यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं योजनान्बहून।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
-ध्यानबिन्दोपनिषद
अर्थ- :
यदि अनेक योजनों में भी पहाड़ के समान पाप हो , तो वह भी ध्यान योगी के द्वारा विदीर्ण हो जाता है, पापो को नष्ट करने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार
Sunday, April 28, 2019
ध्यान का महत्व
आत्म ज्ञानी कैसे होते हैं?
वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।
दृष्टौ दृष्टौ च कैवल्यं ह्यात्मज्ञानी स कथ्यते।।
अर्थ-
जिसके प्रत्येक वचन में वेदमंत्र अभिव्यक्त होता है। जिसके पद पर मे तीर्थों का वास होता है। जिसकी प्रत्येक दृष्टि मे मोक्ष प्रदान करने कि क्षमता होती है। यह आत्म ज्ञानी लक्षण है।
Friday, April 19, 2019
क्यों? प्रिय दिखाई पड़ने वाले लोग अप्रिय हो जाते हैं।
पाइथागोरस ने दिलचस्प बात कही थी कि संसार और कुछ नहीं सिर्फ संख्या है। अंको का खेल। हम सब अंक हैं। अपने अपने तरीके से तमाम तरह के अंक। घर में बड़े हैं तो प्रथम अंक हैं। भाइयों बहनों में तीसरे चौथे हैं। कार्यालय में भी हमारा अंक है, वरिष्ठता या कनिष्ठता में। जेल में हम कैदी नंबर-अंक हैं। मतदाता सूची, बैंक खाता, राशन कार्ड या परीक्षा में भी हम अंक हैं। हम अंक आच्छादित जान पड़ते हैं। अंकों का महत्व विभाजन में है। विभक्त देखने में अंको का उपयोग है, लेकिन प्रश्न ढेर सारे हैं। हम उनमे से कुछ प्रश्नों से मजेदार मुठभेड़ कर सकते हैं। क्या हमारे अंक कोई वास्तविकता हैं? उत्तर है नहीं। हम हम हैं। अंक सुविधा हैं। तो क्या हमारा नाम कोई वास्तविकता है? उत्तर होगा-नहीं। नाम भी घर समाज से मिला है। तो क्या हमारी यश प्रतिष्ठा वास्तविक है? क्या इसका संबंध नाम, रूप से ही नहीं है? प्रश्नाकुलता में परत दर परत आभासी रूप, कथन ही पकड़ में आते हैं। 'मैं' भी आभासी ही हूँ। ज्ञान प्रवाह के हरेक चरण से हमारी अपनी ही अभिलाषाएं आभासी बनती हैं। हमारी अभिलाषाओं ने ही हमारा संसार रचा है। संसार पर अनेक विद्वानों ने प्रश्न उठाए हैं। प्रश्न बड़े मजेदार हैं-कि क्या आखों से दिखाई पड़ने वाली ये वस्तुएं, नदियां और प्राणी पूरे दिखाई पड़ते हैं? वे जैसे दिखाई पड़ते हैं क्या वे वास्तव में वैसे ही हैं? वे हमारी आंख का धोखा तो नहीं हैं? आंख न भी धोखा दे तो क्या हमारी समझ विश्वसनीय है? ऐसे तर्क और प्रश्न यों ही नहीं काटे जा सकते। हमारी समझ में गहरा गए मित्र बाद में मित्र नहीं रह जाते। प्रिय दिखाई पड़ने वाले लोग अप्रिय हो जाते हैं।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार
Tuesday, April 16, 2019
चिरञ्जीवी
19 अप्रैल 2019 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को परम प्रतापी, अमिट तेजस्वी, भक्त शिरोमणि भगवान हनुमानजी का जन्मोत्सव है।
आप सभी को हनुमतजयन्ती की अशेष शुभकामनाएँ।
इस धरा पर जो जन्म लिया एक न एक दिन उसको इस धरा को छोड़कर जाना भी निश्चित है।
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात इन आठ लोगों (अश्वथामा, दैत्यराज बलि, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि) का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की पूर्ण आयु को प्राप्त करता है।
7 मई 2019 अक्षय तृतीया को भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव है।
16 जुलाई 2019 गुरुपूर्णिमा को भगवान वेद व्यास जी का जन्मोत्सव है।
Thursday, April 11, 2019
लोकतंत्र में शिक्षा का महत्व
लोकतंत्र में नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य को रखा जाता है। लेकिन लोकतंत्र के महान पर्व 'लोकसभा चुनाव 2019' में यह मूलभूत मुद्दे कहीं गायब हैं। गांव कनेक्शन की कोशिश है कि आम चुनाव से पहले इन मुद्दों और उनके वास्तविक स्थिति से लोगों को परिचित कराया जाए। किसानों की स्थिति, स्वास्थ्य, पर्यावरण के बाद गांव कनेक्शन की इस विशेष सीरिज 'इलेक्शन कलेक्शन' में आज शिक्षा का मुद्दा।
शिक्षा का अधिकार (RTE-2009) और अनिवार्य प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा लागू होने के बावजूद पिछले दस साल में असर के आंकड़े उत्साहवर्धक नहीं है। शिक्षा में नामांकन दर बढ़कर 96% अवश्य हो गई है, लेकिन आज भी 20% बच्चे प्राथमिक शिक्षा और 36% बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं। वहीं देश के लगभग 70 प्रतिशत विद्यार्थी 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं।उच्च शिक्षा का भी यही हाल है।
वहीं देश में शिक्षकों की हालत भी खराब है। एक रिपोर्ट की माने तो इस समय देश में शिक्षकों के लगभग 5 लाख से अधिक पद रिक्त हैं। शिक्षकों की यह पूर्ति एडहॉक शिक्षकों और प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षामित्रों के द्वारा पूरी की जाती है। इन एडहॉक शिक्षकों और शिक्षामित्रों की भी हालत कुछ खास उत्साहजनक नहीं है और आए दिन ये एडहॉक शिक्षक और शिक्षामित्र अपने अधिकारों और मांगों को लेकर प्रदर्शन करते रहते हैं। शिक्षाविद् डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, "शिक्षा अधिकारों को प्राप्त करने का प्रथम साधन होता है और इसकी सहायता से आम लोग प्रशिक्षित होकर लोकतंत्र में 'नागरिक' बनते हैं।" अमेरिका के महान शिक्षाविद् होराक मैन ने भी कहा था, "शिक्षा नागरिकों का एकमात्र राजनीतिक साधन है, जिसकी नांव पर सवार होकर लोकतंत्र की नदी में उतरा जा सकता है। शिक्षा के बिना यह नाव कहीं भी डूब सकती है।" इन शिक्षाविदों के कथन से साफ पता चलता है कि लोकतंत्र में शिक्षा का अपना महत्व है। हालांकि लोकतंत्र के महान पर्व यानी कि चुनावों में कभी भी यह प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाता है।
परन्तु आज भी देश के प्रमुख राजनीतिक दल जाति, धर्म, मंदिर, सेना और पाकिस्तान पर राजनीति करते हैं। इनकी चुनावी सभाओं में इन सभी मुद्दों के अलावा अधिक से अधिक बेरोजगारी और विकास (आर्थिक विकास) का मुद्दा ही शामिल हो पाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के मुद्दे अभी भी राजनीतिक दलों के लिए कुछ खास मायने नहीं रखते।
इससे यह स्पष्ट होता है कि "भारतीय परिदृश्य में राजनीतिक दल चाहते ही नहीं हैं कि उनके सामने कोई सवाल खड़ा करने वाला एक समूह खड़ा हो, इसलिए वह शिक्षा को चुनावी मुद्दा कभी बनाते ही नहीं हैं।" कभी भी किसी नेता या पार्टी ने सार्वजनिक मंच से शिक्षा के लिए बात नहीं कि। शिक्षा को लेकर राजनीतिक दलों की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इनके घोषणा पत्रों में शिक्षा की बात महज एक पन्ने में सिमट कर रह जाती है। दो विपरीत ध्रुवों वाली राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में भी शिक्षा के लिए लगभग एक समान और परंपरागत रूप से पुरानी हो चुकी बातें लिखी जाती हैं।
हमारे देश की राजनीति जाति और धर्म आधारित हो गई है। राजनेताओं ने पहले जनता को जाति और धर्म आधारित मुद्दों पर भटकाया। धीरे-धीरे जनता को इसकी आदत हो गई। अब जनता खुद नहीं चाहती कि शिक्षा जैसे अहम मसले पर बात हो।" पहले शिक्षा का सीधा संबंध रोजगार से होता था। लेकिन अब इस की कोई गारंटी नहीं कि शिक्षा मिलने के बाद आपको रोजगार मिले। इसलिए भी लोग शिक्षा के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होते जा रहे हैं। "भारत में शिक्षा भले ही एक चुनावी मुद्दा ना हो लेकिन विदेशों में शिक्षा को लेकर चुनाव लड़े जाते रहे हैं।
शिक्षा के प्रति सरकार की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नई शिक्षा नीति के लिए पिछले पांच साल में दो समितियां गठित हुई लेकिन नई शिक्षा नीति लागू नहीं हो सकी। आपको बता दें कि बीजेपी ने अपने 2014 के घोषणा पत्र में नई शिक्षा नीति बनाकर उसे लागू करने का वादा किया था। इससे पहले शिक्षा नीति 1986 में लागू हुई थी। आदर्श रूप में शिक्षा नीति को हर 20 साल पर मूल्यांकन कर इसमें परिवर्तन लाना रहता है लेकिन व्यवहारिक रूप में ऐसा कभी नहीं हो सका। देश की शिक्षा व्यवस्था का निर्धारण, शिक्षा नीति से ही होता है। इस शिक्षा नीति के निर्धारण के लिए आयोगों का गठन होता है। देश के आजादी के बाद पहली बार 1948 में विश्वविद्यालयी शिक्षा को दुरूस्त करने के लिए 'राधाकृष्णन आयोग' का गठन हूआ था। इस आयोग के अध्यक्ष देश के प्रथम उपराष्ट्रपति और प्रमुख शिक्षाविद डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। इसके बाद माध्यमिक शिक्षा में सुधार लाने के उद्देश्य से 1952 में मुदालियार आयोग का गठन हुआ। स्कूली शिक्षा को ध्यान में रखते हुए 1964 में कोठारी आयोग का गठन किया गया। कोठारी आयोग के सुझावों को ध्यान में रखते हुए ही देश की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) में बनी। कोठारी आयोग का सबसे प्रमुख सुझाव था कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छः प्रतिशत शिक्षा के मद में खर्च किया जाए। प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) में इसे एक राष्ट्रीय लक्ष्य भी बनाया गया। लेकिन इस राष्ट्रीय लक्ष्य को आज 40 साल बाद भी नहीं प्राप्त किया जा सका है। 1968 की राष्ट्रीय नीति के बाद 1986 के दूसरे राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इस लक्ष्य को दोहराया गया। 1992 की यशपाल समिति, 2016 के टीआरएस सुब्रमण्यन समिति और भारत सरकार की प्रमुख नीति नियंता 'नीति आयोग' भी लगातार 6 प्रतिशत खर्च करने की अनुशंसा करती रही है। नीति आयोग ने अपनी हालिया रिपोर्ट 'स्ट्रैटेजी फॉर न्यू इंडिया 75' में कहा है कि 2022 तक भारत सरकार को शिक्षा पर खर्च को वर्तमान से दोगुना करते हुए जीडीपी का न्यूनतम 6 प्रतिशत सुनिश्चित करना चाहिए। सरकारी रिपोर्ट्स के अनुसार पिछले पांच सालों में शिक्षा पर जीडीपी का खर्च औसतन 2.5 प्रतिशत से 2.8 प्रतिशत रहा, जो कि निर्धारित लक्ष्य का आधा भी नहीं है। ऐसा निकट भविष्य में भी संभव होता नहीं दिख रहा है! शिक्षा के मद में खर्च का सीधा संबंध शिक्षा की गुणवत्ता से होता है। अगर हम वैश्विक आंकड़ों की बात करें तो वैश्विक आंकड़ें भारत से कहीं बेहतर हैं। शिक्षा पर खर्च का वैश्विक औसत जीडीपी का 4.7 प्रतिशत है। अमेरिका अपनी जीडीपी का 5.6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है। जबकि नार्वे और क्यूबा जैसे छोटे देश अपनी जीडीपी का क्रमशः 7 और 13 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं। भारत के समान अर्थव्यवस्था वाले देश ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका दोनों शिक्षा पर लगभग अपनी जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करते हैं। कांग्रेस ने अपने 2019 के घोषणा पत्र में शिक्षा पर जीडीपी के न्यूनतम 6 प्रतिशत खर्च करने की बात कही है। जबकि सत्तासीन बीजेपी के घोषणा पत्र के शिक्षा कॉलम में यह नदारद है। इससे पार्टियों और सरकारों का राष्ट्रीय शिक्षा लक्ष्य के प्रति गंभीरता का पता लगाया जा सकता है।
"शिक्षा के महत्व को सभी जानते हैं लेकिन इस पर बात करने वाला कोई नहीं है। कभी किसी भी नेता को शिक्षा के बारे में बात करते नहीं सुना।" इसके लिए मीडिया भी दोषी हैं क्योंकि मीडिया कभी भी शिक्षा के मुद्दे को खासकर चुनावों के समय कभी गंभीरता से नहीं उठाती है।
वर्तमान राजनीति मूद्दो में वो दम नहीं कि नेताओं को झकझोर सकें और भारत को नईं दिशा प्रदान कर सकें। अगर आप देश में शिक्षा के स्तर को लेकर चिंतित हैं और इसमें सुधार देखना चाहते हैं, तो इसे राजनीति से जोड़कर ही देखना होगा। वह शिक्षा को राजनीति से जोड़ने और इसे एक राजनीतिक मुद्दा बनाने की जरूरत हैं। "आज की जरूरत है कि हम शिक्षा का राजनीतिक संदर्भ पहचाने और राजनीति की पुनर्रचना में शिक्षा का संदर्भ तय करें।
"शिक्षा चुनावी मुद्दा इसलिए नहीं है क्योंकि यह कोई तात्कालिक परिणाम नहीं दे सकता। अगर शिक्षा व्यवस्था में कोई परिवर्तन किया जाता है तो इसके परिणाम 10-20 साल बाद ही देखने को मिलेंगे। जबकि चुनावी दल कोई ऐसा मुद्दा खोजते हैं जो कि उन्हें तात्कालिक लाभ दे।
"किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नेताओं और नौकरशाहों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। चुंकि नेताओं और नौकरशाहों के संतान सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते इसलिए वे इस पर अधिक ध्यान नहीं देते। अगर इच्छाशक्ति हो तो भारत में शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। और शिक्षा व्यवस्था में सुधार किये बिना भारत के सर्वांगीण विकास कि कोई सम्भावना भी नहीं है।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार
अहं ब्रह्मास्मि का व्याख्या
अहं ब्रह्मास्मि कहने से या विचार करने से कोई ब्रह्म नही हो जाता । ब्रह्म होने को जानने का उपाय है, निर्विचार हो जाना अहं ब्रह्मास्मि दोहराना नहीं है, एक ऐसी शांत, मौन, शून्य अवस्था जहां कोई विचार की तरंग नहीं रह जाती, वहां अनुभव होता है कि मैं परमात्मा हूं। लेकिन उस अनुभव में “मैं” का कोई अनुभव नहीं होता, यह तो भाषा में कहना पड़ता है इसलिए । उस अनुभव में सिर्फ परमात्मा है ऐसा अनुभव होता है। उस “मैं” में और सब भी समाहित होते हैं । उस “मैं” में सब मैं समाहित होते हैं।इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने ऐसा नहीं कहा है कि मैं परमात्मा हूं और तुम नहीं; जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि मैं परमात्मा हूं और तुम भी। बुद्ध ने कहा है : जिस क्षण मैं बुद्ध हुआ उस दिन सारा अस्तित्व मेरे साथ बुद्ध हो गया आदमी ही नहीं पशु पक्षी भी, पशु पक्षी ही नहीं पौधे पत्थर भी। बुद्ध ठीक कहते हैं : जिस क्षण मैं बुद्ध हुआ उस क्षण मैंने जाना अरे, मैं तो हूं ही नहीं, सिर्फ बुद्धत्व है; सिर्फ भगवत्ता है; कण कण में वही व्याप्त है। जो मुझमें है वही बाहर है; जो भीतर, वही बाहर। मगर यह विचार से नहीं होगा।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार
Monday, April 8, 2019
शास्त्रों में गुरु के १२ भेद बतलाये गए हैं
शास्त्रों में गुरु के १२ भेद बतलाये गए हैं
—१-अध्यापक, २-पिता, ३-ज्येष्ठभाई, ४-राजा, ५-मामा, ६-श्वसुर, ७-रक्षक, ८-नाना, ९-पितामह, १०-बन्धु, ११-अपने से बड़ा, १२- चाचा —
उपाध्यायः पिता ज्येष्ठ भ्राता चैव महीपतिः ।
मातुलः श्वसुरस्त्राता मातामहपितामहौ ।।
बन्धुर्ज्येष्ठः पितृव्यश्च पुंस्येते गुरवः स्मृताः ।।
स्त्री वर्ग में भी कौन २ गुरुहैं–
इसकी भी परिगणना की गयी है –नानी ,मामी ,मौसी,सास, दादी,अपने से बड़ी जो भी हो ,तथा जो पालन करने वाली है ।
देखें –
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा ।
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु ।।
किन्तु जब प्राणी के ह्रदय में मुमुक्षा जागृत होती है तब उसे कहाँ जाना चाहिए इसका निर्देश भगवती श्रुति स्वयं कर रही है –“
तद्विज्ञानार्थं स गुरु मेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।”
श्रोत्रिय =शास्त्रवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ
गुरु के पास समिधा (एक बित्ते की कनिष्ठिका जितनी मोटी ३लकडियाँ) लेकर जाय ,इससे अपनीदीनता भी प्रकट होगी और राजा गुरु तथा देवता के पास रिक्त हस्त नहीं जाना चाहिए –“
रिक्तहस्तेन नोपेयाद् राजानं दैवतं गुरुम् ।”—
इस शास्त्र आज्ञा का पालन भी । ऐसे गुरुजन संसार से पूर्ण विरक्त आत्मचिंतननिष्ठ होते हैं ।
तपश्चर्या और आत्मबल से परिपूर्ण इनका दर्शन भगवत्कृपा से ही संभव है —“
लभ्यतेपि तत्कृपयैव”—नारदभक्तिसूत्र ,ये ३ प्रकार के होते हैं ।
जो विभाग इनकी क्रिया शैली के आधार पर किया गया है —१-स्पर्शदीक्षाप्रद गुरु—स्पर्शमात्र से जो गुरुजन दीक्षा देते है वे इस कोटि मेंआते हैं इनके स्पर्श मात्र से कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरणहो जाता है । ये अपने स्पर्श से ही शिष्य का पोषण करने में समर्थ होते हैं ।
उदाहरण के रूप में आप देख सकते हैं की पक्षी अपने बच्चों को चारा चुन्गाता है पर उनका संवर्धन अपने पंखों के द्वारा बार बार उन्हें पूर्ण स्पर्श पूर्वक ढककर करता है ।
केवल आहार से पक्षियों के बच्चे नहीं बढते बल्कि माँ के स्पर्श से उनकी वृद्धि होती है । इसी श्रेणी के प्रथम गुरुजन हैं ।
२-दृग्दीक्षाप्रद गुरु—दृष्टि मात्र से जो जीवों का कल्याण करने में समर्थ होते है वे गुरुजन इस श्रेणी में आते हैं । इसके दृष्टांत के रूप में हम मछली को प्रस्तुत करते हैं । मछली को दुग्ध नहींहोता इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं फिर वह अपने बच्चों का पालन कैसे करती है ? सुनें– जब मछली जल में तैरती है तब छुधापीड़ित बच्चे उसकी आँखोंके समक्ष आते हैं । मत्स्य की दृष्टि उन पर पड़ती है इसी से वे पुष्ट होते रहते हैं । इस प्रकार के गुरुजन दुर्लभ होते हैं ये किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होते हैं ।
३-वैधदीक्षाप्रद गुरु—ये गुरुजन उस कोटि के हैं जो अपनेध्यान मात्र से शिष्य का कल्याण करने में सक्षम होते हैं । ये ध्यान मात्र से किसी की महाशक्ति कुण्डलिनी को जगा सकते हैं तथा भगवान की अविरल भक्ति प्राप्त कराने में भी समर्थ होते है इनसे एक बार किसी सौभाग्य शाली को जुड़ने का शुभ अवसर प्राप्त हो जाय तो उसे माया अपने मोह पाश में नहीं बाँध सकती है । भगवान कृष्णद्वैपायन व्यास जी में ये तीनों लक्षण थे । तीर्थ, देवता और गुरु, विप्र तथा भगवान के पावन नाम में स्वल्प पुण्य वालों का विश्वास नहीं होता है —तीर्थे देवे गुरौ विप्रे ईश नाम्नि च पार्थिवे ।स्वल्प पुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते ।।गुरु को ब्रह्मा इसलिए कहा गया क्योंकि वे हमारे ह्रदय में विमल ज्ञान की सृष्टि करते है – गृ धातु से गुरु शब्द की निष्पत्ति होती है –गृणाति=उपदिशति ब्रह्म ज्ञानमिति गुरुः=जो भगवद् विषयक ज्ञान का उपदेश करें वे गुरु है ,अतः गुरु ब्रह्मा है नूतन ज्ञान की सृष्टि करने कारण । बार बारसचेत करते हुए उस ज्ञान का संरक्षण करते हैं इसलिए विष्णु हैं ।
और स्वप्रदत्त ज्ञान के द्वारा कुसंस्कारोंतथा अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का विनाश करते हैं इसलिय संहारकारी शिव हैं ।इन्हीं कारणों से उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा परब्रह्म कहा गया है —गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।हाँ एक बात और जो मैंने इन ३ प्रकार की दीक्षाओं का निरूपण किया है ,येकुलार्णव तंत्र में भगवान शिवजी के द्वारा भगवती पार्वती को उपदिष्ट हुई हैं और भागवत की श्रीधरी टीका पर जो वंशीधरी व्याख्या है उसमें १०/२/१८ में आप देख सकते हैं ।