Tuesday, July 18, 2017

समस्त पापनाशक स्तोत्र

समस्त पापनाशक स्तोत्र

भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिये गये विभिन्न उपदेश हैं। इसी के अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनतावश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम ‘समस्त पापनाशक स्तोत्र’ है।

निम्निलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें-

पुष्करोवाच
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे नमः।
नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम्।।1
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्।
विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुम्।।2
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्वष्णुर्मयि संस्थितः।।3
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च।
तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते।।4
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात्।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम्।।5
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः।
हस्तावलम्बनं विष्णु प्रणमामि परात्परम्।।6
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज।
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते।।7
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव।
दुरूक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तु ते।।8
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।
अकार्यं महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव।।9
बह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण।
जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत।।10
यथापराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।।11
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम्।।12
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव।।13
यद् भुंजन् यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः।
कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा।।14
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम्।
तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात्।।15
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।
तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।।16
यत् प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम्।
सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वघम्।।17

(अग्नि पुराणः 172.2-98)

माहात्म्यम् –

पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि।
शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते।।18
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम्।
तस्मात् पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम्।।19
प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरम्।
प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम्।।20

(अग्नि पुराणः 172.17-29)

अर्थः पुष्कर बोलेः “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्री हरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ। मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।
वे श्री विष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो। जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करने वाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मैं इस निराधार जगत में अज्ञानांधकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देने वाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर प्रभो ! कमलनयन परमात्मन् ! हृषीकेश ! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार है। नृसिंह ! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करने वाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है। केशव ! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये। परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले जगन्नाथ ! जगत का भरण-पोषण करने वाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिये। मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुण्डरीकाक्ष’, ‘हृषीकेश’, ‘माधव’ – आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन ! लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति कराने वाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायें। जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे सम्पूर्ण पापों का शमन करे।”

माहात्म्यः-

जो मनुष्य पापों का विनाश करने वाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।

Friday, July 14, 2017

पाठयेम संस्कृतं गीतम्‌

पाठयेम संस्कृतं गीतम्‌ -

                                गीतम्‌ - 

पाठयेम संस्कृतं जगति सर्वमानवान्‌ ।

प्रापयेम भारतं  सपदि परमवैभवम्‌ ॥धृ॥

व्यक्तियोजकत्वमेव  नायकत्वलक्षणम्‌

धर्मसेवकत्वमेव  शास्त्रतत्त्वचिन्तनम्‌

स्नेहशक्तिशील-शौर्य देशभक्तिभूषितम्‌

          साधयेम शीघ्रमेव  कार्यकर्तृमण्डलम्‌ ॥1॥

                            हिन्दुबन्धुमेलनेन  सर्वदोषनाशनम्‌

                            उच्चनीचजातिराज्य-भेदभाववारणम्‌

                            सामरस्यरक्षणेन  शान्तिपूर्णजीवनम्‌

                            कालयोग्यमेतदेव  मोक्षदायिदर्शनम्‌ ॥2॥

जीवनस्य  लक्ष्यमेव  राष्ट्रकर्मसाधना

सङ्‌घशक्तिवर्धनाय   दिव्यभव्ययोजना

व्यक्तिरस्तु  वर्तिकेति मामकीन भावना

 साधितास्तु माधवस्य विश्वविजयकामना ॥3॥

पाठयेम संस्कृतं जगति सर्वमानवान्‌

Sunday, July 9, 2017

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् (Mritasanjeevani Stotram)

                मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्
      (Mritasanjeevani Stotram)

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्

एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥

गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकरकी विधिपूर्वक आराधना करनेके पश्र्चात भक्तको सदा मृतसञ्जीवन नामक कवचका सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये ॥१॥ 

सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं । 
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥ 

महादेव भगवान् शङ्करका यह मृतसञ्जीवन नामक कवचका तत्त्वका भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है ॥२॥

समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं । 
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥ 

[आचार्य शिष्यको उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मनको एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवचको सुनो । यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है । इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना ॥३॥

वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः । 
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥

जरासे अभय करनेवाले, निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवतओंसे आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पर्व-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥४॥

दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥

अभय प्रदान करनेवाली शक्तिको धारण करनेवाले, तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजओंवाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोणमें मेरी सदा रक्षा करें ॥५॥ 

अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः ।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६॥

अट्ठारह भुजाओंसे युक्त, हाथमें दण्ड और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥६॥ 

खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः ।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥

हाथमें खड्ग और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, धैर्यशाली, दैत्यगणोंसे आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोणमें मेरी सदा रक्षा करें ॥७॥ 

पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥

हाथमें अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरोंसे सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥८॥

गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः । 
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥

हाथोंमें गदा और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, प्राणोमके रक्षाक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोणमें मेरी सदा रक्षा करें ॥९॥

शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः ।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥

हाथोंमें शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओंके मध्यमें मेरी रक्षा करें ॥१०॥

शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः । 
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥

हाथोंमें शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सभी विद्याओंके स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्व शिव ईशानकोणमें मेरी रक्षा करें ॥११॥ 

ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु । 
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥१२॥

ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभागमें तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभागमें मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिरकी और चन्द्रशेखर मेरे ललाटकी रक्षा करें ॥१२॥

भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु । 
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥

मेरे भौंहोंके मध्यमें सर्वलोकेश और दोनों नेत्रोंकी त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहोंकी रक्षा गिरिश एवं दोनों कानोंको रक्षा भगवान् महेश्वर करें ॥१३॥

नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः । 
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥

महादेव मेरी नासीकाकी तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठोंकी सदा रक्षा करें । दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वाकी तथा गिरिश मेरे दाँतोंकी रक्षा करें ॥१४॥

मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः । 
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥ 

मृत्युञ्जय मेरे मुखकी एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठकी रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथोंकी तथा त्रिशूली मेरे हृदयकी रक्षा करें ॥१५॥

पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः । 
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥

पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनोकी और जगदीश्वर मेरे उदरकी रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभिकी और पार्वतीपति पार्श्वभागकी रक्षा करें ॥१६॥ 

कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः । 
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥

गिरीश मेरे दोनों कटिभागकी तथा प्रमथाधिप पृष्टभागकी रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभागकी और भैरव मेरे दोनों ऊरुओंकी रक्षा करें ॥१७॥ 

जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका । 
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥

जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनोंकी, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघोकी तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरोंकी रक्षा करें॥१८॥ 

गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम । 
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥

गिरीश मेरी भार्याकी रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रोंकी रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयुकी गणनायक मेरे चित्तकी रक्षा करें ॥१९॥

सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः । 
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥

कालोंके काल सदाशिव मेरे सभी अंगोकी रक्षा करें । [ हे वत्स ! ] देवताओंके लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवचका वर्णन मैंने तुमसे किया है ॥२०॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् । 
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥

महादेवजीने मृतसञ्जीवन नामक इस कवचको कहा है । इस कवचकी सहस्त्र आवृत्तिको पुरश्चरण कहा गया है ॥२१॥

यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः । 
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥

जो अपने मनको एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरोंको सुनाता है, वह अकाल मृत्युको जीतकर पूर्ण आयुका उपयोग करता है ॥ २२॥ 

हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥

जो व्यक्ति अपने हाथसे मरणासन्न व्यक्तिके शरीसका स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवचका पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणीके भीतर चेतनता आ जाती है । फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं ॥२३॥

कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा । 
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥

यह मृतसञ्जीवन कवच कालके गालमें गये हुए व्यक्तिको भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणोंसे युक्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है ॥२४॥

युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं । 
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥

युद्ध आरम्भ होनेके पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवचका २८ बार पाठ करके रणभूमिमें उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔंसे अदृश्य रहता है ॥२५॥

न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥ 

यदि देवतऔंके भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है॥२६॥

प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं । 
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥

जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोकमें भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है ॥२७॥

सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः । 
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥

वह सम्पूर्ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाता है, सब प्रकारके रोग उसके शरीरसे भाग जाते हैं । वह अजर-अमर होकर सदाके लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है ॥२८॥

विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥

इस लोकमें दुर्लभ भोगोंको प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करता रहता है । इसलिये इस महागोपनीय कवचको मृतसञ्जीवन नामसे कहा है ॥२९॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥

 यह देवतओंके लिय भी दुर्लभ है ॥३०॥

  ॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥

॥ इस प्रकार मृतसञ्जीवन कवच सम्पूर्ण हुआ ॥

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् (Mritasanjeevani Stotram)

                मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्
      (Mritasanjeevani Stotram)

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्

एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥

गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकरकी विधिपूर्वक आराधना करनेके पश्र्चात भक्तको सदा मृतसञ्जीवन नामक कवचका सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये ॥१॥ 

सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं । 
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥ 

महादेव भगवान् शङ्करका यह मृतसञ्जीवन नामक कवचका तत्त्वका भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है ॥२॥

समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं । 
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥ 

[आचार्य शिष्यको उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मनको एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवचको सुनो । यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है । इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना ॥३॥

वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः । 
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥

जरासे अभय करनेवाले, निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवतओंसे आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पर्व-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥४॥

दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः ।सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥

अभय प्रदान करनेवाली शक्तिको धारण करनेवाले, तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजओंवाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोणमें मेरी सदा रक्षा करें ॥५॥ 

अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः ।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६॥

अट्ठारह भुजाओंसे युक्त, हाथमें दण्ड और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥६॥ 

खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः ।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥

हाथमें खड्ग और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, धैर्यशाली, दैत्यगणोंसे आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोणमें मेरी सदा रक्षा करें ॥७॥ 

पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥

हाथमें अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरोंसे सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥८॥

गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः । 
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥

हाथोंमें गदा और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, प्राणोमके रक्षाक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोणमें मेरी सदा रक्षा करें ॥९॥

शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः ।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥

हाथोंमें शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओंके मध्यमें मेरी रक्षा करें ॥१०॥

शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः । 
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥

हाथोंमें शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सभी विद्याओंके स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्व शिव ईशानकोणमें मेरी रक्षा करें ॥११॥ 

ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु । 
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥१२॥

ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभागमें तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभागमें मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिरकी और चन्द्रशेखर मेरे ललाटकी रक्षा करें ॥१२॥

भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु । 
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥

मेरे भौंहोंके मध्यमें सर्वलोकेश और दोनों नेत्रोंकी त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहोंकी रक्षा गिरिश एवं दोनों कानोंको रक्षा भगवान् महेश्वर करें ॥१३॥

नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः । 
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥

महादेव मेरी नासीकाकी तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठोंकी सदा रक्षा करें । दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वाकी तथा गिरिश मेरे दाँतोंकी रक्षा करें ॥१४॥

मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः । 
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥ 

मृत्युञ्जय मेरे मुखकी एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठकी रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथोंकी तथा त्रिशूली मेरे हृदयकी रक्षा करें ॥१५॥

पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः । 
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥

पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनोकी और जगदीश्वर मेरे उदरकी रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभिकी और पार्वतीपति पार्श्वभागकी रक्षा करें ॥१६॥ 

कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः । 
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥

गिरीश मेरे दोनों कटिभागकी तथा प्रमथाधिप पृष्टभागकी रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभागकी और भैरव मेरे दोनों ऊरुओंकी रक्षा करें ॥१७॥ 

जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका । 
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥

जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनोंकी, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघोकी तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरोंकी रक्षा करें॥१८॥ 

गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम । 
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥

गिरीश मेरी भार्याकी रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रोंकी रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयुकी गणनायक मेरे चित्तकी रक्षा करें ॥१९॥

सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः । एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥

कालोंके काल सदाशिव मेरे सभी अंगोकी रक्षा करें । [ हे वत्स ! ] देवताओंके लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवचका वर्णन मैंने तुमसे किया है ॥२०॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् । सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥

महादेवजीने मृतसञ्जीवन नामक इस कवचको कहा है । इस कवचकी सहस्त्र आवृत्तिको पुरश्चरण कहा गया है ॥२१॥

यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः । सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥

जो अपने मनको एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरोंको सुनाता है, वह अकाल मृत्युको जीतकर पूर्ण आयुका उपयोग करता है ॥ २२॥ 

हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥

जो व्यक्ति अपने हाथसे मरणासन्न व्यक्तिके शरीसका स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवचका पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणीके भीतर चेतनता आ जाती है । फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं ॥२३॥

कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा । अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥

यह मृतसञ्जीवन कवच कालके गालमें गये हुए व्यक्तिको भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणोंसे युक्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है ॥२४॥

युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं । युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥

युद्ध आरम्भ होनेके पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवचका २८ बार पाठ करके रणभूमिमें उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔंसे अदृश्य रहता है ॥२५॥

न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै । विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥ 

यदि देवतऔंके भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है॥२६॥

प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं । अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥

जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोकमें भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है ॥२७॥

सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः । अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥

वह सम्पूर्ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाता है, सब प्रकारके रोग उसके शरीरसे भाग जाते हैं । वह अजर-अमर होकर सदाके लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है ॥२८॥

विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् । तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥

इस लोकमें दुर्लभ भोगोंको प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करता रहता है । इसलिये इस महागोपनीय कवचको मृतसञ्जीवन नामसे कहा है ॥२९॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥

 यह देवतओंके लिय भी दुर्लभ है ॥३०॥

  ॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥

॥ इस प्रकार मृतसञ्जीवन कवच सम्पूर्ण हुआ ॥