज में योग देती है, घर को झाड़-बुहारकर साफ रखती है और गोबर से लीप-पोतकर पवित्र बनाये रखती है, जो पति के साथ रहकर प्रतिदिन अग्निहोत्र करती है, देवताओं को पुष्प और बलि अर्पण करती है तथा देवता, अतिथि और पोष्यवर्ग को भोजन से तृप्त करके न्याय और विधि के अनुसार शेष अन्न का स्वयं भोजन करती है तथा घर के लोगों को हृष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट रखती है, ऐसी ही नारी सती-धर्म के फल से युक्त होती है। जो उत्तम गुणों से युक्त होकर सदा सास-ससुर के चरणों की सेवा में संलग्न रहती है तथा माता-पिता के प्रति भी सदा उत्तम भक्तिभाव रखती है, वह स्त्री तपस्यारूपी धन से सम्पन्न मानी गयी है। जो नारी ब्राह्मणों, दुर्बलों, अनाथों, दीनों, अन्धों और कृपणों (कंगालों) का अन्न के द्वारा भरण-पोषण करती है, वह पातिव्रत धर्म के पालन का फल पाती है।[3]

जो प्रतिदिन शीघ्रतापूर्वक मर्यादा का बोध कराने वाली बुद्धि के द्वारा दुष्कर व्रत का आचरण करती है, पति में ही मन लगाती है और निरन्तर पति के हित-साधन में लगी रहती है, उसे पतिव्रत-धर्म के पालन का सुख प्राप्त होता है। जो साध्वी नारी पतिव्रत-धर्म का पालन करती हुई पति की सेवा में लगी रहती है, उसका यह कार्य महान पुण्य, बड़ी भारी तपस्या और सनातन स्वर्ग का साधन है। पति ही नारियों का देवता, पति ही बन्धु-बान्धव और पति ही उनकी गति है।

नारी के लिये पति के समान न दूसरा कोई सहारा है और न दूसरा कोई देवता। एक ओर पति की प्रसन्नता और दूसरी ओर स्वर्ग- ये दोनों नारी की दृष्टि में समान हो सकते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मेरे प्राणनाथ महेश्वर! मैं तो आपको अप्रसन्न रखकर स्वर्ग को नहीं चाहती। पति दरिद्र हो जाय, किसी रोग से घिर जाय, आपत्ति में फँस जाय, शत्रुओं के बीच में पड़ जाय अथवा ब्राह्मण के शाप से कष्ट पा रहा हो, उस अवस्था में वह न करने योग्य कार्य, अधर्म अथवा प्राणत्याग की भी आज्ञा दे दे, तो उसे आपत्तिकाल का धर्म समझकर निःशंकभाव से तुरंत पूरा करना चाहिये।

देव! आपकी आज्ञा से मैंने यह स्त्री धर्म का वर्णन किया है। जो नारी ऊपर बताये अनुसार अपना जीवन बनाती है, वह पातिव्रत-धर्म के फल की भागिनी होती है। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिरपार्वती जी के द्वारा इस प्रकार नारीधर्म का वर्णन सुनकर देवाधिदेव महादेव जी ने गिरिराजकुमारी का बड़ा आदर किया और वहाँ समस्त अनुचरों के साथ आये हुए लोगों को जाने की आज्ञा दी। तब समस्त भूतगण, सरिताएँ, गन्धर्व और अप्सराएँ भगवान शंकर को सिर से प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को चली गयीं।




Thursday, February 29, 2024

हिन्दी लेखन में 'ई' और 'यी' में, 'ए' और 'ये' में और 'एँ' और 'यें' में क्या अंतर है?

*हिन्दी लिखने वाले अक़्सर 'ई' और 'यी' में, 'ए' और 'ये' में और 'एँ' और 'यें' में जाने-अनजाने गड़बड़ करते हैं...।*
कहाँ क्या इस्तेमाल होगा, इसका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए...।
जिन शब्दों के अन्त में 'ई' आता है वे संज्ञाएँ होती हैं क्रियाएँ नहीं,
*जैसे: मिठाई, मलाई, सिंचाई, ढिठाई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, निराई, गुणाई, लुगाई, लगाई-बुझाई...।*
इसलिए 'तुमने मुझे पिक्चर दिखाई' में 'दिखाई' ग़लत है... इसकी जगह 'दिखायी' का प्रयोग किया जाना चाहिए...। इसी तरह कई लोग 'नयी' को 'नई' लिखते हैं...। 'नई' ग़लत है , सही शब्द 'नयी' है... मूल शब्द 'नया' है , उससे 'नयी' बनेगा...।
क्या तुमने क्वेश्चन-पेपर से आंसरशीट मिलायी...?
( 'मिलाई' ग़लत है...।)
आज उसने मेरी मम्मी से मिलने की इच्छा जतायी...।
( 'जताई' ग़लत है...।)
उसने बर्थडे-गिफ़्ट के रूप में नयी साड़ी पायी...। ('पाई' ग़लत है...।)

*अब आइए 'ए' और 'ये' के प्रयोग पर...।*
बच्चों ने प्रतियोगिता के दौरान सुन्दर चित्र बनाये...। ( 'बनाए' नहीं...। )
लोगों ने नेताओं के सामने अपने-अपने दुखड़े गाये...। ( 'गाए' नहीं...। )
दीवाली के दिन लखनऊ में लोगों ने अपने-अपने घर सजाये...। ( 'सजाए' नहीं...। )
*तो फिर प्रश्न उठता है कि 'ए' का प्रयोग कहाँ होगा..?*
 'ए' वहाँ आएगा जहाँ अनुरोध या रिक्वेस्ट की बात होगी...।
अब आप काम देखिए, मैं चलता हूँ...। ( 'देखिये' नहीं...। )
आप लोग अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी के विषय में सोचिए...। ( 'सोचिये' नहीं...। )
नवेद! ऐसा विचार मन में न लाइए...। ( 'लाइये' ग़लत है...। )

*अब आख़िर (अन्त) में 'यें' और 'एँ' की बात...*
यहाँ भी अनुरोध का नियम ही लागू होगा... रिक्वेस्ट की जाएगी तो 'एँ' लगेगा , 'यें' नहीं...।
आप लोग कृपया यहाँ आएँ...। ( 'आयें' नहीं...। )
जी बताएँ , मैं आपके लिए क्या करूँ ? ( 'बतायें' नहीं...। )
मम्मी , आप डैडी को समझाएँ...। ( 'समझायें' नहीं...। )

*अन्त में सही-ग़लत का एक लिटमस टेस्ट...*
एकदम आसान सा... जहाँ आपने 'एँ' या 'ए' लगाया है , वहाँ 'या' लगाकर देखें...। क्या कोई शब्द बनता है ? यदि नहीं , तो आप ग़लत लिख रहे हैं...।
आजकल लोग 'शुभकामनायें' लिखते हैं... इसे 'शुभकामनाया' कर दीजिए...। 'शुभकामनाया' तो कुछ होता नहीं , इसलिए 'शुभकामनायें' भी नहीं होगा...।
'दुआयें' भी इसलिए ग़लत है और 'सदायें' भी... 'देखिये' , 'बोलिये' , 'सोचिये' इसीलिए ग़लत हैं क्योंकि 'देखिया' , 'बोलिया' , 'सोचिया' कुछ नहीं होते...।