मै मौन था, तुम सोचे मै निर्बल हूँ।
मै! तुम दिन दुःखी के लिए आरक्षण स्वीकार किया।
तुम समझे मैं मूर्ख हूँ।
अब तुम हमारे साथ हमारे देवी देवताओं का अपमान करने लगे।
हमारे धर्म ग्रंथ जलाने लगे।
और तुम हमारे ही टुकड़े पर पल कर हमें ही गरियाने लगें।
विश्व जिस वेद का गुण गान कर रहा तुम उसे अपशब्द बोलने लगें।
तो लो अब मैं भी सुनाता हूँ।
क्रोध का अग्नि जलाता हूँ।
तुम्हें तुम्हारे करनी का फल दिलाता हूँ सभ्यता का पाठ पढाता हूँ।
पुनः दरिद्र बनाता हूँ धूल तुम्हें चटाता हूँ।
संस्कार अब मैं सिखाता हूँ,
त्रिशूल अपना दिखाता हूँ परशु अपना चमकाता हूँ।
मैं ब्राह्मण हूँ पुनः ब्राह्मण बन दिखाता हूँ।
-डॉ मुकेश ओझा
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Thursday, December 6, 2018
आरक्षण पर कविता
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