आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान किसे और कैसे मिलता है इस बात का उल्लेख मुंडकोपनिषद के अधःप्रस्तुत मंत्र में मिलता है:
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।।
अर्थ – यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती है और न ही बौद्धिक क्षमता से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी ही इच्छा करता है उसे यह प्राप्त होता है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है ।
धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है । आत्मज्ञान के लिए केवल एक शर्त है उसे पाने की इच्छा क्योंकि आत्मा को कही खोजना नहीँ है वह हम ही हैं ।।
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