Tuesday, August 29, 2017

भवान्यष्टकम् अर्थ सहित

।। भवान्यष्टकम् ।।

न  तातो  न  माता  न  बन्धुर्न दाता
न  पुत्रों  न  पुत्री  न  भृत्यो  न  भर्ता।
न  जाया  न  विद्या  न  वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं  गतिस्त्वं  त्वमेका  भवानी।।

अर्थात:

हे भवानी ! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, नौकर, स्वामी, स्त्री, विद्या, वृत्ति --इनमें से कुछ भी मेरा नहीं है।
हे देवी ! तुम्ही एकमात्र मेरी गति हो।

भवाब्धावपारे        महादु:खभीरु:
पपात   प्रकामी   प्रलोभी   प्रमत्त:।
कुसंसारपाशप्रबद्धः           सदाहं
गतिस्त्वं  गतिस्त्वं  त्वमेका  भवानी ।।

अर्थात:

मैं विशाल भवसागरमें, महादुःखों से कायर हो चुका हु। मैं कामी, लोभी, और प्रमत्त बनकर अनिच्छनीय ऐसे संसार के बंधनों में सदा सदा बंधा पड़ा हुँ।
हे भवानी ! अब तुम्ही एकमात्र मेरी गति हो।।

न  जानामि  दानं   न    च   ध्यानयोगं
न  जानामि  तन्त्रं   न   च  स्तोत्रमन्त्रम्।
न  जानामि  पूजां   न   च    न्यासयोगं
गतिस्त्वं   गतिस्त्वं  त्वमेका    भवानी।।

अर्थात:

मैं दान देना नही जानता, ध्यानयोग की मुझे जानकारी नही। पूजा और मंत्र का भी मुझे ज्ञान नही है, और न्यासादि कर्मकांड से तो मैं बिलकुल अनजान हूँ ।
हे भवानी ! अब तुम्ही एकमात्र मेरी शरण हो।।

न  जानामि  पुण्यं  न  जानामि  तीर्थं
न  जानामि  मुक्तिं  लयं  वा  कदाचित्।
न  जानामि  भक्तिं  व्रतं   वापि    मातः
गतिस्त्वं   गतिस्त्वं   त्वमेका      भवानी ।।

अर्थात:

मैं पुण्य जानता नहीं, ना ही तीर्थ, लय या मुक्ति का तो मुझे बान है।
हे माता! भक्ति या व्रत भी मै नही जानता। हे भवानी! अब तो तुम्ही केवल मेरी शरण हो।।

कुकर्मी   कुसंगी   कुबुद्धिः   कुदासः
कुलाचारहीनः           कदाचारलीनः ।
कुदृष्टिः   कुवाक्यप्रबन्धः      सदाहं
गतिस्त्वं  गतिस्त्वं   त्वमेका  भवानी।।

अर्थात:

मैं खराब कर्म वाला, खराब संगत में रहने वाला, खराब आदतों का गुलाम, कुल की शोभा बढ़े ऐसे मेरे आचरण भी नही है, दुराचारों में व्यस्त, खराब दृष्टि वाला, अयोग्य शब्द बोलने में माहिर हूँ मै।
हे भवानी! अब तो तुम्ही एकमात्र मेरी शरण हो।।

प्रजेशं     रमेशं      महेशं     सुरेशं
दिनेशं   निशीथेश्वरं  वा   कदाचित।
न   जानामि  चान्यत्  सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं  गतिस्त्वं  त्वमेका   भवानी।।

अर्थात:

मैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, चंद्रमा या अन्य कोई देवताओं को तो मै जानता भी नही हूँ ।
सदा सदा शरण देने वाली हे भवानी!
तुम्ही मेरी एकमात्र गति हो ।।

विवादे   विषादे   प्रमादे   प्रवासे
जले  चानले  पर्वते       शत्रुमध्ये।
अरण्ये  शरण्ये  सदा  मां    प्रपाहि
गतिस्त्वं   गतिस्त्वं  त्वमेका भवानी।।

अर्थात:

हे शरण में आनेवाले की रक्षा करनेवाली !
विवाद, विषाद, प्रमाद, प्रवास, जल, अग्नि, पर्वत, शत्रु, जंगल के बीच ( आपत्ति के बीच ) सदा  मेरी रक्षा करना।
हे भवानी! तुम्ही एकमात्र मेरी गति हो।।

अनाथो  दरिद्रो     जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः   सदाजाऽयवक्त्रः।
विपत्तौ  प्रविष्टः   प्रणष्टः   सदाहं
गतिस्त्वं  गतिस्त्वं। त्वमेका  भवानी।।

अर्थात:

हे देवी!  मैं सदा सदा के लिए अनाथ, दरिद्र, वृद्धावस्था से क्षीण, रोगी, अति दुर्बल, दीन, जड़, आपदाओं में फँसा हुआ, खत्म हो चुका हूँ।
हे भवानी! तुम्ही एकमात्र मेरी शरण हो।।

इति श्रीमच्छंऽकराचार्यविरचितं भवान्यष्टकं संपूर्णं।

।। गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ।।
हे माँ ! मै मंदबुद्धि जड तेरे शरण के योग्य हूँ ।।
शरणम् मम।।

Sunday, August 27, 2017

शंकराचार्य और भगवान शंकर का काशी में शास्त्रार्थ

मुझे आदि शंकराचार्य के बारे में एक सूंदर घटना का स्मरण आता है, वे पहले शंकराचार्य थे, जिन्होंने चार मंदिरों का निर्माण करवाया था--चारों दिशाओं में बैठे चार शंकराचार्यों के लिए चार गद्दियां। संभवत: पूरी दुनिया में वे उस वर्ग के दार्शनिको में सबसे प्रसिद्ध हैं जो कि यह सिद्ध करने में लगे हैं कि सब माया है। निसंदेह वे एक महान तार्किक थे, क्योंकि वह निरंतर दूसरे दार्शनिकों को पराजित करते आए थे उन्होंने देश भर में घूम कर बाकी सभी दर्शनशास्त्र के विद्यालयों को हरा दिये। उन्होंने अपने दर्शनशास्त्र को एकमात्र उचित दर्शन के रूप में स्थापित कर दिया । वह एकमात्र दृष्टिकोण: कि सब कुछ झूठ है, सब माया है।

शंकराचार्य वाराणसी में थे। एक दिन, सुबह-सुबह--अभी अंधेरा ही था, क्योंकि हिन्दू पंडित सूरज उगने से पहले ही नहा लिया करते हैं--उन्होंने स्नान किया। और जब वे सीढ़ियों से ऊपर आ ही रहे थे, एक आदमी ने उनको छू लिया और ऐसा गलती से नहीं हुआ था यह उसने जानबूझ कर किया था, "क्षमा करें मैं क्षुद्र हूं, आप को गलती से छू लिया परंतु अब आप को स्वच्छ होने के लिए दौबारा स्नान करना होगा।"

शंकराचार्य क्रोधित हो गए। वे बोले, "यह तुमसे गलती से नहीं हुआ, जिस तरीके से तुमने ऐसा किया; उससे साफ़ पता चलता है कि यह तुमने जान-बूझ के किया था। तुम्हे नरक भोगना होगा।"
वह व्यक्ति बोला, "जब सब-कुछ माया है, तो लगता है अवश्य ही नरक सत्य होगा।" शंकराचार्य तो यह सुन कर स्तभ्ध रह गए।

वह व्यक्ति बोला, "इससे पहले कि तुम स्नान करने जाओ, तुम्हे मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। यदि तुमने मेरे उत्तर नहीं दिए तो अब जब भी तुम स्नान कर के आओगे मैं तुम्हारा स्पर्श कर लूंगा।"
उस समय वहां एकांत था, सिवाय उन दोनों के कोई नही था, तो शंकराचार्य ने कहा, "तुम बड़े अजीब व्यक्ति हो। क्या हैं तुम्हारे प्रश्न?"

उसने कहा, "मेरा पहला प्रश्न है: क्या मेरा शरीर भ्रम है? क्या आपका शरीर भ्रम है? और यदि दो भ्रम शरीर एक दुसरे का स्पर्श कर लेते हैं तो, इसमें आपत्ति क्या है? क्यों आप एक और स्नान लेने के लिए जा रहे हो? जो उपदेश आप देते हो उसका पालन स्वयं ही नहीं करते । एक माया के जगत में, क्या एक अछूत और ब्राह्मण में कोई भेद हो सकता है?- पवित्र और अपवित्र में ?--जब दोनों ही भ्रम हैं, जब दोनों उसी एक तत्व के बने हो जिनके सपने बने होते हैं? तब कैसा उपद्रव?"

शंकराचार्य, जो कि बड़े-बड़े दार्शनिको को पराजित कर रहे थे, इस सरल से व्यक्ति को कोई उत्तर नहीं दे पाए क्योंकि जो भी उत्तर वे देते वो उनके खुद के दर्शन के विरुद्ध होता। यदि वे कहते हैं कि यह भ्रम है, तब इसमें क्रोधित होने जैसा कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वे कहते कि ये सत्य है, तब वे इस तथ्य को स्वीकार करते कि शरीर सत्य है... पर तब एक समस्या है। यदि मनुष्य का शरीर सत्य है, तब पशुओं का शरीर, पेड़ो का शरीर, ग्रहों का शरीर, सितारों... सब सत्य है।

और उस व्यक्ति ने कहा, "मैं इस बात से अवगत हूं की आपको इसका उत्तर नहीं पता--यह आपके सारे दर्शनशास्त्र को नष्ट कर देगा। मैं आपसे एक और प्रश्न करता हूं: मैं एक क्षुद्र हूं, अछूत हूं, अपवित्र हूं, मेरी अपवित्रता कहां है--मेरे शरीर में या कि मेरी आत्मा में? मैंने आपको यह घोषणा करते सुना है कि आत्मा पूर्ण और शाश्वत रूप से पवित्र है, और उसे अपवित्र करने का कोई उपाय नहीं है; तो दो आत्माओं के बीच भेद कैसे हो सकता है? दोनों ही पवित्र हैं, पूर्णता, पवित्र और अपवित्रता की कोई सीमा नहीं होती--कि कोई ज्यादा पवित्र हो और कोई कम। तो हो सकता है कि मेरी आत्मा ने आपको अपवित्र कर दिया है और आपको दूसरा स्नान करना पड़ रहा है?

अब यह और भी कठिन था। लेकिन वे कभी भी इस तरह के परेशानी में नहीं पड़े थे-- यथार्थ, वास्तविक, एक तरह से वैज्ञानिक। बजाय शब्दों से तर्क करने के, उस क्षुद्र ने ऐसी स्तिथि खड़ी कर दी कि अदि शंकराचार्य को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। और क्षुद्र ने कहा, "तो आपको दुबारा स्नान करने की आवश्यकता नहीं है, वैसे भी वहां कोई नदी नहीं है, मैं भी नहीं, आप भी नहीं; सब स्वप्न ही तो है। आप मंदिर में जाएं--और वह भी एक स्वप्न है--और परमात्मा से प्रार्थना करें, वह भी एक स्वप्न है। क्योंकि वह भी मन के द्वारा खड़ा किया हुआ एक प्रक्षेपण है जो कि एक भ्रम है, और एक भ्रमित मन कुछ भी सत्य प्रक्षेपित नहीं कर सकता।
       ओशो
(कथा कहती है कि वे क्षुद्र  चाण्डाल वेष धारी साक्षात शिव  ही थे)

Tuesday, August 15, 2017

शाकाहारी हुई दुनिया तो हर साल 70 लाख तक कम मौतें

शाकाहारी हुई दुनिया तो हर साल 70 लाख तक कम मौतें

दुनिया भर में 12 जून का दिन विश्व मांस मुक्त दिवस के रूप में मनाया गया. अगर दुनिया अचानक हमेशा के लिए शाकाहारी हो जाए तो इसका असर क्या होगा?

हम यहां बता रहे हैं कि इससे जलवायु, वातावरण, हमारी सेहत और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

यदि 2050 तक दुनिया शाकाहारी हो गई तो हर साल 70 लाख कम मौतें होंगी और अगर पशु से जुड़े उत्पाद बिल्कुल नहीं खाए जाते हैं तो हर साल 80 लाख लोग कम मरेंगे.ऑक्सफर्ड मार्टिन स्कूल फ्यूचर ऑफ फूड प्रोग्राम में एक रिसर्चर मार्को स्प्रिंगमैन के मुताबिक खाद्य समाग्रियों से जुड़े उत्सर्जन में 60 फ़ीसदी की गिरावट आएगी. यह रेड मीट से मुक्ति के कारण होगा क्योंकि रेड मीट मिथेन गैस उत्सर्सिज करने वाले पशुओं से मिलता है.हालांकि इससे विकासशील दुनिया में किसान बुरी तरह से प्रभावित होंगे. शुष्क और अर्धशुष्क इलाक़ों को पशुपालन के लिए इस्तेमाल किया जाता है. अफ़्रीका में सहारा के पास सहेल लैंड है और यहां रहने वाले लोग पशुपालन पर निर्भर हैं. ये स्थायी रूप से कहीं और विस्थापित होने के लिए मजबूर होंगे. इससे इनकी सांस्कृतिक पहचान ख़तरे में पड़ेगी.

चारागाहों को लेकर फिर से सोचना होगा. जंगल जलवायु परिवर्तन से कम प्रभावित होंगे. ख़त्म हो रही जैव विविधता फिर से वापस आएगी. जंगल में एक किस्म का संतुलन बनेगा. पहले शाकाहारी पशुओं को बचाने के लिए हिंसक जानवरों को मार दिया जाता था.जो पशुओं से जुड़ी इंडस्ट्री में लगे हैं उन्हें अपने नए ठिकाने और करियर की तलाश करनी होगी. वे कृषि, बायोऊर्जा और वनीकरण की तरफ़ रुख कर सकते हैं. अगर इन्हें दूसरा रोजगार नहीं मिलता है तो व्यापक पैमाने पर लोग बेरोजगार होंगे और इससे पारंपरिक समाज में भारी उठापटक की स्थिति होगी.कुछ मामलों में इसका जैवविविधता पर बुरा असर भी पड़ेगा. भेड़ों की चारागाहों वाले कई शताब्दियों से ज़मीन को आकार देने में मदद मिलती है. ऐसे में पर्यावरण की वजह से पशुओं को रखने के लिए किसानों को भुगतान करना होगा.
दुनिया शाकाहारी होती है तो फिर क्रिसमस टर्की (एक तरह का पक्षी जिसे लोग खाते हैं) नहीं रहेगा. शाकाहारी होने का मतलब है कि परंपराएं बुरी तरह से प्रभावित होंगी. दुनिया भर में कई ऐसे समुदाय हैं जो विवाह और उत्सव में मांस उपहार में देते हैं. कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के बेन फिलन का कहना है कि इसलिए अक्सर इस तरह की कोशिश कम पड़ जाती है.मांस की खपत नहीं होने की वजह से दिल की बीमारी, डायबिटीज़, स्ट्रोक और कुछ तरह के कैंसर की आशंका नहीं रहेगी. ऐसे में दुनिया भर की दो या तीन फ़ीसदी जीडीपी जो मेडिकल बिल पर खर्च होती है वो बच जाएगी.
लेकिन हम लोगों को पोषण की कुछ वैकल्पिक चीज़ें के बदले ही मांस को हटाना होगा. एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर के दो अरब लोग कुपोषित हैं. अनाज के मुकाबले मांस और उससे जुड़े उत्पादों से लोगों को ज़्यादा पोषण मिलता है.

शोफिया स्मिथ गेलरबीबीसी
13 जून 2017

वन्दे मातरम् (राष्ट्रगीतम्)

शुभरात्रि:मित्राणि!
कृपया शयनात् पूर्वम् एकवारं प्रतिदिनं मॉभारतीं स्मराम:इति विनम्रनिवेदनम्||

वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम्।। १।।
शुभ्र-ज्योत्स्ना-पुलकित-यामिनीम्,
फुल्ल-कुसुमित-द्रुमदल-शोभिनीम्|
सुहासिनीम्,सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम्। वन्दे मातरम्।। २।।

कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
अबला केनो मॉ एतो बले,
बहुबलधारिणीम्, नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम्।। ३।।

तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदये तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे।
वन्दे मातरम्। । ४।।

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलाम् अमलाम् अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम्।। ५।।

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम्।। ६।।

Monday, August 14, 2017

वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना

वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना:-

देश के सभी लोग सुखी और समृद्ध हों इसके लिए यजुर्वेद में यह राष्ट्रीय प्रार्थना वर्णित है -

"आ ब्रह्मण ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योतिव्याधि महारथो जायतां

दोग्ध्री धेनुर्वोढानडवानाशुः सप्ति पुरन्धिर्योषाः जिष्णु रथेष्ठा सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो

जायतां निकामे निकामे न पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यतां योगक्षेमो न कल्पताम "

- यजुर्वेद 22, 22

' हे ब्रह्म! इस राष्ट्र में ब्राह्मण ब्रह्मतेज से संपन्न हों, क्षत्रिय शूरवीर धनुर्धारी महारथी हों, गाय दूध

देनेवाली बैलभारवाही और घोड़े शीघ्रगामी हों, नगर को धारण करने वाली नारियां , सभेय(संसदसदस्य) विजयशील युवा रथारुढ वीर

और यज्ञ करनेवाले हों, पर्जन्यदेव इछानुसार वर्षा करें, औषधियां फलवती हों, हमें अप्राप्त की प्राप्ति हो और हमारे प्राप्त की रक्षा हो '

अर्थ:

हे ब्रह्मन्‌-विद्यादि गुणों करके सब से बडे परमेश्वर जैसे हमारे,
राष्ट्रे-राज्य में,
ब्रह्मवर्चसी-वेदविद्या से प्रकाश को प्राप्त,
ब्राह्मणः-वेद और ईश्वर को अच्छा जाननेवाला विद्वान्‌,
आ जायताम्‌-सब प्रकार से उत्पन्न हो।
इषव्यः-बाण चलाने में उत्तम गुणवान्‌,
अतिव्याधी-अतीव शत्रुओं को व्यधने अर्थात्‌ ताड़ना देने का स्वभाव रखने वाला,
महारथः-कि जिसके बडे बडे रथ और अत्यन्त बली वीर है ऐसा,
शूरः-निर्भय,
राजन्या-राजपुत्र,
आ जायताम्‌-सब प्रकार से उत्पन्न हो।
दोग्ध्री-कामना वा दूध से पूर्ण करनेवाली,
धेनुः-वाणी वा गौ,
वोढा-भार ले जाने में समर्थ,
अनङ्वान्‌-बडा बलवान्‌ बैल,
आशुः-शीघ्र चलने वाला,
सप्तिः-घोडा,
पुरन्धिः-जो बहुत व्यवहारों को धारण करती है वह,
योषा-स्त्री,
रथेष्ठाः-तथा रथ पर स्थित होने और,
जिष्णूः-शत्रुओं को जीतनेवाला,
सभेयः-सभा में उत्तम सभ्य,
युवा-जवान पुरुष,
आ जायताम्‌- उत्पन्न हो,
अस्य यजमानस्य- जो यह विद्वानों का सत्कार करता वा सुखों की संगति करता वा सुखों को देता है, इस राजा के राज्य में,
वीरः-विशेष ज्ञानवान्‌ शत्रुओं को हटाने वाला पुरुष उत्पन्न हो,
नः-हम लोगों के,
निकामे निकामे-निश्चययुक्त काम काम में अर्थात्‌ जिस जिस काम के लिए प्रयत्न करें उस उस काम में,
पर्जन्यः-मेघ,
वर्षतु-वर्षे।
ओषधयः-ओषधि,
फलवत्यः-बहुत उत्तम फलोवाली,
नः-हमारे लिए,
पच्यन्ताम्‌-पकें,
नः-हमारा,
योगक्षेमः-अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति लक्षणों वाले योग की रक्षा अर्थात्‌ हमारे निर्वाह के योग्य पदार्थों की प्राप्ति,
कल्पताम्‌-समर्थ हो वैसा विधान करो अर्थात्‌ वैसे व्यवहार को प्रगट कराइये।

‍(महर्षि दयानन्द द्वारा किया गया अर्थ)

Thursday, August 10, 2017

12 अगस्त रात मे दिन जैसा प्रकाश नही होगा परन्तु यह मौका आसमान में टूटते तारों की आतिशबाज़ी देखने का है

12 अगस्त रात मे दिन जैसा प्रकाश नही होगा परन्तु यह मौका आसमान में टूटते तारों की आतिशबाज़ी देखने का है
11एवं 12 तारीख के रात को हम इस मौसम के श्रेष्ठ और रंगीन उल्कापात - पेर्सेइड मेटेओर शावर का आनंद ले सकते हैं।
खगोल वैज्ञानिक गणनाओं के आधार पर 11-12 अगस्त 2017 और 12-13 अगस्त 2017 की मध्यरात्रि से भोर तक पेर्सेइड उल्कापात के विहंगम दृश्य का अवलोकन किया जा सकता है।
आसमानी आतिशबाज़ी की यह घटना 12-13 अगस्त की मध्यरात्रि से भोर तक अपने चरम पर होगी।
उल्कापात एक खगोलीय घटना है जिसमें रात्रि आकाश में कई उल्काएं एक बिंदु से निकलती नज़र आती हैं।
ये उल्काएं या मेटिअरॉइट (सामान्य भाषा में टूटते तारे) धूमकेतु या पुच्छल तारों के पीछे घिसटते धूल के कण, पत्थर आदि होते हैं जो पृथ्वी के वातावरण में बहुत तीव्र गति से प्रवेश करते हैं और हमें आसमानी आतिशबाज़ी का नज़ारा दिखाई देता है।
अधिकांश उल्काएँ आकार में धूल के कण से भी छोटी होती हैं जो विघटित हो जाती हैं और सामान्यतः पृथ्वी की सतह से नहीं टकरातीं।
यदि उल्कापात के दौरान उल्काओं का कुछ अंश वायुमंडल में जलने से बच जाता है और पृथ्वी तक पहुँचता है तो उसे उल्कापिंड या मेटिअरॉइट कहते हैं।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस वर्ष पेर्सेइड उल्कापात में 150 उल्का प्रति घंटे नज़र आयेंगी जो सामान्य से अधिक हैं परन्तु उल्काओं की यह बढ़ी संख्या चन्द्रमा की चमक में छुप जाएगी।
खगोलविद उम्मीद जता रहे हैं कि पेर्सेइड उल्कापात की चमक चन्द्रमा की रोशनी से अधिक नहीं दबेगी और फिर देखने वालों का उत्साह इसकी चमक को बरकरार रखेगा।
पेर्सेइड उल्कापात की समाप्ति पर प्रातः काल पूर्व की ओर चमकीला ग्रह शुक्र को भी देखा जा सकता है, जो कि सूर्य और चन्द्रमा के बाद तीसरा सबसे चमकदार ग्रह है।
तो आइये पेर्सेइड उल्कापात की दुर्लभ घटना का अवलोकन कर आनन्दित हो।

डॉ. मुकेश ओझा
(लेखक महर्षि वैदिक विश्व विद्यालय के ज्योतिष प्रवक्ता हैं।
एवं मोमेन्टम समूह वाराणसी के मार्गदर्शक हैं।)
स्रोत : बी बी सी हिंदी

नक्षत्रों के अनुसार पेड़ ,बगीचा ,बाटिका लगायें?

अपने -अपने नक्षत्रों के अनुसार "पेड़ " लगायें।

-ग्रहों की शांति हेतु- पूजा -पाठ ,यज्ञ हवन में विशेष प्रजाति के पल्लव {टहनी } पुष्प ,फूल ,फल ,काष्ट{समिधा }की आवश्यकता पड़ती है ,जो कि नवग्रह एवं नक्षत्रों से सम्बंधित पौधे ही होतें हैं । आज मै आपके.  साथ डॉ. मुकेश ओझा के विचारों से अवगत कराता  हूँ
पुराणों के अनुसार जिस नक्षत्र वा ग्रह से आप प्रभावित हो उस समय उस नक्षत्र से सम्बन्धी पौधे का यत्नपूर्वक संरक्षण तथा पूजन से ग्रह की शांति होती है तथा जातक को मनोवांछित फल मिलता है ।।.    
----क्यों न हमलोग --अपनी सुख समृधि के लिए - अपने -अपने नक्षत्रों के अनुसार पेड़ ,बगीचा ,बाटिका लगायें?--ध्यान दें अपने -अपने नक्षत्र  को अगर जानते हैं तो दी गई जानकारी से पेड़ अपने -अपने घर में या घर के सामने लगाएं वही लाभ मिलेगा जो पूजा -पाठ या रत्नों से मिलता है ! समस्त प्रकार के पेड़ -पौधें प्रत्येक शहर की नर्सरी में प्रायः उपलब्ध रहते हैं या आपके तनिक से प्रयास से उपलब्ध हो सकते हैं । ।
{1 }-अश्विनी ---का -पेड़ =--कुचिला
{2}-भरणी----का पेड़ -----आंवला
{3 }-कृतिका -का पेड़ ---गूलर
{4 }-रोहिणी --का पेड़ -जामुन
{5 }-मृगशिरा का पेड़ = बांस.
{7 }-पुनर्वसु ----का पेड़ -----खैर
{6}}-आर्द्रा-----का पेड़ ---शीशम.
{8 }-पुष्य -----का पेड़ ---पीपल
{9 }-आश्लेषा -का पेड़ --नागकेसर
{10 }-मघा---का पेड़ --बरगद
{11 }-पुर्वा फाल्गुनी---का पेड़ --ढ़ाक
{12 }-उत्तरी फाल्गुनी का पेड़ ---पाकड़ 
{13 }-हस्त ---रीठा
{14 }-चित्रा------वेळ
{15 }-स्वाती ------अर्जुन.
{16 }-विशाखा ---कटाई.
{17 }-अनुराधा ---मौलश्री. 
{18 }-ज्येष्ठा-----चीड़का पेड़ .
[19 }-मूल --का पेड़ --साल.
{20 }-पूर्वाषाढा--का पेड़ -जलवेतस.
{21 }-उत्तराषाढा ----का पेड़ =कटहल
{22 }-अभिजित{ xxx}
{23 }-श्रवण --का पेड़ =-मदार.
{24 }-शतभिषा --का पेड़ -कदम्ब.
{25 }-पूर्वा भाद्रपद ---का पेड़ -आम.
{26 }-उत्तरा भाद्रपद --का पेड़ --नीम.
{27 }--रेवती --का पेड़ ---महुआ.------

नोट --उक्त नक्षत्रों के पौधे हैं जो आप --ग्रह जनित दोषों के निवारणार्थ सरलता से पौधे {रोप }लगा सकते हैं । ग्रह ,नक्षत्रों के पौधों का उल्लेख ,पौराणिक ज्योतिष ,आयुर्वेदिक ,तांत्रिक व् अन्य  ग्रंथों में मिलता है --इनमें से प्रमुख ग्रन्थ हैं --
{१}-नारद पुराण{२}-ज्योतिष ग्रन्थ हैं --नारद संहिता {३}-आयुवेदिक ग्रन्थ --राज निघंट वृहत धू श्रुत नारायणी संहिता {४}-तांत्रिक ग्रन्थ -शारदा तिलक ,मन्त्रमहार्णव ,श्री विद्यार्नव तंत्र आदि {५} अन्य ग्रंथ---आनादाश्रम प्रकाशन ,वनस्पति ---अध्यात्म ,नक्षत्र वृक्ष आदि ।।.-
मै आप सभी सज्जनों से आशा करता हूँ कि यदि ज्योतिष की बात जनहित और देश हित में है तो बृक्षों को अवश्य लगाए।
आपका ज्योतिषी ।। डॉ. मुकेश ओझा।।
आप सदा आनन्दित रहें।

Saturday, August 5, 2017

आत्मज्ञान किसे और कैसे होता है?

आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान किसे और कैसे मिलता है इस बात का उल्लेख मुंडकोपनिषद के अधःप्रस्तुत  मंत्र में मिलता है:

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।।

अर्थ – यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती है और न ही बौद्धिक क्षमता से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी ही इच्छा करता है उसे यह प्राप्त होता है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है ।

धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है ।  आत्मज्ञान के लिए केवल एक शर्त है उसे पाने की इच्छा क्योंकि आत्मा को कही खोजना नहीँ है वह हम ही हैं ।।

Friday, August 4, 2017

नारदभक्तिसूत्र

*_नारदभक्तिसूत्रम्_*

*अध्यायः १*
*पराभक्तिस्वरूपम्*

१. अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ||
२. सा त्वस्मिन् पर(म)प्रेमरूपा ||
३. अमृतस्वरूपा च ||
४. यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ||
५. यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाञ्छति, न शोचति, न द्वेष्टि, न रमते, न उत्साही भवति ||
६. यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति ||
७. सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ||
८. निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ||
९. तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषु उदासीनता च ||
१०. अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ||
(भगवद्गीता- सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||)
११. लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषु उदासीनता ||
१२. भवतु निश्चयदार्ढ्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ||
१३. अन्यथा पातित्याशङ्कया ||
१४. लोकोऽपि तावदेव, भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीरधारणावधि ||
१५. तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ||
१६. पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ||
१७. कथादिष्विति गर्गः ||
१८. आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ||
१९. नारदस्तु तदर्पित अखिलाचारता, तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ||
२०. अस्त्येवमेवम् ||
२१. यथा व्रजगोपिकानाम् ||
(भागवतम् १०|४६)
२२. तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ||(भागवतम् १०|२९|३२,३६)
२३. तद्विहीनं जाराणामिव ||
(भागवतम् १०|२९|४१, १०|३१|४)
२४. नास्त्येव तस्मिन् तत्सुखसुखित्वम् ||
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*अध्यायः २*
*पराभक्तिमहिमा*

२५. सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ||
२६. फलरूपत्वात् ||
२७. ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वात्, दैन्यप्रियत्वात् च ||
२८. तस्याः ज्ञानमेव साधनमित्येके ||
२९. अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ||
३०. स्वयंपलरूपतेति ब्रह्मकुमारः ||
३१. राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ||
३२. न तेन राजा परितोषः क्षु (धाशा) च्छान्तिर्वा ||
३३. तस्मात् सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ||
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*अध्यायः ३*
*भक्तिसाधनम्*

३४. तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ||
३५. तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ||
३६. अव्यावृत्त (त) भजनात् ||
३७. लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात् ||
३८. मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ||
३९. महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ||
४०. लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ||
४१. तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ||
४२. तदेव साध्यताम्, तदेव साध्यताम् ||
४३. दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः ||
४४. कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात् ||
४५. तरङ्गायिता अपीमे सङ्गात्समुद्रायन्ति ||
४६. कस्तरति कस्तरति मायाम् ? यः सङ्गं त्यजति, यो महानुभावं सेवते, यो निर्ममो भवति ||
४७. यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, यो योगक्षेमं त्यजति ||
४८. यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति, ततो निर्द्वन्द्वो भवति ||
४९. वेदानपि संन्यस्यति; केवलं अविच्छिन्नानुरागं लभते ||
५०. स तरति स तरति, स लोकांस्तारयति ||
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*अध्यायः ४*
*भक्तिलक्षणम्*

५१. अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ||
५२. मूकास्वादनवत् ||
५३. प्रकाशते क्वापि पात्रे ||
५४. गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानम् अविच्चिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपम् ||
५५. तत्प्राप्य तदेव अवलोकयति, तदेव शृणोति,तदेव भाषयति, तदेव चिन्तयति ||
५६. गौणी त्रिधा, गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ||
५७. उत्तरस्मादुत्तरस्मात् पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ||
५८. अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ |य
५९. प्रमाणान्तरस्य अनपेक्षितत्वात्, स्वयं प्रमाणत्वात् ||
६०. शान्तिरूपात् परमानन्दरूपाच्च ||
६१. लोकहानौ चिन्ता न कार्या, निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ||
६२. न तत्सिद्धौ लोकव्यवहारो हेयः, किन्तु फलत्यागः तत्साधनं च कार्यमेव ||
६३. स्त्री-धन-नास्तिकचरित्रं न श्रवणीयम् ||
६४. अभिमान-डम्भादिकं त्याज्यम् ||
६५. तदर्पित-अखिल-आचारः सन्, कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ||
६६. त्रिरूपभङ्गपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं प्रेमकार्यं प्रेमैव कार्यम् ||
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*अध्यायः ५*
*भक्तमहिमा*

६७. भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ||
६८. कण्ठावरोध-रोमाञ्चाश्रुभिः परस्परं लापमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ||
६९. तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि, सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि, सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ||
७०. तन्मयाः ||
७१. मोदन्ते पितरो, नृत्यन्ति देवताः, सनाथा चेयं भूर्भवति ||
७२. नास्ति तेषु जाति-विद्या-रूप-कुल-धन-क्रियादिभेदः ||
७३. यतः तदीयाः ||
७४. वादो न अवलम्ब्यः ||
७६. भक्तिशास्त्राणि मननीयानि, तदुद्बोधककर्माणि करणीयानि ||
७७. सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्धमपि व्यर्थं न नेयम् ||
७८. अहिंसा-सत्य-शौच-दया-आस्तिक्यादि-चारित्र्याणि परिपालनीयानि ||
७९. सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तैः भगवानेव भजनीयः ||
८०. स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ||
८१. त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ||
८२. गुणमाहात्म्यासक्ति-रूपासक्ति-पूजासक्ति-स्मरणासक्ति-दास्यासक्ति-सख्यासक्ति-वात्सल्यासक्ति-कान्तासक्ति-आत्मनिवेदनासक्ति-तन्मयतासक्ति-परमविरहासक्ति-रूपा एकधा अपि एकादशधा भवति ||
८३. इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार-व्यास-शुक-शाण्डिल्य-गर्ग-विष्णु-कौण्डिन्य-शेष-उद्धव-आरुणि-बलि-हनुमद्-विभीषणादयो भक्ताचार्याः ||
८४. य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसति, श्रद्धते, स भक्तिमान् भवति, सः प्रेष्ठं लभते सः प्रेष्ठं लभते ||

*_इति नारदभक्तिसूत्रं समाप्तम् ||_*