Friday, December 21, 2018

अरुण जी के अनुसार ब्राह्मण

#संस्कार---

#अप्रतिग्रह~>
"अरुण" भगवान्-सूर्यनारायण के सारथी हैं,भगवान् सूर्यनारायण के समान ही ये भी समस्त प्राणियों के धर्म-कर्म के साक्षी हैं| भगवान् सूर्य के सात-घोडें से समन्वित दिव्य-रथ में आरूढ़ होकर ये घोडों की वल्गा(लगाम) थामकर सूर्य के पथ में भ्रमण करतें रहतें हैं | पूर्व क्षितिज मैं सूर्योदय से पूर्व अरुण की लालिमा स्पष्ट दिख पड़ती हैं | "अरुण" प्रजापति कश्यप के पुत्र हैं,इसलिये ये कश्यप या काश्यपेय भी कहलातें हैं | इनकी माता का नाम विनता हैं | इन्हों ने श्येनी से सम्पाती तथा जटायु नामक दो पुत्रों को प्राप्त किया था | समस्त संसार के प्रत्यक्ष दृष्टा होने के कारण इनसे कुछ भी नहीं छिपा नहीं हैं | ये सभी बातों की जानकारी रखतें हैं | इनकी "अरुण-स्मृति" विख्यात हैं |
#ब्राह्मण - का स्वरूप कितना शुद्ध,निर्मल,पवित्र और तपःपूर्ण होता हैं--- यह "अरुण-स्मृति" का मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं | ब्राह्मण स्वधर्मपालन, चरित्र और तपस्या की दृष्टि से वह देवताओं से भी बहुत ऊपर उठा हुआ हैं | भगवान् सूर्य और अरुण के संवाद में इस स्मृति में #ब्राह्मण - के #अप्रतिग्रह - मुख्य धर्म का निरुपण हुआ हैं | यद्यपि ब्राह्मण के अप्रतिग्रह-धर्म(दान न लेने, संग्रह न करने) - का वर्णन अन्य #मनु आदि स्मृतियों में भी आया हैं | किंतु इस स्मृति में आद्योपान्त केवल यही विषय बड़े ही विस्तार से वर्णित हैं | इसके अतिरिक्त इसमें अन्य कोई बात नहीं आयी हैं; इस दृष्टि से इस स्मृति का विशेष महत्त्व प्रतीत होता हैं | वास्तव में विशुद्ध-ब्राह्मणत्व क्या हैं? यह इस स्मृति के अध्ययन से भलीभाँति समझमें आ जाता हैं |
तपस्या, गायत्री-उपासना,स्वाध्याय और आत्मज्ञान ---यह ब्राह्मण का श्रेष्ठ धर्म हैं | शास्त्रों में यद्यपि --- अद्ययन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना, तथा दान लेना और दान देना--- ये ६ मुख्य वर्णधर्म बतलायें गये हैं, तथापि इनमें भी "#त्यागवृत्ति_एवं_संतोषपूर्वक" रहना उनका मुख्य लक्षण निर्दिष्ट किया गया हैं | ब्राह्मण के लिये किंचित् भी धन-संचय न करके उसे असंग्रही होने का निर्देश हैं; क्योंकि धन-सम्पत्ति तपस्या आदि कल्याणकारी मार्ग में प्रबल-बाधक हैं | ब्राह्मण के लिये धर्मशास्त्र में यह आज्ञा हैं कि वह दान लेने में (प्रतिग्रह में) समर्थ होनेपर भी #लोभ के वशीभूत हो किसी से दान न ले | इससे उसका ब्रह्मतेज नष्ट हो जाता हैं | अतः उसे उचित हैं कि धर्मपूर्वक,#न्यायपूर्वक वित्तोपार्जन करनेवालों से बहुत आवश्यक होनेपर ही दान ले |((((( शास्त्रों में यज्ञ,पूजा,श्राद्ध आदि की जो उचित दक्षिणा हैं वह भी - #न्यायपूर्वक--- मूलदक्षिणा अथवा मूलदक्षिणा के द्वितीयांश,तृतीयांश चतुर्थांश-दक्षिणा का ही अधिकारी हैं,अथवा यजमानकी शक्ति-सामर्थ्य को जाऩकर #ब्राह्मण_वचनात्"" यजमानके हित में हो इतनी ही दक्षिणा का ग्रहण उचित हैं | मनुने तो कहा हैं कि ---- दैन्यतादि कारणों से -  #पुण्याणन्यन्यानि_कुर्वीत_श्रद्धदानो_जितेन्द्रियः | #न_त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते_ह_कथंचन ||मनुस्मृ०११/३९||अर्थात्  श्रद्धावान् जितेन्द्रिय पुरुष ! पुण्य के दुसरें कर्मों को करैं,परंतु न्यून(कम) दक्षिणा देकर कोई यज्ञ न करैं- अर्थात् बिना पूरी दक्षिणा, यज्ञ न करना चाहिए | क्योंकि ----> #इन्द्रियाणि_यशः_स्वर्गमायुः_कीर्तिं_प्रजाः_पशून् | #हन्त्यल्पदक्षिणो_यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो_यजेत् ||मनुः११/४०|| अर्थात् न्यून दक्षिणा देकर यज्ञ कराने से यज्ञ !  इन्द्रियाँ, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश करता हैं |----->
#अन्नहीनो_दहेद्राष्ट्रं_मन्त्रहीनस्तु_ऋत्विजः | #दीक्षीतं_दक्षिणाहिनो_नास्ति_यज्ञसमो_रिपुः ||स्कांदे ||
अर्थात् यज्ञ अन्नदान(ब्रह्मभोजनादि) रहित किया हो तो देश का, मंत्रों के अज्ञानसे किया हुआ यज्ञ ! ब्राह्मण(ऋत्विज) का, दक्षिणा के अभाव में किया हुआ यज्ञ यजमान का नाश करता हैं ऐसे किसी भी "अंगसे रहित यज्ञ" जैसा कोई शत्रु नहीं | आज वर्तमान में --- ९५℅  के महारुद्र/ अतिरुद्र/ सहस्रचंडी,लक्षचंडी आदि पूर्णरूप से नहीं कर सकतें- क्योंकि आचार्य  भले ही कितना भी विद्वान हो परंतु आचार्य से बढ़कर इन्हीं यज्ञों में पाठप्रधान - पाठकों की यथाविधि-पाठ पूर्ति और होमप्रधान में - होताओं  मंत्रज्ञाता होना जरुरी हैं पर इसकी ही कमी होती हैं | अन्यायोपार्जित द्रव्य कदापि न ग्रहण करें |
प्रतिग्रहसे ब्राह्मण का ब्राह्मतेज नष्ट हो जाता हैं | धन के लोभ में पड़कर यदि वह दान लेता हैं तो निर्विष सर्प की तरह तेजोहिन,सत्त्वहीन हो जाता हैं | विद्या,विवेक,बुद्धि,ज्ञान से हीन हो जाता हैं | उसका पुण्य भी नष्ट हो जाता हैं | अतः उसे अत्यन्त अपरिग्रही होकर शास्त्र की मर्यादाका पालन करना चाहिये | इसी में ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व हैं | यदि वह अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाय तो उसका ब्राह्मणत्व व्यर्थ हैं | ब्राह्मण को उपवास,जप, तप एवं धर्माचरण में ही निरत रहना चाहिये | त्याग के कारण ही ब्राह्मण पूज्यता हैं | भगवान् आदित्य अरुण से कहतें हैं कि " हे काश्यपेय"!---> #प्रतिग्रहः_काश्यपेय_मध्वास्वादो_विषोपमः | #ब्राह्मणाय_भवेन्नित्यं_दाता_धर्मेण_युज्यते ||अरुणस्मृ ३||
ब्राह्मण के लिये प्रतिग्रह ऊपरसे मधु के समान मीठा जान पड़ता हैं,किंतु परिणाम में वह विष के समान हो जाता हें,किंतु दाता के लिये वह पुण्य ही होता हैं |
#प्रतिग्रहेण_विप्राणां_ब्राह्मं_तेजः_प्रशाम्यति | #अतः_प्रतिग्रहं_कृत्वा_प्रायश्चित्तं_समाचरेत् ||अरुणस्मृ२६||
दान लेने से ब्राह्मणों का तेज नष्ट हो जाता हैं,इसलिये प्रतिग्रह लेनेपर प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिये |
#दुष्टंप्रतिग्रहं_कृत्वा_विप्रो_भवति_किल्बिषी | #अपि_भिक्षागृहिते_तु_पुण्यमन्त्रमुदीरयेत् ||अरुणस्मृ २७||
दोषयुक्त दान लेने से ब्राह्मण दाता कें दोष-पापों का भागी बन जाता हैं | यहाँ तक कि भिक्षा का जो अन्न ब्राह्मण ग्रहण करता हैं,उसके लिये भी उसे "गायत्री मंत्र" ऋग्वेद के "तरत्समंदी सूक्त" के मंत्रों आदि पुण्यप्रद मन्त्रों का जप करना चाहिये | तभी दोष-पाप की शान्ति होती हैं |
विद्वान् को चाहिये कि प्रथम तो वह प्रतिग्रह ले ही न, यदि ले भी तो शरीर की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करें,जप करें,होम करें | प्रतिग्रह के धन में से भी दान करें,गायों की सेवा में लगायें, दीन दुःखीयों को बाँटे, इस प्रकार प्रायश्चित्त आदि करने तथा धन के सदुपयोग से प्रतिग्रहजन्य दोष-पाप से वह मुक्त हो जाता हैं ----> #तस्मात्_प्रतिग्रहं_कृत्वा_प्रायश्चित्तं_समाचरेत् ||४१|| ***************
#प्रायश्चित्ते_कृते_विप्रो_मुच्यते_दुष्परिग्रहात् ||अरुणस्मृ -४३||
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#प्रतिग्रहार्जितं_द्रव्यं_सर्वं_नश्यति_मूलतः ||अरुण०७३|| प्रतिग्रहका धन स्थिर भी नहीं रह सकता, वह समूल नष्ट हो जाता हैं | इसलिये ----> #तस्मात्_प्रतिग्रहधनं_न_स्थिरं_स्यात्_कदाचन | #प्राज्ञः_प्रतिग्रहं_कृत्वा_तद्धनं_सद्गतिं_नयेत् ||अरुण०१३९||
उस प्रतिग्रह धन को लोकहित कें यज्ञादि पुण्यानुष्ठानों, मन्दिरों, वापी,कूप,तालाब आदि के निर्माण आदि सत्कार्यों में लगाना चाहिये |
(((((#प्रतिग्रहे_न_दोषः_स्याद्_दोषस्तस्यैव_विक्रये || अरुण० )))) भगवान् सूर्यनारायण अरुण को यह भी कहतें हैं कि - प्रतिग्रह में उतना दोष नहीं हैं,जितना कि उसके बेचनेमें ||अरुणस्मृति सार ||

ॐ स्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ

#कलियुग_में_बड़े_यज्ञों करने से बहुत सारे अनिष्ट उत्पन्न होकर कर्ता, आचार्य,ऋत्विज तथा देश को हानि उत्पन्न हो सकतीं हैं,,,, ध्यातव्य हैं कि यज्ञ केवल विद्वान आचार्य पर सम्पन्न नहीं होता परंतु सभी होताओं मंत्रविद् हो तो ही सम्पन्न होता हैं,, देश(जगह)काल(मुर्हूत),द्रव्य #अनधिकारी आदि का विचार (आचार्यादि ब्राह्मण वर्ग में से भी संध्यादि नित्यकर्म प्रवृत्त नहीं होतें, तो कुछ प्याज,लहसुन खाने वाले, तो कोई व्रात्य यजमान, तो कोई पतित यजमान, तो कहीं कहीं केवल सिर गिनानेवालें (कर्मकांड सम्बन्धित अज्ञानी)ब्राह्मणों का वरण,  तो कहीं समुहयज्ञसे संकरतादोष, तो यजमान स्वयं नित्य सन्ध्योपासनादि कर्म न करता हो आदि) सब भ्रष्ट हैं ---- ऐसे में यज्ञ से शुभफल के विपरित नानाविध उपद्रव और देश का सर्वविध विनाश हो रहा हैं ---
#कलियुग_योग्य_निर्दोष_कर्मकांड--- वेदपारायण,पाठात्मक,जपात्मक,अभिषेकात्मक, नन्हें प्रयोग-विधानों से ही यह अनिष्ट होने से बच सकतें हैं, #बड़े_यज्ञ_देश_के_लिए -- हानिकारक हैं |

#नास्ति_यज्ञसमो_रिपुः ||स्कन्द पु०||

Tuesday, December 18, 2018

आत्म परिचय

क्या बताऊँ तुम्हें क्या हूँ मैं
एक हवा का झोका हूँ, पानी का बुल-बुला हूँ, बारिश का फवाॅरा और अस्तित्व का इशारा हूँ।
डॉ मुकेश ओझा

भारत

भारत एक अद्भुत देश है।
अद्भुत इसलिए कहां, क्योंकि इसने सिर्फ एक ही खोज की — सत्य की खोज
जो खोज पृथ्वी पर कहीं अन्यत्र नहीं हुआ।

भारत सिर्फ एक देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है—एक प्रतीक, एक काव्य, कुछ अदृश्य सा—चेतना का क्षेत्र
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

Thursday, December 13, 2018

मन्त्र जप करने का नियम

#साधना में महत्वपूर्ण स्थान मन्त्र का होता है, परन्तु यदि मन्त्र को एकाकार होकर ध्यान पूर्वक न पढ़ा जाय तो मन्त्र अपने फल को प्रदान नहीं करता। और साधक का साधना अधूरा ही रह जाता है।
कभी कभी जन मानस से यह भी प्रश्न उठता रहा है कि हमने पुजा कराया मन्त्रों का जप करवाया परन्तु उससे कोई लाभ नहीं। इस प्रकार के प्रश्नों का एक उत्तर है मन्त्र को नियम से नही छपा गया।

#मन्त्र को #जप करने का #नियम -
मनो मध्ये स्थितो मन्त्रो , मन्त्र मध्ये स्थितं मनः।
मनो मन्त्र समायुक्तं,एतद्धि जप  लक्षणम्॥

जैसे जल और शर्करा दोनो मिलकर एकाकार हो जाते हैं इसी प्रकार मन्त्रऔर मन दोनो की एकता को जप कहते हैं। जिस प्रकार जल मे विलीन शक्कर जलाकारा  हो जाती है इसी प्रकार मन्त्र चिन्तन मे लीन मन मन्त्राकार हो जाय  मन्त्र के अतिरिक्त उसकी स्वतन्त्र सत्ता शेष न रहे यह मन्त्र जप का वास्तविक स्वरूप है ।
इसीलिये सन्त  कहते हैं -
माला तो कर मे फिरै जीभ  फिरै मुख माहिं।
मनवा तो  चहुँ दिशि फिरे यह तो सुमिरन नाहिं॥

और एकाकार हुए बिना मन्त्र जपने पर कबीर दास भी एक दोहा कहें हैं-
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
-#डॉ_मुकेश_ओझा
#ज्योतिष_एवं_आध्यात्मिक_सलाहकार

Friday, December 7, 2018

अस्मद् और युष्मद् शब्द के क्रियाओं का अभ्यास

ॐहरिःॐ🌷ॐहरिःॐ🌷ॐहरिःॐ

(( अभ्यासं करोतु ))
अहम्         =    मैं
पठिष्यामि   =  पढ़ूँगा ।
लेखिष्यामि  =  लिखूँगा ।
वदिष्यामि    =  बोलूँगा ।
चोरयिष्यामि =  चुराऊँगा ।
शयिष्ये        =  सोऊँगा ।
पास्यामि      =  पियूँगा ।
अत्स्यामि     =  खाऊँगा ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~
आप भी दो-चार क्रियाएँ लिखिये !!

ॐ॥ जयतुसंस्कृतम् ॥ॐ॥ जयतुभारतम् ॥ॐ

ॐहरिःॐ🌴ॐहरिःॐ🌴ॐहरिःॐ

त्वं            =     तुम
खादसि     =   खाते हो ।
पिबसि      =   पीते हो ।
निद्रासि     =   सोते हो ।
जागर्षि     =  जागते हो ।
पठसि      =   पढ़ते हो ।
भ्रमसि     =   घूमते हो ।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

आप भी दो-चार क्रियाएँ लिखिये !!

जयतुसंस्कृतम् ॥ॐ॥ जयतुभारतम् ॥

Thursday, December 6, 2018

आरक्षण पर कविता

मै मौन था, तुम सोचे मै निर्बल हूँ।
मै! तुम दिन दुःखी के लिए आरक्षण स्वीकार किया।
तुम समझे मैं मूर्ख हूँ।
अब तुम हमारे साथ हमारे देवी देवताओं का अपमान करने लगे।
हमारे धर्म ग्रंथ जलाने लगे।
और तुम हमारे ही टुकड़े पर पल कर हमें ही गरियाने लगें।
विश्व जिस वेद का गुण गान कर रहा तुम उसे अपशब्द बोलने लगें।
तो लो अब मैं भी सुनाता हूँ।
क्रोध का अग्नि जलाता हूँ।
तुम्हें तुम्हारे करनी का फल दिलाता हूँ सभ्यता का पाठ पढाता हूँ।
पुनः दरिद्र बनाता हूँ धूल तुम्हें चटाता हूँ।
संस्कार अब मैं सिखाता हूँ,
त्रिशूल अपना दिखाता हूँ  परशु अपना चमकाता हूँ।
मैं ब्राह्मण हूँ पुनः ब्राह्मण बन दिखाता हूँ।
                              -डॉ मुकेश ओझा
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Friday, November 23, 2018

सभी बीमारियाँ पहले मस्तिष्क में जन्म लेती हैं।

सभी बीमारियाँ पहले मस्तिष्क में जन्म लेती हैं।
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जब तक मानसिक पेटर्न उस अनुरूप न बन जाय, तब तक बीमारियाँ शरीर पर प्रकट नहीं होती है। असाध्य मानसिक या शारीरिक रोग की जड़ें सदा ही गहरे अवचेतन मन में होती है। छिपी हुई जडों को उखाडकर रोग को ठीक किया जा सकता है। मनुष्य की देह (सिक्रेशन) सबसे अधिक दवाएँ बनाने का कारखाना है । हमारी देह के उपचार में काम आने वाली सभी दवाओं के केमिकल्स हमारी देह में बनाए जाते है। इन सब दवाओं का निर्माण हमारी सोच एवं भावनाओं पर निर्भर है। नकारात्मक सोच व नकारात्मक भावनाओं से हमारे सिक्रेशन प्रभावित होते हैं । दुनिया के सबसे धीमे मारने वाले भंयकर जहर भी इसी देह में बनते है।
हमारी स्थूल देह के पीछे क्वान्तम भौतिकीय देह है जो कि सूक्ष्म है, अदृश्य है। स्थूल देह का जन्म इसी सूक्ष्म देह की बदौलत है। उसमें परिवर्तन इसी के आधार पर होते हंै।
वातावरण वास्तव में हमारी देह का विस्तार है।जैसे दो तारो व ग्रहो के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने के उपरान्त वं आपस में भी सम्बंन्धित है। वैसे ही हमारी देह के अणुओं के बीच सम्बन्ध न होने के बावजूद आपस में सम्बन्धित है।
हमारी देह का रूपाकार किसी शिल्प कृति से कम नहीं है।भीतर बैठी प्रज्ञा का यह आवरण मूर्ति के रूप में दिखता है। इसके निश्चित आकार-प्रकार है । इसके साथ ही हमारी देह के परमाणु बहती हुई नदी की तरह है। हमारी देह में कुछ भी स्थाई नहीं है। हमारी कोशिकाओं के प्रत्येक कण बदलते जाते हैं। हमारी रक्त कणिकाएँ नब्बे दिन में बदल जाती हैं। हड्डियों का ठोस ढांचा जिसके चारों ओर शरीर लिपटा रहता है, वह स्वयं भी एक सौ बीस दिन में पूरी तरह बदल जाता है। ( अनित्यता )

मेडिकल सांइस भी अब मानसिक लक्षणॊं की प्रमुखता को मानने लगा है । हाँलाकि यह क्रम बहुत पहले हिपोक्रेट्स से शुरु हुआ था  । हिप्पोक्रेट्स से लेकर गैलन और आखिरकार होम्योपैथी के प्रवर्तक डां  हैनिमैन ने इन्सान के स्वाभाव का विशेलेषण करने मे बहुत अंह भूमिका निभायी । जहाँ हिप्पोक्रेट्स (400 ई.पू.) का मानना था कि शरीर चार ह्यूमर ( Humor ) अर्थात रक्त,कफ, पीला पित्त और काला पित्त से बना है. Humors का असंतुलन, सभी रोगों का कारण है . वही गैलन Galen (130-200 ई.) ने इस शब्द  का इस्तेमाल  शारीरिक स्वभाव के लिये किया , जो यह निर्धारित करता है  कि शरीर  रोग के प्रति किस हद तक संवेदन्शील है ।

Saturday, October 20, 2018

मृत्यु और जीवन

🌾 मृत्यु और जीवन 🌾
मृत्यु , जीवन के अनुपस्थिति का नाम है ।🌻
जहाँ जीवन होता है वहाँ मृत्यु होता ही नहीं।🌻
इस बात को ऐसे समझते हैं।
🍂🍃🍂
जैसे प्रकाश 🌞के अनुपस्थिति
का नाम अंधकार है।🌗
यहाँ मृत्यु को अंधकार 🌑और
जीवन को प्रकाश🌞समझिये।
अतः जैसे जैसे आपको जीवन का ज्ञान होता है।🌹
वैसे वैसे मृत्यु का भय कम होने लगता है।🌝

Sunday, October 14, 2018

भूमि पूजन सामग्री

भूमि पूजन सामग्री

रोली 10 ग्राम
हल्दी पाउडर -50 ग्राम 
मौली 1
पीला सरसों-50 ग्राम 
सात तरह का अनाज (सप्तधान्य) 100 ग्राम 
अक्षत (चावल) 100 ग्राम
सर्वोसधी 1 
महोसधी- 1 
पँचकषाय-1 
पँचरत्न-1
अबीर-50 ग्राम 
अष्टगंन्ध चंदन 
लौंग 5 ग्राम
इलायची 5 ग्राम
सुपारी 11
धूपबत्ती एक 
कपूर 1 पैकट 
रुई 
रूईबती 
कच्चा सुता 
माचिस एक
घी 100 ग्राम
कसोरा बड़ा 2नग छोटा 10 नग 
दीपक 5
केसर 
जनेऊ 10 नग      
गोला गिरी 1 
पंञ्चमेवा 250 ग्राम
शहद शीशी एक
इत्र शीशी एक
दोना  20 
नवग्रह लकडी -1 
हवन पैकट -1 
देवदार धुप 1/2 किलो 
आम की लकडी 3 किलो 
रुमाल(छोटा गमछा शिर पर रखने के लिए ) 1 
तिल 25 ग्राम 
जव 50 ग्राम 
आटा -100 ग्राम 
काला उरद 50 ग्राम 
तिल तेल -50 ग्राम 
*
गंगाजल """""""""""
मिट्ठी कलश -1 
चौमुख दिया -1
** 
धोती गमछा गँजी जांघिया 1 सेट ब्राह्मण के लिए। 
यजमान यजमानी भी नया या स्वच्छ वस्त्र पहने।
####**

नारियल एक 
पानपत्ते 11 नग 
मीठा प्रसाद 
फल 
मिठाई 
लड्डु 
तुलसी मंजरी 
समीपत्र  
बेलपत्र 
आमपता 
दुर्वा  (घास)
दुध 200 ग्राम 
दहि 10 ग्राम 
फूलमाला  3
दूर्वा घास 
ऋतुफल पांच प्रकार के
*******
पीतल कलश छोटा 1 
ढकन-1 
चांदी का - मछली , कछुआ , वाराह , नाग नागिन , -1
वास्तु यँत्र-1

****** 
बालू 
ईट - 15  
छरी 
गिटी 
गारा 
5 सफेद पत्थर 
खैर की लकडी 1  
रगीनी काटा 1 
लोहार के भांति का चूर्ण 10 ग्राम 
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घर के बर्तन
थाल पांच नग  
लोटा दो नग
बांल्टी दो नग
आसन बैठने के लिए" दरी" चटाई"आदी
गठजोडा के लिऐ "साफी " वा "चुनरी 
बडी परात एक

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ईशान कोण या अभिष्ट कोण  मे 2×2 फिट का खड्डे खोदकर एक दिन पहले रखे उसे गोबर से लीप कर रखे , बगल मे जमीन समतल कर रखे , 

सब सामान एक दिन पहले इकट्ठा कर ले।

-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

Sunday, October 7, 2018

नियुक्त

निरुक्त नामक वेदांगः--
निरुक्त वेदपुरुष का श्रोत्र है---"निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।" सम्प्रति उपलब्ध निरुक्त यास्ककृत है । इस निरुक्त का आधार ग्रन्थ निघण्टु है । इसका कर्त्ता भी यास्क ही माने जाते है । इसे वैदिक कोष माना जाता है । निघण्टु में पाँच अध्याय है । इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है । इसके आदि के तीन अध्यायों को (1.) "नैघण्टुक-काण्ड" चौथे अध्याय को (2.) "नैगमकाण्ड" (ऐकपदिककाण्ड) और अन्तिम पाँचवे अध्याय को (3.) "देवतकाण्ड" कहा जाता है । इसके प्रथम अध्याय में 17 खण्ड, 407 शब्द, द्वितीय में 22,  452 शब्द, तृतीय में 30, 402 शब्द, चतुर्थ में 3, 281 शब्द और पञ्चमाध्याय में 6 खण्ड, 151 शब्द हैं । इस प्रकार निघण्टु में वेद के कुल 1863 शब्दों का संग्रह है । निघण्टु पर एक ही व्याख्या उपलब्ध होती है--"निघण्टु-निर्वचनम्" । इसके कर्त्ता देवराज यज्वा हैं । इसकी व्याख्या अतीव प्रामाणिक और उपादेय है ।
निरुक्त का महत्त्वः---
व्याकरण और कल्प की तुलना में निरुक्त अधिक महत्त्वपूर्ण है । व्याकरण से केवल शब्द का ज्ञान होता है और कल्प से केवल मन्त्रों के विनियोग का ज्ञान होता है, किन्तु निरुक्त से शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है । अर्थ-ज्ञान के पश्चात् ही यज्ञों में मन्त्रों का विनियोग होता है । अर्थ-ज्ञान के पश्चात् शब्द-ज्ञान सरल हो जाता है ।
निरुक्त का लक्षणः---
आचार्य सायण के अनुसार निरुक्त का लक्षण हैः---"अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् ।" अर्थः---अर्थ-ज्ञान के विषय में, जहाँ स्वतन्त्र रूप से पदसमूह का कथन किया गया है, वह "निरुक्त" कहलाता है । यास्क ने स्वयमेव निरुक्त और व्याकरण के सम्बन्ध को स्पष्ट किया हैः---"तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम् ।" (निरुक्त--1.5)
इससे ज्ञात होता है कि व्याकरण और निरुक्त का घनिष्ठ सम्बन्ध है । वस्तुतः निरुक्त के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक है । यास्क ने आचार्यों को सावधान किया है कि जिसे व्याकरण न आता हो, उसे निरुक्त न पढायें--"नावैयाकरणाय.....निर्ब्रूयात् ।" (निरुक्त--2.1.4)
निरुक्त का प्रतिपाद्य विषय है---वैदिक शब्दों का निर्वचन । यह निरुक्ति पाँच प्रकार से होती हैः---"वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ । धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।।"
(1.) वर्णागम के द्वारा---शब्द के निर्वचन के समय यदि किसी अन्य वर्ण की आवश्यकता पडे तो उसे ले लेना चाहिए, मूल धातु में वह वर्ण न हो तो भी , जैसे--वार--द्वार ।
(2.) वर्णविपर्यय के द्वारा---शब्द के निर्वचन में वर्णों को आगे या पीछे उद्देश्य के अनुसार कर लेना चाहिए । जैसे--द्योतिष्---ज्योतिष् । कसिता---सिकता ।
(3.) वर्णविकार के द्वारा---मूल शब्दों के उच्चारण में परिवर्तन करके, जैसे---वच--उक्तिः ।
(4.) वर्णनाश के द्वारा---मूल धातु में किसी वर्ण का लोप करके---अस्---स्तः, दा---प्रत्तम्, गम्--गत्वा, राजन्---राजा, गम्--जग्मुः, याचामि--यामि ।
(5.) धातु का अर्थ बढा कर---धातु का उससे भिन्न अर्थ के साथ योग  ।

निरुक्त का परिचयः---
निरुक्त में कुल 14 अध्याय हैं । अन्तिम के दो अध्याय परिशिष्ट माने जाते हैं । निरुक्त के भी तीन ही विभाग किए गए हैंः--

(1.) नैघण्टुक-काण्डः-- निरुक्त के भी प्रारम्भ के तीन अध्यायों को "नैघण्टुक-काण्ड" ही कहा जाता है । इसके प्रथम अध्याय में यास्क ने पद के चार भेद माने हैं--नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । निरुक्त के द्वितीय और तृतीय अध्यायों में पर्यायवाची शब्दों का निर्वचन किया गया है । इनमें 1341 पद हैं, जिनमें यास्क ने 350 पदों की निरुक्ति की है ।
(2.) नैगमकाण्डः--निरुक्त के चौथे-पाँचवें अध्याय को "नैगमकाण्ड" कहा जाता है । इसे "ऐकपदिक" भी कहते हैं । इन अध्यायों में तीन प्रकार के शब्दों का निर्वचन हुआ हैः--
(क) एक अर्थ में प्रयुक्त अनेक शब्द (पर्यायवाची शब्द), (ख) अनेक अर्थों में प्रयुक्त एक शब्द (अनेकार्थक शब्द), (ग) ऐसे शब्द, जिनकी व्युत्पत्ति (संस्कार) ज्ञात नहीं है (अनवगतसंस्कार शब्द) । इनमें कुल 179 पद हैं ।

(3.) दैवतकाण्डः--निरुक्त के सात से बारह अध्यायों को "दैवतकाण्ड" कहा  जाता है । इस काण्ड में वेद में प्रधान रूप से स्तुति किए गए देवताओं के नामों का निर्वचन है । इनमें कुल 155 पद हैं ।
इस प्रकार 12 अध्यायों में कुल 1675 पद हैं ।

निरुक्त में तीन प्रकार के देवता कहे गए हैं---
(क) पृथिवीस्थानीय देवता---अग्नि । (ख) अन्तरिक्षस्थानीय देवता---इन्द्र या वायु । (ग) द्युस्थानीय देवता--सूर्य ।

(4.) परिशिष्ट--
निरुक्त के तेरहवें और चौदहवें अध्याय को परिशिष्ट माना जाता है । इनमें अग्नि की स्तुति और ब्रह्म की स्तुति है ।

निरुक्त का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि सभी नाम शब्द धातुज हैं--"सर्वाणि नामानि आख्यातजानि ।"

बारह निरुक्तकारः--दुर्गाचार्य ने 14 निरुक्तकारों का उल्लेख किया है--निरुक्तं चतुर्दशप्रभेदनम् । निरुक्त में स्वयं यास्क ने 12 निरुक्तकारों का उल्लेख किया हैः---(1.) अग्रायण, (2.) औपमन्यव, (3.) औदुम्बरायण, (4.) और्णवाभ, (5.) कात्थक्य, (6.) क्रौष्टुभि, (7.) गार्ग्य, (8.) गालव, (9.) तैटीकि, (10.) वार्ष्यायणि, (11.) शाकपूणि, (12.) स्थौलाष्ठीवि । तेरहवें निरुक्तकार स्वयम् आचार्य यास्क हैं । चौदहवाँ निरुक्तकार कौन है, इसका उल्लेख नहीं है ।

वेदार्थ के अनुशीलन के आठ पक्ष---(क) अधिदैवत, (ख) अध्यात्म, (ग) आख्यान-समय, (घ) ऐतिहासिकाः, (ङ) नैदानाः, (च) नैरुक्ताः, (छ) परिव्राजकाः, (ज) याज्ञिकाः ।

टीकाकारः-- निरुक्त पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गईं हैं---(1.) दूर्गाचार्यः--इन्होंने निरुक्त पर एक वृत्ति लिखी थी, जिसे दुर्गवृत्ति कहा जाता है । यह विद्वत्तापूर्ण और प्रामाणिक टीका है । इनके बारे में बहुत अल्प जानकारी मिलती है । ये कापिष्ठल शाखाध्यायी वसिष्ठगोत्री ब्राह्मण थे । अनुमान के आधार पर ये गुजरात अथवा काश्मीर के वासी थे । इस वृत्ति की सबसे प्राचीन हस्तलिखित प्रति 1444 वि.सं. की है ।

(2.) स्कन्द महेश्वरः---ये दुर्गाचार्य से प्राचीन टीकाकार हैं । इनकी टीका लाहौर से प्राप्त हुई है । यह टीका अतीव पाण्डित्यपूर्ण है । इन्होंने ऋग्वेद पर एक भाष्य लिखा था । ये गुजरात के  वल्लभी के रहने वाले थे ।

(3.) निरुक्त-निचय--इसके रचयिता वररुचि हैं ।
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संस्कृतरसास्वाद:राष्ट्रीय संयोजिका
आँचल गर्ग