#संस्कार---
#अप्रतिग्रह~>
"अरुण" भगवान्-सूर्यनारायण के सारथी हैं,भगवान् सूर्यनारायण के समान ही ये भी समस्त प्राणियों के धर्म-कर्म के साक्षी हैं| भगवान् सूर्य के सात-घोडें से समन्वित दिव्य-रथ में आरूढ़ होकर ये घोडों की वल्गा(लगाम) थामकर सूर्य के पथ में भ्रमण करतें रहतें हैं | पूर्व क्षितिज मैं सूर्योदय से पूर्व अरुण की लालिमा स्पष्ट दिख पड़ती हैं | "अरुण" प्रजापति कश्यप के पुत्र हैं,इसलिये ये कश्यप या काश्यपेय भी कहलातें हैं | इनकी माता का नाम विनता हैं | इन्हों ने श्येनी से सम्पाती तथा जटायु नामक दो पुत्रों को प्राप्त किया था | समस्त संसार के प्रत्यक्ष दृष्टा होने के कारण इनसे कुछ भी नहीं छिपा नहीं हैं | ये सभी बातों की जानकारी रखतें हैं | इनकी "अरुण-स्मृति" विख्यात हैं |
#ब्राह्मण - का स्वरूप कितना शुद्ध,निर्मल,पवित्र और तपःपूर्ण होता हैं--- यह "अरुण-स्मृति" का मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं | ब्राह्मण स्वधर्मपालन, चरित्र और तपस्या की दृष्टि से वह देवताओं से भी बहुत ऊपर उठा हुआ हैं | भगवान् सूर्य और अरुण के संवाद में इस स्मृति में #ब्राह्मण - के #अप्रतिग्रह - मुख्य धर्म का निरुपण हुआ हैं | यद्यपि ब्राह्मण के अप्रतिग्रह-धर्म(दान न लेने, संग्रह न करने) - का वर्णन अन्य #मनु आदि स्मृतियों में भी आया हैं | किंतु इस स्मृति में आद्योपान्त केवल यही विषय बड़े ही विस्तार से वर्णित हैं | इसके अतिरिक्त इसमें अन्य कोई बात नहीं आयी हैं; इस दृष्टि से इस स्मृति का विशेष महत्त्व प्रतीत होता हैं | वास्तव में विशुद्ध-ब्राह्मणत्व क्या हैं? यह इस स्मृति के अध्ययन से भलीभाँति समझमें आ जाता हैं |
तपस्या, गायत्री-उपासना,स्वाध्याय और आत्मज्ञान ---यह ब्राह्मण का श्रेष्ठ धर्म हैं | शास्त्रों में यद्यपि --- अद्ययन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना, तथा दान लेना और दान देना--- ये ६ मुख्य वर्णधर्म बतलायें गये हैं, तथापि इनमें भी "#त्यागवृत्ति_एवं_संतोषपूर्वक" रहना उनका मुख्य लक्षण निर्दिष्ट किया गया हैं | ब्राह्मण के लिये किंचित् भी धन-संचय न करके उसे असंग्रही होने का निर्देश हैं; क्योंकि धन-सम्पत्ति तपस्या आदि कल्याणकारी मार्ग में प्रबल-बाधक हैं | ब्राह्मण के लिये धर्मशास्त्र में यह आज्ञा हैं कि वह दान लेने में (प्रतिग्रह में) समर्थ होनेपर भी #लोभ के वशीभूत हो किसी से दान न ले | इससे उसका ब्रह्मतेज नष्ट हो जाता हैं | अतः उसे उचित हैं कि धर्मपूर्वक,#न्यायपूर्वक वित्तोपार्जन करनेवालों से बहुत आवश्यक होनेपर ही दान ले |((((( शास्त्रों में यज्ञ,पूजा,श्राद्ध आदि की जो उचित दक्षिणा हैं वह भी - #न्यायपूर्वक--- मूलदक्षिणा अथवा मूलदक्षिणा के द्वितीयांश,तृतीयांश चतुर्थांश-दक्षिणा का ही अधिकारी हैं,अथवा यजमानकी शक्ति-सामर्थ्य को जाऩकर #ब्राह्मण_वचनात्"" यजमानके हित में हो इतनी ही दक्षिणा का ग्रहण उचित हैं | मनुने तो कहा हैं कि ---- दैन्यतादि कारणों से - #पुण्याणन्यन्यानि_कुर्वीत_श्रद्धदानो_जितेन्द्रियः | #न_त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते_ह_कथंचन ||मनुस्मृ०११/३९||अर्थात् श्रद्धावान् जितेन्द्रिय पुरुष ! पुण्य के दुसरें कर्मों को करैं,परंतु न्यून(कम) दक्षिणा देकर कोई यज्ञ न करैं- अर्थात् बिना पूरी दक्षिणा, यज्ञ न करना चाहिए | क्योंकि ----> #इन्द्रियाणि_यशः_स्वर्गमायुः_कीर्तिं_प्रजाः_पशून् | #हन्त्यल्पदक्षिणो_यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो_यजेत् ||मनुः११/४०|| अर्थात् न्यून दक्षिणा देकर यज्ञ कराने से यज्ञ ! इन्द्रियाँ, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश करता हैं |----->
#अन्नहीनो_दहेद्राष्ट्रं_मन्त्रहीनस्तु_ऋत्विजः | #दीक्षीतं_दक्षिणाहिनो_नास्ति_यज्ञसमो_रिपुः ||स्कांदे ||
अर्थात् यज्ञ अन्नदान(ब्रह्मभोजनादि) रहित किया हो तो देश का, मंत्रों के अज्ञानसे किया हुआ यज्ञ ! ब्राह्मण(ऋत्विज) का, दक्षिणा के अभाव में किया हुआ यज्ञ यजमान का नाश करता हैं ऐसे किसी भी "अंगसे रहित यज्ञ" जैसा कोई शत्रु नहीं | आज वर्तमान में --- ९५℅ के महारुद्र/ अतिरुद्र/ सहस्रचंडी,लक्षचंडी आदि पूर्णरूप से नहीं कर सकतें- क्योंकि आचार्य भले ही कितना भी विद्वान हो परंतु आचार्य से बढ़कर इन्हीं यज्ञों में पाठप्रधान - पाठकों की यथाविधि-पाठ पूर्ति और होमप्रधान में - होताओं मंत्रज्ञाता होना जरुरी हैं पर इसकी ही कमी होती हैं | अन्यायोपार्जित द्रव्य कदापि न ग्रहण करें |
प्रतिग्रहसे ब्राह्मण का ब्राह्मतेज नष्ट हो जाता हैं | धन के लोभ में पड़कर यदि वह दान लेता हैं तो निर्विष सर्प की तरह तेजोहिन,सत्त्वहीन हो जाता हैं | विद्या,विवेक,बुद्धि,ज्ञान से हीन हो जाता हैं | उसका पुण्य भी नष्ट हो जाता हैं | अतः उसे अत्यन्त अपरिग्रही होकर शास्त्र की मर्यादाका पालन करना चाहिये | इसी में ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व हैं | यदि वह अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाय तो उसका ब्राह्मणत्व व्यर्थ हैं | ब्राह्मण को उपवास,जप, तप एवं धर्माचरण में ही निरत रहना चाहिये | त्याग के कारण ही ब्राह्मण पूज्यता हैं | भगवान् आदित्य अरुण से कहतें हैं कि " हे काश्यपेय"!---> #प्रतिग्रहः_काश्यपेय_मध्वास्वादो_विषोपमः | #ब्राह्मणाय_भवेन्नित्यं_दाता_धर्मेण_युज्यते ||अरुणस्मृ ३||
ब्राह्मण के लिये प्रतिग्रह ऊपरसे मधु के समान मीठा जान पड़ता हैं,किंतु परिणाम में वह विष के समान हो जाता हें,किंतु दाता के लिये वह पुण्य ही होता हैं |
#प्रतिग्रहेण_विप्राणां_ब्राह्मं_तेजः_प्रशाम्यति | #अतः_प्रतिग्रहं_कृत्वा_प्रायश्चित्तं_समाचरेत् ||अरुणस्मृ२६||
दान लेने से ब्राह्मणों का तेज नष्ट हो जाता हैं,इसलिये प्रतिग्रह लेनेपर प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिये |
#दुष्टंप्रतिग्रहं_कृत्वा_विप्रो_भवति_किल्बिषी | #अपि_भिक्षागृहिते_तु_पुण्यमन्त्रमुदीरयेत् ||अरुणस्मृ २७||
दोषयुक्त दान लेने से ब्राह्मण दाता कें दोष-पापों का भागी बन जाता हैं | यहाँ तक कि भिक्षा का जो अन्न ब्राह्मण ग्रहण करता हैं,उसके लिये भी उसे "गायत्री मंत्र" ऋग्वेद के "तरत्समंदी सूक्त" के मंत्रों आदि पुण्यप्रद मन्त्रों का जप करना चाहिये | तभी दोष-पाप की शान्ति होती हैं |
विद्वान् को चाहिये कि प्रथम तो वह प्रतिग्रह ले ही न, यदि ले भी तो शरीर की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करें,जप करें,होम करें | प्रतिग्रह के धन में से भी दान करें,गायों की सेवा में लगायें, दीन दुःखीयों को बाँटे, इस प्रकार प्रायश्चित्त आदि करने तथा धन के सदुपयोग से प्रतिग्रहजन्य दोष-पाप से वह मुक्त हो जाता हैं ----> #तस्मात्_प्रतिग्रहं_कृत्वा_प्रायश्चित्तं_समाचरेत् ||४१|| ***************
#प्रायश्चित्ते_कृते_विप्रो_मुच्यते_दुष्परिग्रहात् ||अरुणस्मृ -४३||
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#प्रतिग्रहार्जितं_द्रव्यं_सर्वं_नश्यति_मूलतः ||अरुण०७३|| प्रतिग्रहका धन स्थिर भी नहीं रह सकता, वह समूल नष्ट हो जाता हैं | इसलिये ----> #तस्मात्_प्रतिग्रहधनं_न_स्थिरं_स्यात्_कदाचन | #प्राज्ञः_प्रतिग्रहं_कृत्वा_तद्धनं_सद्गतिं_नयेत् ||अरुण०१३९||
उस प्रतिग्रह धन को लोकहित कें यज्ञादि पुण्यानुष्ठानों, मन्दिरों, वापी,कूप,तालाब आदि के निर्माण आदि सत्कार्यों में लगाना चाहिये |
(((((#प्रतिग्रहे_न_दोषः_स्याद्_दोषस्तस्यैव_विक्रये || अरुण० )))) भगवान् सूर्यनारायण अरुण को यह भी कहतें हैं कि - प्रतिग्रह में उतना दोष नहीं हैं,जितना कि उसके बेचनेमें ||अरुणस्मृति सार ||
ॐ स्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ
#कलियुग_में_बड़े_यज्ञों करने से बहुत सारे अनिष्ट उत्पन्न होकर कर्ता, आचार्य,ऋत्विज तथा देश को हानि उत्पन्न हो सकतीं हैं,,,, ध्यातव्य हैं कि यज्ञ केवल विद्वान आचार्य पर सम्पन्न नहीं होता परंतु सभी होताओं मंत्रविद् हो तो ही सम्पन्न होता हैं,, देश(जगह)काल(मुर्हूत),द्रव्य #अनधिकारी आदि का विचार (आचार्यादि ब्राह्मण वर्ग में से भी संध्यादि नित्यकर्म प्रवृत्त नहीं होतें, तो कुछ प्याज,लहसुन खाने वाले, तो कोई व्रात्य यजमान, तो कोई पतित यजमान, तो कहीं कहीं केवल सिर गिनानेवालें (कर्मकांड सम्बन्धित अज्ञानी)ब्राह्मणों का वरण, तो कहीं समुहयज्ञसे संकरतादोष, तो यजमान स्वयं नित्य सन्ध्योपासनादि कर्म न करता हो आदि) सब भ्रष्ट हैं ---- ऐसे में यज्ञ से शुभफल के विपरित नानाविध उपद्रव और देश का सर्वविध विनाश हो रहा हैं ---
#कलियुग_योग्य_निर्दोष_कर्मकांड--- वेदपारायण,पाठात्मक,जपात्मक,अभिषेकात्मक, नन्हें प्रयोग-विधानों से ही यह अनिष्ट होने से बच सकतें हैं, #बड़े_यज्ञ_देश_के_लिए -- हानिकारक हैं |
#नास्ति_यज्ञसमो_रिपुः ||स्कन्द पु०||
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