Friday, April 19, 2019

क्यों? प्रिय दिखाई पड़ने वाले लोग अप्रिय हो जाते हैं।

पाइथागोरस ने दिलचस्प बात कही थी कि संसार और कुछ नहीं सिर्फ संख्या है। अंको का खेल। हम सब अंक हैं। अपने अपने तरीके से तमाम तरह के अंक। घर में बड़े हैं तो प्रथम अंक हैं। भाइयों बहनों में तीसरे चौथे हैं। कार्यालय में भी हमारा अंक है, वरिष्ठता या कनिष्ठता में। जेल में हम कैदी नंबर-अंक हैं। मतदाता सूची, बैंक खाता, राशन कार्ड या परीक्षा में भी हम अंक हैं। हम अंक आच्छादित जान पड़ते हैं। अंकों का महत्व विभाजन में है। विभक्त देखने में अंको का उपयोग है, लेकिन प्रश्न ढेर सारे हैं। हम उनमे से कुछ प्रश्नों से मजेदार मुठभेड़ कर सकते हैं। क्या हमारे अंक कोई वास्तविकता हैं? उत्तर है नहीं। हम हम हैं। अंक सुविधा हैं। तो क्या हमारा नाम कोई वास्तविकता है? उत्तर होगा-नहीं। नाम भी घर समाज से मिला है। तो क्या हमारी यश प्रतिष्ठा वास्तविक है? क्या इसका संबंध नाम, रूप से ही नहीं है? प्रश्नाकुलता में परत दर परत आभासी रूप, कथन ही पकड़ में आते हैं। 'मैं' भी आभासी ही हूँ। ज्ञान प्रवाह के हरेक चरण से हमारी अपनी ही अभिलाषाएं आभासी बनती हैं। हमारी अभिलाषाओं ने ही हमारा संसार रचा है। संसार पर अनेक विद्वानों ने प्रश्न उठाए हैं। प्रश्न बड़े मजेदार हैं-कि क्या आखों से दिखाई पड़ने वाली ये वस्तुएं, नदियां और प्राणी पूरे दिखाई पड़ते हैं? वे जैसे दिखाई पड़ते हैं क्या वे वास्तव में वैसे ही हैं? वे हमारी आंख का धोखा तो नहीं हैं? आंख न भी धोखा दे तो क्या हमारी समझ विश्वसनीय है? ऐसे तर्क और प्रश्न यों ही नहीं काटे जा सकते। हमारी समझ में गहरा गए मित्र बाद में मित्र नहीं रह जाते। प्रिय दिखाई पड़ने वाले लोग अप्रिय हो जाते हैं।
-डॉ मुकेश ओझा
ज्योतिष एवं आध्यात्मिक सलाहकार

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